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“पहली माहवारी में जांघों के बीच से खून रिसते देख मैं घबरा गई थी”

चंदा

चंदा

मेंस्ट्रुअल हाइजीन डे को मनाने की शुरुआत जर्मनी की एक स्वयंसेवी संस्था वाश (WASH) द्वारा वर्ष 2014 में की गई थी जिसका उद्देश्य माहवारी के मुद्दे पर लोगों को जागरूक करना, बेहतर माहवारी स्वच्छता आदतों का अनुसरण करना और माहवारी के दौरान महिलाओं को समुचित सहायता उपलब्ध करवाना था।

माहवारी को लेकर पिछले कुछ वर्षों में पूरे देश में सरकारी तथा गैर-सरकारी स्तर पर कई संस्थाएं एवं संगठन अभियान चला रहे हैं। इससे लोगों में जागरूकता बढ़ी है। अब लोग इस बारे में खुल कर बातें करने लगे हैं लेकिन यह तस्वीर अभी भी फिलहाल शहरों तक ही सीमित है।

गाँवों की बात करें तो वहां की स्थिति अभी भी चिंतनीय बनी हुई है। मैंने देश के कुछ प्रमुख शहरों में माहवारी स्वच्छता विषय पर काम कर रहे कुछ लोगों से इस बारे में बात की, जिसके आधार पर आप वहां की स्थिति का अंदाजा खुद-ब-खुद लगा सकते हैं।

ग्रामीण महिलाओं को प्रशिक्षण देते हुए चंदा।

बिहार के वैशाली ज़िले के राजापाकड़ में पिछले चार वर्षों से माहवारी जागरूकता के क्षेत्र में काम करने वाली 21 वर्षीय चंदा ठाकुर कहती हैं, जब मैं 9वीं क्लास में थी, तब मुझे पहली बार माहवारी हुई। उस वक्त मुझे इसके बारे में कुछ भी पता नहीं था। घर-परिवार में माँ-चाची-दादी ने भी कभी मुझे इस बारे में कुछ नहीं बताया था। मुझे बचपन से ही लीवर की समस्या थी। हर महीने-दो महीने पर मैं हॉस्पिटल में एडमिट रहती थी। डॉक्टरों के अनुसार मेरे बचने के चांसेज़ ना के बराबर थे।”

वह आगे कहती हैं, “मैं एक मध्यमवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखती हूं। मेरे परिवार की आमदनी सीमित हैं। मेरी बीमारी में पहले से ही सालाना लाख-दो लाख रुपये खर्च हो चुके थे। जब मैं ठीक हुई, उसके दो साल बाद ही मुझे माहवारी हो गई। मुझे उस वक्त इसके बारे में कुछ भी पता नहीं थी और मैं सोचने लगी कि मुझे पहले से भी बड़ी और गंभीर बीमारी हो गई है। अब इसके इलाज में अलग से पैसे खर्च होंगे। इससे तो मेरी फैमिली बर्बाद हो जाएगी।”

चंदा के लिए वह बिल्कुल असमंजस वाली स्थिति थी और उसने यहां तक कर लिया था कि इस बारे में किसी को कुछ नहीं बताना है। यहां तक कि वह अपने पास एक ब्लेड भी रखती थी ताकि अगर कभी ज़्यादा तबियत खराब हुई तो नस काट कर खुद को खत्म कर लिया जाए। चंदा किसी भी हाल में नहीं चाहती थीं कि उसकेे परिवारवालों को आर्थिक परेशानी का सामना करना पड़े।

यह पूछने पर कि जब तुम्हें जानकारी नहीं थी, तो तुमने पहली बार ब्लीडिंग होने पर खुद को कैसे प्रोटेक्ट किया, इस बारे में चंदा बताती हैं, साल 2012 की घटना है जब मुझे पहली बार ब्लीडिंग हुई और उस वक्त मैं नहा रही थी। अचानक अपनी जांघों के बीच से खून रिसते देख कर मैं काफी घबरा गई। चुपके से अपनी दादी की संदूकची से उनकी एक पुरानी साड़ी निकाली और उसे फाड़ कर किसी तरह खून रोकने का प्रयास किया। गीला होने पर उसे घर के पिछवाड़े वाले खिड़की से फेंक देती थी, जहां कि कूड़ा फेंका जाता था। इस कारण किसी को पता भी नहीं चलता था।”

ग्रामीण महिलाओं के संग चंदा।

बकौल चंदा, “ऐसा करीब तीन महीनों तक चला। चौथे महीने में जाकर मेरी माँ को इस बारे में पता चला। उस वक्त भी मैं उन्हें बता नहीं पाई कि मुझे पिछले तीन महीनों से ब्लीडिंग हो रही है। हालांकि पता चलने के बाद भी माँ ने मुझे माहवारी के बारे में कुछ नहीं बताया, जबकि मेरे घर में दादी को छोड़ कर सारे लोग शिक्षित हैं। इसके बावजूद माहवारी के मुद्दे पर किसी ने कोई जानकारी नहीं दी।”

