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“कचहरी और पुलिस विभाग के भ्रष्टाचार को मैंने करीब से देखा है”

प्रतीकात्मक तस्वीर

प्रतीकात्मक तस्वीर

जब तक देश के असहाय, गरीब व हर तबके के लाोगों को उनका हक नहीं मिलेगा तब तक हमारी आज़ादी अधूरी है। भ्रष्टाचार, स्वास्थ्य, लचर शिक्षा व्यवस्था, बेरोज़गारी, महिला सुरक्षा, जातिवाद और देश के टुकड़े करने की बात करने वालों से अभी आज़ादी पाना बाकी है।

हमने विकास के पायदान पर कदम तो रखा है लेकिन क्या मंज़िल मिल पाई है? वहीं, इन रास्तों पर आज भी करोड़ों भारतवासी गरीबी से छुटाकारा पाने हेतु रोज़ी-रोटी के लिए भटक रहे हैं।

यहां तक कि सामान्य बीमारियों से लड़ने के लिए सरकारी अस्पताल से निराश होकर प्राइवेट चिकित्सा के चंगुल में फंसकर महंगे इलाज कराने के खर्च के लिए अपनी जमापूंजी डाॅक्टरों के हवाले कर रहे हैं।

मेरा मानना है कि किसी देश की राजनीति ही उस देश के लोगों का भविष्य तय करती है लेकिन जागरूक जनता अपने वोटों का सही तरह से इस्तेमाल करना सीख ले तो राजनीति के चालबाज़ चेहरे को बदल सकती है। उन भ्रष्ट नेताओं को सही रास्ता दिखा सकती है, जो पद का गलत इस्तेमाल करते हैं।

जनता के सुख-दुख को वोटबैंक की राजनीति से ही क्यों तौला जाता है? इसका सीधा सा जावाब नागरिकों के पास है, नागरिक जाति व धर्म की राजनीति में बंधे हैं, जब वे इससे खुद को बाहर नहीं निकाल सकते हैं तो नेता इसी का फायदा उठाते हैं।

सरकारें आती और चली जाती हैं लेकिन मुद्दा हमेशा वहीं रहता है। गरीबी, बेरोज़गारी, बिजली, पानी, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी समस्याओं के लिए लोगों को जद्दोजहद करना पड़ता है। सत्ता पाने के बाद भी बदलाव के नाम पर केवल राजनीति होती है तब तक फिर अगला चुनाव, फिर वही मुद्दे, तब सवाल उठता है कि राजनीतिक पार्टियों ने सत्ता संभालने के बाद किया क्या?

नरेन्द्र मोदी। फोटो साभार: Getty Images

नेहरू से लेकर मोदी तक के युग में बेरोज़गारी व गरीबी वही मुद्दा है। आने वाले समय में भी यही स्थिति रही तो इन मुद्दों का मर्म दिखाकर बेरोज़गारों और गरीबों को फिर गुमराह कर उनके वोट मांगे जाएंगे फिर एक नई सरकार इन्हीं मुद्दों पर खड़ी हो जाएगी। क्या लोकतंत्र की यही परिभाषा है? रेलवे, चिकित्सा, शिक्षा, बिजली, जल और सड़क जैसे मुद्दे जस के तस बने हैं।

रेलवे है देश का बैक बोन

रेलवे हमारे देश का बैक बोन है। लाखों गरीब व मध्यमवर्गीय लोगों के लिए रेलवे ही वह साधन है, जो उनके सपनों को पंख लगाने के लिए एक शहर से दूसरे शहर का सफर कराता है ताकि वे अपनी रोज़ी- रोटी की तलाश बड़े शहरों में कर सकें। मुंबई जाने वाली हर ट्रेन के जनरल डिब्बे में भीड़ किसी गाँव के आधा किलोमीटर के दायरे में लगने वाले मेले से भी अधिक होती है।

उत्तर प्रदेश और बिहार के राज्यों के बेरोज़गार हर दिन मुंबई में काम की तलाश के लिए पहुंचते हैं। सूरत, लुधियाना और दिल्ली जैसे शहरों का रूख करते हैं। भारतीय रेलवे इन्हें उन शहरों में छोड़ आती है काम की तलाश के लिए।

उत्तर प्रदेश व बिहार में हर पांच साल में चुनावी वादे होते हैं, वहां की सरकारें करोड़ों बेरोज़गारों को रोज़गार देने की बात अपनी मैनिफेस्टो में करती है लेकिन रोज़गार की संभावानओं पर सरकारें कुछ नहीं कर पाती हैं।

इसके कारण इन प्रदेशों की सड़क, बिजली और जल वितरण की स्थिति दुरूस्त नहीं हैं। बड़ी-बड़ी कंपनियां यहां पर उत्पादन कार्य नहीं करना चाहती हैं। इन मुद्दों से इतर चुनावी वादों में केवल बेराज़गारी दूर करने की बात बेइमानी ही साबित हो रही है।

