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मेरी एक ग़ज़ल।।

ये सबके सब जो हैं, सताए हुए
हैं नफरत के शोले दबाए हुए

फिर चला तू उन्हीं शोलों से खेलने
पर जिसने है तेरे जलाये हुए

लौटकर वापस अपने घर आना पड़ा
दो आंखे थी आंसू छुपाये हुए

झगड़ते हैं आपस में क्यों आदमी
एक आदम से ही तो सब आये हुए

मुहब्बत में ज़ख्मी एक तुम ही नहीं
बहुत चोट हम भी है खाये हुए

तेरी दास्तां तुम्हारी नज़र कह गई
जिसे रखा था सबसे छुपाये हुए

उस चमन में बागवां भी क्या कुछ करे
जब फूल ही हो सारे कुम्हलाए हुए

वो लोग भी हादसों से डर गये
जो पहले कभी थे आज़माए हुए

याद उसकी मुझे अब भी क्यों आती है
एक मुद्दत हुई जिसको भुलाये हुए

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