अगले दिन चंदा के घर के आंगन में घेरा बनाकर महिलाओं की पंचायत बैठ गई जिसके बीच में चांदा चुपचाप खड़ी थी। सारी महिलाएं चांदा के देख कर आपस में खुसर-फुसर करके हंस रही थीं। कुछ देर बाद पड़ोस की एक दीदी ने चंदा को पैड लाकर दिया लेकिन यह नहीं बताया कि उसे यूज़ कैसे करना है। जानकारी के अभाव में वह अगले कई महीनों तक पैड को उल्टा यूज़ करती रही, जिस कारण उसे स्किन इंफेक्शन की समस्या भी झेलनी पड़ी।

चंदा की इस आपबीती से आप यह समझ सकते हैं कि माहवारी जागरूकता के विषय में अन्य ग्रामीण इलाकों की स्थिति क्या है। आज भी इसमें कुछ खास बदलाव नहीं आया है। चंदा नहीं चाहती थी कि जिस डर और घबराहट से वह गुजरी है, उससे किसी और लड़की को भी गुज़रना पड़े और इसी वजह से कुछ सालों बाद जब चंदा के गाँव में यूनिसेफ और प्लान इंडिया संगठन द्वारा माहवारी स्वच्छता अभियान चलाया गया, तब उसने भी इससे जुड़ अपने गाँव की महिलाओं को इस विषय में जागरूक करने का निर्णय लिया।

छात्राओं को प्रशिक्षण देती चंदा।

चंदा का कहना है कि वर्तमान में वह अपने आसपास के गाँवों के विभिन्न स्कूलों और कॉलेजों में जाकर छठी से बारहवीं क्लास की छात्राओं से इस मुद्दे पर बात करती हैं। उन्हें पोस्टर्स, पेंटिंग और ऑडियो-वीडियो आदि के माध्यम से जानकारी देने का प्रयास करती हैं। चंदा की मानें तो आज भी 75 फीसदी लड़कियां माहवारी या सैनेटरी पैड के बारे में नहीं जानती हैं। जो थोड़ा-बहुत जानती भी हैं, वे बात करने से झिझकती हैं।

चंदा कहती हैं,

कई लड़कियां मेरे सामने तो खुल कर बात करती हैं लेकिन अपने घर में अपनी माँ-बहनों से भी चर्चा नहीं कर पाती हैं। पिता और भाई की तो बात ही छोड़ दीजिए।

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 के अनुसार, बिहार में केवल 31 फीसदी महिलाएं ही माहवारी के दौरान सेनेटरी पैड यूज़ करती हैं। इस अनुपात को बढ़ाने के लिहाज से राज्य सरकार ने वर्ष 2015 में 220 करोड़ रुपये का वार्षिक फंड जारी किया, जिसके तहत ग्रामीण क्षेत्रों में 10-19 वर्ष की किशोरी छात्राओं को अगले एक वर्ष तक मुफ्त सेनेटरी पैड का वितरण किया जाना था।

इससे पहले राज्य के सभी हाई स्कूल शिक्षकों के लिए लैंगिक संवेदीकरण का ट्रेनिंग प्रोग्राम चलाया गया। इस बारे में बिहार प्रदेश शिक्षक महासंघ सचिव अमित विक्रम कहते हैं, ”हाई स्कूल लेवल पर पुरुष शिक्षकों की तुलना में महिला शिक्षकों की संख्या कम हैं. इन दोनों के लिए साझा प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाया गया। इससे उन दोनों को असहज स्थितियों का सामना करना पड़ा, क्योंकि अभी भी हमारे समाज में इन मुद्दों पर लोग खुल कर बात नहीं कर पाते हैं। खास तौर पर महिलाएं तो बिल्कुल भी नहीं।

दूसरे, उनमें से ज़्यादातर शिक्षकों ने अपने स्कूलों में छात्राओं के बीच सैनेटरी पैड वितरित करने से मना कर दिया। कारण, एक तो वे इसे लेकर सहज नहीं थे और दूसरे, उनके अनुसार यह ‘गंदा काम’ था। शायद इसी वजह से राज्य सरकार को इस योजना में परिवर्तन करना पड़ा। अब आठवीं से बारहवीं कक्षा की छात्राओं के अकाउंट में सेनेटरी पैड के लिए सालाना 300 रुपये क्रेडिट किए जा रहे हैं।

भले ही, पिछले साल क्रेंद्र सरकार ने सेनेटरी पैड को टैक्स फ्री कर दिया है। बावजूद इसके यह राशि एक साल के सेनेटरी पैड की कीमत के लिए पर्याप्त नहीं है।’ गौरतलब है कि जनगणना 2011 के अनुसार, बिहार की कुल जनसंख्या में 10 से 19 वर्ष की किशोरों का अनुपात 22.47% है, जिनमें से 46% लड़कियां हैं।

नोट: YKA यूज़र रचना प्रियदर्शिनी ने बिहार, झारखंड और यूपी के ग्रामीण इलाकों में काम करने वाली संस्थाओं से बातचीत के आधार पर ग्राउंड रिपोर्टिंग की है।


 

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