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“प्राचीन काल में ब्राह्मण कोई जाति नहीं बल्कि न्यायिक कैडर था”

ब्राह्मण

ब्राह्मण

द्वंदात्मकता प्रकृति का चरित्र है। गुफा काल में जब उत्पादन के साधनों का आविष्कार नहीं हुआ था और मार्क्सवादियों के अनुसार उस समय आदिम साम्यवाद का समाज था, वर्ग संघर्ष की जड़ें उस दौर में भी खोजी जा सकती हैं।

डॉ. अंबेडकर के अनुसार पौराणिक साहित्य में जिस देवासुर संग्राम का उल्लेख मिलता है, वह अलग-अलग नस्लों का संघर्ष नहीं था। उनके मुताबिक यह आर्यों के ही दो कबीलों का संघर्ष था, जिनमें एक वैदिक कबीला था और एक वेद को ना मानने वाला अवैदिक कबीला।

उपनिषदों में वर्ग संघर्ष की नज़ीरवर्ग

संघर्ष की एक और दिलचस्प नज़ीर उपनिषदों में मिलती है। कहा जाता है कि उपनिषदों का साहित्य ब्रह्मवाद के प्रतिरोध का साहित्य है। जो भी हो लेकिन प्राचीन भारतीय वांग्मय को पढ़ने से यह पता चलता है कि राज्यों की व्यवस्था के उदयकाल में ब्राह्मण कोई जाति ना होकर, न्यायिक कैडर था।

अत्यंत त्यागमय और संयमित जीवन जीने की प्रतिज्ञा लेकर स्वेच्छा से कोई व्यक्ति इस कैडर में शामिल हो सकता था। उसे सभी तरह के दंडों से मुक्ति की सुविधा प्राप्त थी ताकि वह पूरी निर्भीकता से राजा का आचरण अन्यथा होने पर उसे अधार्मिक करार दे सके।

जब गौरव ही था सर्वोपरि

लक्ष्य ब्राहमण को स्वयं सदाचरण का मानक बनकर ज़िन्दगी जीनी पड़ती थी, जो बेहद कठिन साधना थी। जब इसके कारण उन्हें बहुत अधिक गौरव मिला तो उनकी संतानें इसे बनाए रखने के लिए ब्राहमण कैडर का ही वरण करने की ललक दिखाने लगी।

इसके खिलाफ विद्रोह तब हुआ जब प्रत्येक व्यक्ति की विविध अभिरुचियों के अनुरूप ब्राह्मणों ने भी अपने लिए प्रतिबंधित जीवन में ढील की अपेक्षा शुरू कर दी।

भृगु का हस्तक्षेप

भृगु ऐसे ब्राह्मण थे जिनमें शौर्य की भी प्रवृत्ति बहुतायत में थी। उनके आचरण में इसकी झलक आ जाती थी। नतीजतन उनका और विष्णु का संघर्ष हो गया। भृगु द्वारा विष्णु को पदाघात करने की बहुश्रुत कथा लाक्षणिक है। भृगु के संघर्ष के कारण शूरवीर ब्राह्मणों को भी शस्त्र शिक्षा की अनुमति मिल गई।

फोटो साभार: फेसबुक

परशुराम भृगु के ही वंशज थे। उनके पिता ऋषि जमदग्नि थे और माँ रेणुका। उस समय जातियां स्थिर नहीं हो पाई थीं इसलिए ब्राह्मणों और क्षत्रियों के बीच रोटी-बेटी के संबंध प्रचलित थे।

ना केवल परशुराम की माँ क्षत्रिय थीं बल्कि उनकी दादी सत्यवती भी क्षत्रिय और राजऋषि विश्वामित्र की बहन थी। महाभारत के भीष्म, द्रोण व कर्ण सहित कई महापराक्रमी योद्धाओं को परशुराम ने शस्त्र संचालन सिखाया था।

वर्ग संघर्ष का परिणाम था सहश्त्रार्जुन वध

वंशीय क्षत्रिय राजा सहश्त्रार्जुन ब्राह्मणों के लिए ब्रह्म विद्या के अतिरिक्त अन्य कोई उद्यम ना करने के निषेध का कट्टर पक्षधर था। इसकी वजह से शस्त्र विद्या सीखने और सिखाने वाले भृगुवंशीय ब्रह्मवादियों का वह बैरी हो गया और उसने परशुराम के पिता जमदग्नि की हत्या कर डाली। परशुराम ने इसका प्रतिशोध लिया, जिसकी कथा सर्वविदित है।

