मार्च 2019 में लोकसभा चुनाव का बिगुल बजते ही पार्टियां पूरी ताकत के साथ खुद को बहुमत दिलाने में लग गईं। एक ओर पांच साल के कार्यों की परीक्षा थी तो दूसरी तरफ तथाकथित न्याय की परिभाषा और निर्णायक थी जनता।
इन दो पार्टियों की लड़ाई तो एक तरफ चल रही थी, जिसमें दूसरी पार्टी तीन राज्यों में जीत से काफी उत्साहित थी लेकिन मज़ा तो क्षेत्रीय दलों में था, जो आपस में पहले से मिले हुए थे या बाद में मिल गए और 20-25 सीटों पर प्रधानमंत्री बनने के सपने देखने लगे।
तीसरे मोर्चे में सबसे मज़ेदार पात्र आंदोलन जनित नेता थे, जो एक समय ईमानदार हुआ करते थे लेकिन आज इन्होंने रंग बदलने में गिरगिट को मात दे दी। इन्होंने प्रधानमंत्री बनने की आस में पांच वर्ष पहले ही अपनी बनी-बनाई साख में आग लगाई थी।
धुर विरोधी आपस में मिल गए
भारत के सबसे बड़े राज्य में सूरज पश्चिम से निकला 25-30 साल से एक दूसरे के धुर विरोधी आपस में मिल गए। इसमें एक ने बड़ी चालाकी से दूसरे को केंद्र में भेजने की शर्त पर राज्य में अपना रास्ता साफ करते हुए अगले को पीएम पद के लिये प्रोजेक्ट करने लगे।
यह गठबंधन केवल जातीय समीकरण देखकर बना था लेकिन इन्हें नहीं पता था कि बड़े खिलाड़ी ने कुछ बड़ा ही खेल कर दिया था, जो जात-पात से उठकर था।
इस गठबंधन ने अपने प्रत्याशी तो उतारे लेकिन ना उनके नाम ठीक से इन्हें पता होते थे और ना ही यह विश्वास था कि एक दूसरे का वोट बैंक एक दूसरे को ट्रांसफर कर पाएंगे।
सत्ता का अहंकार ऐसा कि लोगों की जान बेमोल हो गई
एक राज्य में तो कोई खुद को भगवान से भी बड़ा मानने लगा। उसे सत्ता का इस तरह अहंकार हो गया कि लोगों की जान उसके लिए बेमोल हो गई। वहां की जनता उससे परेशान दिखी और पूरे भारत की तुलना में उसके शासन वाले राज्य में 85% से ज़्यादा रिकार्ड वोटिंग हुई। इनको भयंकर डर सता रहा था लेकिन पीएम बनने का सपना भी दिल में था।
15-20 देकर मंत्री बनने की आस लगी रही
दक्षिण भारत में क्षेत्रीय दल अपना लोहा मनाते दिखे लेकिन यहां भी हाल ही में बंटे दो राज्यों के मुख्यमंत्रियों में भी 15-20 लेकर पीएम बनने की आस दिल में जगी रही और चुनाव के अंतिम चरण तक यह दिल्ली में घूमकर जुगाड़ फिट करते नज़र आए। अन्य जगहों पर दोनों राष्ट्रीय पार्टियों में मुकाबला था। कुछ हाई प्रोफाईल सीटों पर अस्मिता के चुनाव भी हुए।
तथाकथित देश विरोधी नारों से लाइमलाइट में आए एक युवा प्रत्याशी को पूर्वाग्रह से ग्रसित कुछ कुंठित सोच वाले हस्तियों का साथ तो मिला लेकिन अपने बेवकूफाना बयानों और माथे पर लगे कलंक के कारण उनका जीतना मुश्किल हो गया। इन्हीं की पड़ोस वाली सीट पर बागी बाबू भी लड़े लेकिन यह अपनी विश्वसनीयता पूरी तरह खो चुके थे और खुद ही निर्णय नहीं ले पा रहे थे कि वह किस पार्टी में हैं।
अपने निम्नतम स्तर पर रही भाषा
भाषा की मर्यादा की बात करें तो वह इस चुनाव में अपने निम्नतम स्तर पर रही। कलेक्टर से जूते पोछवाने और स्त्रियों के चरित्र तक को एक शर्मनाक इंसान ने शर्मसार किया। सत्तासीन पार्टी में अहंकार और सत्ता खो देने का डर दोनों था। इन्होंने काम तो किए लेकिन खुद पर यकीन नहीं था।
कुछ वर्षों पहले काम करने के बावजूद सत्ता जाने के डर से इस बार काम को दूसरे स्थान पर रखकर राष्ट्रीय सुरक्षा, राष्ट्रवाद और सशक्त नेतृत्व के नाम पर लड़ा। शायद ऐसा करने से वह एक चुनाव जीत भी जाएं लेकिन अपने प्रत्याशियों को कमज़ोर करने का खामियाज़ा उन्हें भविष्य में उठाना ही पड़ेगा।
सत्ता तो अभी दूर नज़र आती है
विपक्ष का दर्जा पाने को आतुर दल में कुछ जान आई और उनका नेता एक चमत्कारिक तरीके से उभरा। उसने अपने मुद्दों को बनाए रखा और गलत चाहे सही लगातार मुखर विरोध करता रहा। अंतत: इसका परिणाम उन्हें अच्छा मिल सकता है और वह एक अच्छे विपक्ष के रूप में उभर सकते हैं लेकिन सत्ता तो अभी दूर नज़र आती है।
इशारा साफ है लेकिन परिणाम आएंगे तो….
सभी चरणों की वोटिंग समाप्त हुई। तय समय के अनुसार तमाम टीवी चैनलों ने अपने पिटारे से एक्ज़िट पोल नामक जिन्न निकाल दिया, जो एकतरफा तो नहीं लेकिन सत्तारुढ़ दल को वापस सत्ता सौंपता दिख रहा है।
यह कितना सही होता है, यह तो 23 मई को ही पता चलेगा लेकिन तब तक यह तमाशा जारी रहेगा। जिसके मन की होगी वह वाह-वाह करेगा और जिसके मन की नहीं होगी, वह इसे बेकार बताकर नतीजों तक रूकने की सलाह देगा लेकिन पोल तो पोल है। कुछ हद तक इशारा साफ है लेकिन परिणाम आएंगे तो सब साफ हो जाएगा।