ग्रामीण समाज की परिकल्पना करते ही हमारे मन में एक विश्वास, संस्कृति, सदभाव एवं एक-दूसरे के खुशियों के लिए जीने-मरने जैसी भावना उत्पन्न होती है। भारत में आज भी 70% लोग गाँव के ग्रामीण परिवेश में ही रहते हैं, जहां 52% लोगों की आय का मुख्य श्रोत कृषि है।
कृषि पर आश्रित किसानों व ग्रामीणों का जीवन एक जुआरी की तरह होता है, जहां वह अपनी मुश्किल की कमाई या कर्ज़ के पैसे को कीमती बीज एवं खाद में लगाता है फिर सूखा, बाढ़, ओला और बीमारियों से फसल को नष्ट होने से बचाने की लाखों दुआ और कोशिश करता है।
इन सभी के उपरांत उसको अपनी फसल की कीमत बिचौलियों और महाजनों के मन मुताबिक मिलती है। किसान का जीवन इसी दुष्चक्र में फंसा हुआ है, जहां वे इस समाज में एक रक्षक या समाज सेवक के रूप में बैठा व्यक्ति जो कि इस गरीब के लिए मसीहा होता है।
वह गरीब उनकी सभी मुश्किलों में काम आता है और अपने बिना किसी स्वार्थवश अंतरआत्मा से दुआ करता है कि हे भगवान! हमारे मालिक को ठीक रखना।
आज भी फल-फूल रहा है साहूकारों के ब्याज का धंधा
पैसा कमाने की भूख और अमीर बनने की इस अंधी दौड़ ने इस मालिक की आंखों पर पर्दा डाल दिया है और इस गरीब की मजबूरियों और मुश्किलों को अपना धंधा बना बैठा। एक तरफ जहां मोदी के द्वारा जनधन के खाते खोलने और मुद्रा के माध्यम से प्रत्येक व्यक्ति तक बैंकिंग व्यवस्था को पहुंचाकर वाहवाही लूटी जा रही है और नोटबंदी से काला धंधा बंद करने के दावे किए जा रहे हैं, वहीं आज भी उत्तर प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़, राजस्थान एवं बिहार के बहुत से ज़िलों में साहूकारों द्वारा ब्याज का धंधा फलफूल रहा है।
बात चाहे उत्तर प्रदेश के बहराइच ज़िले के बौंडी पंचायत और बिहार के बेत्तिया के पटज़िरवा पंचायत के बाढ़ पीड़ित की हो या झारखंड के साहेबगंज के उधवा के किसानों की हो, जहां आज भी ग्रामीण भाई अपने साहूकार लोगों से कम-से-कम 60% से 120% की दर से कर्ज़ लेने को मजबूर हैं।
आपको बड़ा आश्चर्य हो रहा होगा या अतिश्योक्ति भी लग रही होगी कि इतना महंगा कर्ज़ तो प्राइवेट लोन कंपनी भी नहीं देती लेकिन यह जानकर आपको हैरानी हो रही होगी कि इस कर्ज़ का ब्याज आपकी मजबूरी और मुसीबत के अनुसार निश्चित होती है। जब आप ज़्यादा मजबूर होते हैं तो आपको बड़ा कर्ज़ चुकाना होता है।
ब्याज के चलते बंधुआ बनकर रह जाता है किसान
खेतों के बीज एवं बीमारियों से लेकर लड़की की शादी में लिए जाने वाले कर्ज़ कुछ इस प्रकार होते हैं- ₹5 सैकड़ा, इसके उपरांत उस राशि के एवज में कुछ कीमती वस्तु गिरवी भी रखनी होती है और प्रत्येक तीन महीने के बाद चक्रवृद्धि ब्याज शुरू हो जाता है।
इस प्रकार इनका पूरा परिवार कर्ज़ को चुकाने में लगता है, जिसमें एक या दो लोग बंधुवा मज़दूर की तरह काम करते हैं क्योंकि साहूकार कभी अपना पैसा मांग सकता है या उसके द्वारा बंधक की गई वस्तु को हड़प सकता है।
अब आप सोच रहे होंगे ये गरीब कितने बेवकूफ होते हैं कि बैंक नहीं जाते जहां कर्ज़ की बहुत सारी योजनाएं हैं। लेकिन यहां भी कुछ ऐसा ही होता है किसानों के लिए किसान क्रेडिट कार्ड के माध्यम से लगभग 4% से 7% की दर से कर्ज़ उपलब्ध है लेकिन यह कर्ज़ पाने के लिए इन्हें एक सीज़न से भी ज़्यादा इन बैंकों के चक्कर लगाने पड़ जाते हैं।
दलाल भी बैंक से कर्ज़ के नाम पर किसानों से पैसा वसूलते हैं
इसी चक्कर लगाने की प्रक्रिया को कम करते हुए हमारे तथाकथित दलाल भाई बैंक के प्रतिष्ठित प्रबंधक के माध्यम से इस प्रक्रिया को सरल बनाकर जनसेवा में लगे हैं। बस ये महानुभाव कुछ सेवा शुल्क कर्ज़ निकासी से पहले ले लेते हैं। वह कर्ज़ आपके समय और ज़रूरत के आधार पर निर्भर करता है कि आप कितने मजबूर हैं। इस कर्ज़ का सेवाशुल्क किसानों द्वारा लिए जा रहे कर्ज़ के लगभग 20% से 30% तक होता है।
इस जटिल समस्या से लड़ते हुए कुछ किसान अक्सर हार जाते हैं और आत्महत्या करने जैसे कदम उठाने को मजबूर हो जाते हैं। मुझे पूरी आशा है कि आज गरीब, गरीब क्यों? और अमीर, अमीर क्यों होता जा रहा है। इस कर्ज़ के दुष्चक्र को हम समझ सकते हैं।
इस लेख को लिखने से पहले मैंने कई वर्षों तक इसका अलग-अलग प्रदेशों (पूर्वी उत्तर प्रदेश के ज़िलों, बिहार के गंगा बेसिन में बसे ज़िलों, झारखंड के साहेबगंज, छत्तीसगढ़ के कवर्धा, राजस्थान के सिरोही एवं पाली ज़िलों के आधार पर) में स्वरूप और सच्चाई को जाना है, उसके उपरांत आज मैं समाज के इस कड़वे सच को रख पा रहा हूं। इस विषय को लेकर मैं चिंतित हूं लेकिन अभी तक कोई हल संभव नहीं हो सका है।