फोटो साभार: Twitter

भारत सरकार रेलवे के लिए बजट देती है लेकिन इसके बाद भी रेलवे के खस्ताहाल के लिए रेल प्रबंधन के साथ रेलमंत्री भी ज़िम्मेदार हैं, जो रेलवे में हो रहे भ्रष्टाचार पर मौन रहते हैं। रेलवे कर्मचारियों की भर्ती से लेकर यात्रियों को सुविधा देने के नाम पर रेलवे में भ्रष्टाचार का बोलबाला है, करोड़ों रुपए की भ्रष्टाचार की कमाई का ज़रिया है रेलवे।

हाल ही में कैग की रिपोर्ट में इस बात का खुलासा हुआ कि रेलवे के कैंटीन से बेचा जाने वाला खाना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। रेलवे जनता के साथ खिलवाड़ कर रहा है। इस पर लगाम लगाना ज़रूरी है।

आज़ादी के बाद रेलवे ने जिस तरह से तरक्की की, नई तकनीक को अपनाया, रेलवे से सफर करना पहले से अधिक सुविधाजनक हुआ लेकिन यात्रियों की बढ़ती संख्या आज सबसे बड़ी चुनौती है, जिससे निपटने के लिए रेल मंत्रालय को अपने कर्मचारियों की कार्यप्रणाली व उनकी नियुक्ति से लेकर ठेके देने में सतर्कता बरतनी होगी। रेलवे में भ्रष्टाचार देश की जनता के जीवन के साथ धोखा है।

अच्छी शिक्षा का अधिकार कब

राइट टू एजुकेशन के तहत 14 साल तक के बच्चों को कक्षा आठ तक मुफ्त में शिक्षा देने की बात की जाती है लेकिन यूपी में ही ऐसे हज़ारों प्राइवेट प्राइमरी लेवल के स्कूल हैं, जो मान्यता प्राप्त नहीं है। अंग्रेज़ी माध्यम के नाम से बच्चों को महंगी फीस के बदले खराब शिक्षा दी जा रही है।

वहीं, सरकारी स्कूल के शिक्षकों को हर महीने 40 हज़ार वेतन देकर भी बच्चों को अच्छी शिक्षा सरकार नहीं दे पा रही है। वास्तव में माँ-बाप अपने बच्चों सरकारी प्राइमरी स्कूल में पढ़ाना ही नहीं चाहते हैं। वहीं, कुकुरमुत्ते की तरह खुल गए प्राइवेट स्कूल में पढ़ाना उनकी मजबूरी है।

भले नाम का ही राइट टू एजुकेशन एक्ट लागू हो गया हो लेकिन उनके बच्चों का उनका हक नहीं मिल पा रहा है। आज़ादी के 70 साल बाद भी गरीब लोगों के बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने में सरकार अभी तरह पूरी तरह से सफल नहीं हो पाई। हां, प्राइमरी में अच्छी शिक्षा के नाम पर हर साल वोट ज़रूर मांगे जाते हैं। यानि वादे वही लेकिन जो कभी पूरे होते नहीं क्योंकि सरकारी स्कूल के प्रबंधन से लेकर शिक्षा तक पढ़ाई के नाम पर खानापूर्ति होती है।

फोटो साभार: Facebook

गाँव में रहने वाले बुज़ुर्ग बताते हैं कि हमारे ज़माने में सरकारी स्कूलों में पढ़ाई बहुत अच्छी होती थी लेकिन आज के बारे में पूछने पर कहते हैं कि शिक्षा की नीति वोटबैंक के रूप में बदल गई है। जब शिक्षक की नियुक्ति ही नियमों को ताक पर रखकर होगी तो ऐसे अयोग्य लोग कैसे शिक्षा दे पाएंगे।

ज़ाहिर तौर पर उनका इशारा सुप्रीम कोर्ट से बाहर हुए शिक्षामित्रों से था, जिन्हें समय-समय पर सपा बसपा और उसके बाद भाजपा सरकार ने वोटबैंक के तौर पर देखा। वहीं, सपा सरकार ने अपने शासनकाल में नियमों को बदलकर शिक्षा मित्रों को सहायक अध्यापक के पद पर नियुक्ति की, जिससे राइट टू एजुकेशन कानून का उल्लंघन हुआ इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने इन्हें बाहर कर ओपन कॉम्पिटिशन के माध्यम से नियुक्त करने को सरकार से कहा।

जबकि सपा सरकार ने वोटबैंक की लालच में शिक्षामित्रों को कानूनी दायरे के अंदर नियुक्त नहीं किया, जिसका खामियाज़ा आज सरकारी स्कूल में पढ़नेवाले बच्चे भुगत रहे हैं। 10 साल या उससे अधिक समय में उत्तर प्रदेश में इंटर पास अप्रशिक्षित शिक्षामित्र पढ़ा रहे थे, यानि इन 10 सालों में सरकारों ने सरकारी स्कूल के बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ किया है और अपने वोट बैंक की प्रयोगशाला चला रहे थे।