यह महत्वाकांक्षी दार्शनिक वर्ग (ब्राह्मण) द्वारा सत्ता के खिलाफ संघर्ष के दौर का एक उपाख्यायन है। ब्रह्मवाद से पौरोहित्य की ओर अग्रसर समाज के भौतिक विकास के साथ-साथ इस संघर्ष ने कई और रूप लिए।

ब्रह्म विद्यानुरागी दार्शनिक वर्ग का पौरोहित्य वर्ग में रूपांतरण भी इसका एक चरण है। प्रारंभिक काल में इसने ब्रह्मवादियाें में गतिशीलता प्रदान की लेकिन परवर्ती दौर में यह उनके ठहराव का भी कारण बन गया।

भौतिक दौर में पिछड़ने का डर

कर्मकांड कराने का अधिकार ब्रह्मवादियाें की संतानों को गौरव तो दिला रहे थे लेकिन यह गौरव सिर्फ मनोवैज्ञानिक था, जिसकी कीमत उन्हें भौतिक दौर में बहुत पीछे छूट जाने के रूप में चुकानी पड़ रही थी। आधुनिक काल खंड में पंडित जवाहर लाल नेहरू जैसे नेताओं ने इसे महसूस किया, जिन पर ब्राह्मणवाद को अत्यधिक प्रोत्साहित करने के आरोप लगते रहे थे।

जवाहरलाल नेहरू। फोटो साभार: फेसबुक

जवाहर लाल नेहरू ने धर्मनिरपेक्षता की राजनीति की वजह से कर्मकांडों के मोह से ब्रह्मवादियाें को उबारकर उन्हें यथार्थ का परिचय कराया। इसके परिणामस्वरूप उनकी बौद्धिक ऊर्जा उच्च प्रशासनिक पदों के साथ-साथ राजनीतिक क्षेत्र में उनके भारी वर्चस्व के रूप में फलने फूलने होने लगी।

पुनरुत्थान के साथ नई द्वंदात्मकता का उभार

सकारात्मक बदलाव का दूसरा नाम ही क्रांति है। क्रांति के दौर में उसके अपनी परिणीती पर पहुंचने के पहले तक प्रतिक्रांति और पुनरुत्थानवाद के कई झटके आते हैं। ब्रह्मवादियाें की क्रांतिकारी अग्रसरता भी इसका अपवाद नहीं है।

परशुराम और उनके पूर्वज शस्त्र संचालन में इतने प्रवीण थे कि आने वाले राजाओं को वे ही इसकी दीक्षा देते थे लेकिन इसका उपयोग करके स्वयं राज्य की सत्ता हासिल करने की अनुमति उन्हें नहीं थी।

मज़ेदार स्थिति यह है कि जब राजनीतिक संदर्भ में धर्म के सामाजिक नियम लागू हुए तो सहश्त्रार्जुन जैसी प्रवृत्तियां उनके सामने फिर सिर उठाती दिखने लगी। धर्म पर ब्रह्मवादियाें का एकाधिकार माना जाता है। खासतौर से संत तो किसी भी जाति से मान्य है लेकिन धार्मिक पद पर अभिषेक के लिए पुश्तैनी ब्रह्मवादी होना अनिवार्य है।

फोटो साभार: Twitter

यह वर्जना नई धार्मिक क्रांति में चुपके से तोड़ दी गई। अब तेज़ी से गैर ब्राह्मण धार्मिक मठाधीश के रूप में स्वीकार हो रहे हैं। चुकी ब्राह्मणों के लिए सत्ता वर्जित होने की धारणा थी, इसलिए धार्मिक चोले में आए किसी ब्राह्मण राजनीतिज्ञ को स्वीकार नहीं किया जा रहा था लेकिन गैर ब्राह्मण धार्मिक उपाधि धारकों पर ऐसी कोई वर्जना लागू नहीं होती।

नतीजतन हाल में धार्मिक क्षेत्र की हस्तियों का सांसद, विधायक, मंत्री और मुख्यमंत्री बनने का सिलसिला तेज़ हो गया है। इसमें कहीं ना कहीं वर्ग चेतना का सिद्धांत निहित है और यह द्वंदात्मकता के एक पहलू के उभरने का भी संकेत है।

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