2014 के बाद देश के लोकतंत्र और संवैधानिक संस्थाओ का हाल किसी से छुपा नहीं है। चाहे देश की अदालतें हो या फिर सीबीआई जैसी एजेंसीज़, सबकी विश्वसनीयता को हमने सड़कों पर नीलाम होते देखा है।
2019 के आते-आते एक और फैसला देश की सत्ता पर बैठी पार्टी ने लिया जो इस देश की संसदीय प्रणाली पर ही सवाल उठाने को मजबूर कर रहा है। भारतीय जनता पार्टी ने 2019 लोकसभा चुनावों के लिए भोपाल संसदीय छेत्र के उम्मीदवार के रूप में साध्वी प्रज्ञा ठाकुर का चयन किया है।
यह चयन कोई मामूली घटना नहीं है क्योंकि जो आरोप प्रज्ञा ठाकुर पर हैं, वे देश को हिंसा से नेस्तो नाबूद करने का है, इससे पहले कोई भी सरकार या पार्टी आतंकवाद के आरोपी को अपना प्रत्याशी बनाना तो दूर उससे प्रचार भी नहीं कराती थी।
यह चयन नरेंद्र मोदी की राजनीति को बेहतर और साफ करने के वादे को खोखला साबित करता है। अब आखिर सवाल आता है कि साध्वी प्रज्ञा का चयन किया क्यों गया जबकि शिवराज सिंह चौहान जैसे व्यक्ति बड़ी आसानी से दिग्विजय सिंह को भोपाल में हरा सकते थे।
इस पूरी घटना में सियासी बू आती है और इस बात की ओर इशारा करती है कि साध्वी प्रज्ञा को नरेंद्र मोदी की सरकार संवैधानिक पदों पर बैठाकर उनके खिलाफ चल रहे मुकदमों को कमज़ोर करना चाहती है। ऐसे लोगो की छवि को देश के सामने नॉर्मल करके परसेप्शन बनाना चाहती है कि वह बेकसूर है।
यह देखा गया है जब-जब हमारे देश में संगीन धाराओं में लिप्त लोगों को संवैधानिक पद दिए गए हैं, तब-तब वे आरोपों से बच निकले हैं। चाहे कल्याण सिंह बाबरी मस्जिद के शहीद होने के बाद या फिर नरेंद्र मोदी 2002 के नरसंहार के बाद।
सोचिए आरएसएस और बीजेपी ने एक ऐसा नरेटिव रचा है कि आज देश में 1984 पर तो बहस हो जाती है लेकिन 2002 पर नहीं जबकि 2002 के दंगो के वक्त का मुख्यमंत्री आज देश का प्रधानमंत्री है।
अब कोई 2002 की बात करना ही नहीं चाहता क्योंकि विपक्ष को लगता है इससे हिन्दू वोट नाराज़ हो जाएगा और खासतौर से मुसलमनो के एक बड़े तबके को भी लगता कि अब चुनाव में इसकी बात नहीं होनी चाहिए, इससे सेक्युलर फार्मेशन को नुकसान होगा। आज देश में मुसलमनो पर अत्याचार इतनी साधारण सी घटना हो गई है कि वह हमें विचलित नहीं करती हैं।