यही हाल माध्यमिक शिक्षा बोर्ड का है। यूपी में नकलमाफियाओं का बोलबाला है। धड़ल्ले से स्कूल काॅलेज नियमों को ताक पर रखकर खुल रहे हैं। राजनैतिक दलों से जुड़े प्रभुत्वशाली लोग नियमों को ताक पर रखकर अपने स्कूल काॅलेजों की मान्यता ले ली है। स्कूल काॅलेजों को धन कमाने का अड्डा बना लिया है।

इन काॅलेजों में पढ़नेवाले छात्रों के अभिभावक फीस के बोझ तले दबे रहते हैं। गली मुहल्ले में कोचिंग व ट्यूशन पढ़ाने वाले की शरण में जाते हैं। इस लचर सरकारी व्यवस्था के चलते शिक्षा मुफ्त व गुणवत्तावाली न होकर बाज़ार में बिकनेवाली हो गई है। जिसकी खरीदने की ताकत है वह अपने बच्चों को ज़िले के टाॅप प्राइवेट स्कूल में पढ़ाकर अपने बच्चों का भविष्य उज्ज्वल बना रहा है।

ठगी जा रही है आम जनता जो ईमानदारी से दो रोटी कमाकर किसी तरह अपने बच्चों को शिक्षा दिला रही है। शिक्षा के स्तर पर अभी आमलोगों को अधूरी आज़ादी मिली है, अमीरों की शिक्षा और गरीबों की शिक्षा। इस दोहरी शिक्षानीति से हमें आजादी कब मिलेगी?

सब समस्या की जड़ भ्रष्टाचार

भ्रष्टाचार के कीचड़ में नहाने के बाद भी नेताओं व अधिकारियों का कुछ नहीं बिगड़ता। देश को खोखला बनाने वाले व कई ज़िंदगियों के साथ खिलवाड़ करने वाले को कड़ी सज़ा नहीं मिलती है। कुछ साल की सज़ा के बाद भ्रष्ट कमाई से ऐश की ज़िंदगी जीते हैं।

भ्रष्टाचार करने के बावजूद जो कानूनी दांवपेच के कारण आसानी से बच जाते हैं, वे सम्मान से जीवन जीते हैं। भ्रष्टाचार कुसंस्कृति की तरह जन्म ले रहा है। सरकार भ्रष्टमुक्त शासन की बात करती है और सत्ता सुख भोगने के लिए उनके मंत्री, नाते रिश्तेदार संसाधनों की बंदरबांट करते हैं।

इन सब में साथ देते हैं प्रशासन के अधिकारी। अधिकारियों का हिस्सा तय रहता है। मैंने देखा है, पुलिस महकमा हो या स्वास्थ्य विभाग, नियुक्ति से टेंडर तक के पैसों में सभी का हिस्सा होता है। कचहरी में कोई सर्टिफिकेट बनवाने के लिए जाएं तो सरकारी फीस से अधिक आपको पैसा खर्च करना पड़ेगा, वहां बैठे दलाल सीधे आपका काम बाबू व अधिकारी से मिलकर करा देगा।

फोटो साभार: Twitter

यातायात विभाग में ड्राइविंग लाइसेंस आसानी से बनता है, अधिकारी यह भी नहीं देखेंगे कि वाहन चलाना आता है कि नहीं। यातायात नियमों की जानकारी है कि नहीं। इस नाम पर होने वाली परीक्षा में पैसे के बल पर पास कर दिया जाता है। जो सरकारी शुल्क अदा करके ड्राइविंग लाइसेंस बनवाने जाता है, उसे ट्रक के पहिये की तरह घुमाया जाता है ताकि वह परेशान होकर जेब से पैसे निकालकर दलाल को दे दे।

दलाल ऊपर तक हिस्सा पहुंचा देता है, तब आसानी से लाइसेंस तैयार हो जाता है। कोर्ट कचहरी, नगर निगम, स्वास्थ्य विभाग, पुलिस विभाग इन सभी जगहों पर कमाने का यही तरीका दलालों के माध्यम से होता है। पुलिस की ड्यूटी कमाऊ जगह पर लगाने के लिए दलाल के ज़रिये अधिकारियों तक पैसा पहुंचता है, इन चीज़ों को मैंने बहुत करीब से देखा है।

ज़मीन माफिया, पानी माफिया, शिक्षा माफिया, बालू माफिया इन सभी पर लगाम लगाने के लिए भ्रष्टाचार की लड़ाई के लिए सरकारों को ईमानदार बनना होगा। क्या भ्रष्टाचार से हमें आज़ादी मिल पाएगी? आखिर हमें पूरी आज़ादी कब मिलेगी?

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