क्या जो हुआ वह अकल्पनीय था? वर्तमान प्रधानमंत्री का पुनः चयन तो लगभग तय ही था फिर इतनी हैरानी क्यों? शायद इस विराट बहुमत के साथ वापसी की आशा किसी ने नहीं की थी। जिन उम्मीदवारों को जीत मिली, उन्हें भी इस प्रचंड बहुमत का अंदाज़ा नहीं था लेकिन उनका सपना और लक्ष्य ज़रूर था।
2014 में एक तरफ जहां व्यक्ति विशेष की लहर थी, तो वहीं 2019 में धार्मिक-भावनाओं से पुष्ट नव-राष्ट्रवाद की अदृश्य सुनामी थी। इस बार का वोट, वैश्विक स्तर पर व्याप्त आतंकवाद को मुक्का दिखाने के लिए था।
जी हां, इस बार का वोट सिर्फ अपने घर की टोंटी में पानी लाने के लिए नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत को मज़बूत दिखाने के लिए दिया गया है, जिसमें हाल ही में हुए न्यूज़ीलैंड, पुलवामा और श्रीलंका की मनहूस घटनाओं ने आग में घी का काम किया।
यह वोट मोबाइल पर हर पल की जानकारी रखने वाले वोटर की तरफ से दिया गया है। ऐसी बात नहीं है कि भारत में ही सिर्फ ऐसी अनोखी चीज़ हो रही है, बल्कि अमेरिका, इज़राइल, यूके में ब्रेक्सिट, पोलैंड, हंगरी, ऑस्ट्रेल्या, जर्मनी और इटली में भी इस तरह के जनादेश आ रहे हैं। यह 9/11 के बाद की सत्यता और वास्तविकता दोनों है।
जिस जनता ने यह आदेश दिया है, उसने ही 6 दशकों तक काँग्रेस की झोलियां भी एकमुश्त भरी हैं। भारत की बहुसंख्यक आबादी जिसकी गर्दन मस्जिद, गिरजाघर और गुरुद्वारे के सामने से गुज़रते हुए खुद झुक जाती है, अचानक धर्मनिरपेक्षता का लिबास अपने कंधे से उतारने पर आमादा क्यों है? जनता की आशाओं और क्षमताओं में ऐसा क्या बदला है कि वे देश की सबसे पुरानी और भूतपूर्व विशाल पार्टी पर भरोसा नहीं कर पा रही है।
अचानक कुछ नहीं होता
यह स्पष्ट है कि पहले काँग्रेस नब्ज़ टटोलने में नाकाम रही और अब जनता टटोलने ही नहीं दे रही है क्योंकि उन्हें कोई समर्थ वैद्य ही नहीं दिख रहा है। काँग्रेस पर धर्म-निरपेक्ष दल की बजाय एक धर्म विशेष की पार्टी होने का तमगा चस्पा दिया गया, जिससे छुटकारा पाने के लिए वह अंत तक छटपटाती रही।
सबके लिए समान कानून और राम मंदिर निर्माण जैसे मुद्दे समय रहते जनता के बीच जाकर समझाए और सुलझाए जा सकते थे लेकिन यह अब नासूर बन गए हैं जिनमें से निकलता मवाद कट्टरता का घोल बना रहा है। यह पैदा होती वैचारिक कट्टरता अब व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक ताने-बाने भी ढीले कर रही है।
जब अन्य दल जातिगत समीकरण बैठा रहे थे, तब भाजपा वर्ण आधारित राजनीति में जुटी थी। ऐसा नहीं है कि उसने जातिगत राजनीति नहीं की, बल्कि उसका स्तर और ऊपर कर दिया। जाति-आधारित दलों के परम्परागत वोट बैंक को तसल्ली देकर कि उनका आरक्षण नहीं हटेगा, भाजपा ने सैन्यकर्मी, डॉक्टर, वकील, अध्यापक, व्यापारी, नव-उद्यमी, युवा और बेरोज़गार आदि को आज की भाषा में आज के समाधान दिखाए।
मैं यहां अभी समाधानों की सफलता और शाश्वतता पर बात नहीं कर रहा। भूखे पेट भजन नहीं होय गोपाला लेकिन आज की पीढ़ी खड्डे खोदकर भी जीवनयापन नहीं करना चाहती। पानी की कमी से जूझ रहे किसान को खेती करने से रोकने के बजाय कम पानी में अधिक उत्पादन करने जैसे समाधान उपलब्ध कराने होंगे।
एक मुद्दा, एक समाधान
जनता हमेशा उपलब्ध अवसर में से बेहतर से बेहतर नेतृत्व चुनना चाहती है। इन चुनावों में भाजपा ने मुद्दों की टोकरी में से कई सारे सार्थक मुद्दे हटाकर सिर्फ राष्ट्रीय सुरक्षा को मुख्य मुद्दा बनाया और बाकी मुद्दों पर जनता को विश्वास दिलाने में कामयाब रही कि कार्य प्रगति पर है।
इसलिए एक चांस तो और बनता है। एक मुद्दा, एक समाधान। सिर खुजाने की गुंजाइश ही नहीं छोड़ी। सो जनता ने भी इस बार सीधा प्रधानमंत्री ही चुना, ना कि सांसद। किसी भी अन्य पार्टी में उनके कान खींचने वाले मास्टर और कच्ची ज़मीन पर अपने पैर घिसने वाले सिपाही नहीं रहे। भाजपा में अभी तक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, नींव का पत्थर और मार्ग प्रशस्त करने वाली खिड़की बना हुआ है।
विपक्षहीन लोकतंत्र
कमज़ोर विपक्ष, कमज़ोर लोकतंत्र की नींव डालता है। काँग्रेस में वैचारिक मूल्य आधारित ज़मीनी स्तर काडर निर्माण की व्यवस्था करीब दो दशक पहले खत्म होनी शुरू हो गयी थी। सत्य, अहिंसा और अपरिग्रह मूल्यों पर काम कर रहे कार्यकर्ताओं को फिज़ूल समझा जाने लगा क्योंकि चुनावी मौसम में पनपे कार्यकर्ता उनके साथ असहज महसूस करते हैं। जिसका खामियाज़ा भी अब भुगतना पड़ रहा है।
वर्तमान में जिन राज्यों में गैर-भाजपाई सरकारें हैं, उन्हें सक्रिय संवाद, सुशासन, विकास और वास्तविक सर्व-धर्म समानत्व के उपमान स्थापित करने होंगे और इसके लिए उनके पास चार से पांच साल का पर्याप्त समय है।
134 साल पुरानी पार्टी को वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य में स्वयं को प्रासंगिक बनाए रखना चुनौतीपूर्ण है लेकिन असंभव बिलकुल नहीं, क्योंकि भारत के लोगों का जीवन दर्शन सर्व-धर्म सम्मान, समभाव और शांति से ही अंकुरित है, बस विश्वास पुनः अर्जित करना होगा।