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दिहाड़ी पर मज़दूरी करती थीं सरिता, आज रांची विमेन्स कॉलेज में हैं B.Ed टीचर

सरिता

सरिता

कहते हैं ज़िन्दगी है, तो सपने हैं, सपने हैं, तो संघर्ष है और संघर्ष है, तो ज़िन्दगी है। यानि जिन लोगों ने जीवन में कभी कोई संघर्ष नहीं किया, उन्हें ज़िन्दगी का लुत्फ उठाने का मौका नहीं मिला। निरंतर संघर्ष की आग में तप कर ही इंसान का व्यक्तित्व निखरता है।

जहां तक महिलाओं की बात करें, तो उन्हें हर कदम पर दोहरा संघर्ष करना पड़ता है। एक तो अपना अस्तित्व बनाए रखने का संघर्ष और दूसरे, इस पुरुष सत्तात्मक समाज में अपने आपको साबित करने का संघर्ष। उस पर से भी अगर वह महिला सामाजिक व आर्थिक रूप से निम्न तबके से आती हो, फिर तो उसके जीवन की परेशानियों के बारे में पूछिए ही मत।

उसके लिए तो जीवन और संघर्ष एक-दूसरे के पर्याय बन कर रह जाते हैं। इसके बावजूद अगर कोई महिला अपने दम पर फर्श से अर्श तक पहुंचे, तो उसे तो सलाम करना बनता ही है।

रांची के बेड़ो प्रखंड के सिमरिया गाँव की रहने वाली सरिता तिर्की ऐसी ही शख्सियत हैं। सरिता के माता-पिता दिहड़ी पर मज़दूरी करते थे। उन लोगों के पास थोड़ी-बहुत ज़मीन थी, जिस पर बमुश्किल करके वे अपने परिवार के खाने भर अनाज उगा लिया करते थे। उनके पांच बच्चे हैं।

सरिता अपने पांच भाई-बहनों में दूसरे नंबर पर हैं। बचपन से ही दूसरे बच्चों को स्कूल जाते देख उन्हें भी पढने-लिखने की ख्वाहिश होती थी। इसी वजह से जब वह पांच वर्ष की थीं, तब माता-पिता ने एक स्थानीय मिशनरी स्कूल में उनका एडमिशन करवा दिया। वहां कोई फीस नहीं लगती थी।

सरिता शुरू से ही पढ़ने में तेज थी। इस वजह से केजी-1 से लेकर क्लास-6 तक लगातार फर्स्ट डिविज़न आती रहीं। मिडिल स्कूल में पढ़ाई के दौरान ही उन्होंने ठान लिया कि उन्हें खूब पढना है। समाज में अपनी एक अलग पहचान बनानी है।

पढ़ाई के प्रति उनके रूझान को देखते हुए ही उनके माता-पिता ने आगे खूंटी केंद्रीय विद्यालय में क्लास-7 में उनका एडमिशन करवा दिया, जहां लड़कियों के पढ़ने, रहने और खाने आदि की सारी सुविधाएं सरकार द्वारा वहन की जाती हैं। सरिता ने वहां दसवीं कक्षा तक पढ़ाई की।

इन चार सालों के बीच उनके परिवार से कोई भी कभी मिलने नहीं आया। कारण पूछने पर सरिता कहती हैं, “उनके पास इतने पैसे नहीं थे कि वे खूंटी से बेड़ो तक आने-जाने का खर्च वहन कर सकें। इस वजह से कई बार कुछ टीचर्स और लड़कियां ताने भी मारती थीं।”

ग्रेजुएशन में रहीं कॉलेज टॉपर

प्रथम श्रेणी दसवीं पास करने के बाद जब आगे पढ़ने की समस्या आई, तो हॉस्टल की एक वॉर्डन सिस्टर मेली कंडेमना ने 500 रुपये देकर सरिता की आर्थिक मदद की। तब उन्होंने खूंटी कॉलेज में एडमिशन लिया। सरिता के घर बेड़ो से खूंटी की दूरी करीब 42 किलोमीटर है।

कॉलेज के दिनों की तस्वीर।

लोहदरगा से खूंटी के बीच रोज़ एक बस चलती है, जो कि बेड़ो से होकर गुजरती है। वह रोज उससे ही कॉलेज जाने लगी लेकिन पैसे ना होने के कारण टिकट नहीं खरीदती थीं। कुछ दिनों बाद कंडक्टर को यह पता चला गया। एक दिन उसने धक्का देकर उन्हें बस से उतार दिया। तब सरिता ने कुछ समय तक पढ़ाई छोड़ कर खेतों में धान रोपने का काम किया, ताकि बस की टिकट का खर्च निकाल सकें।

कुछ महीनों बाद जब दीदी की शादी हो गई, तब उनके जीजाजी ने उन्हें एक साइकिल खरीद दी। इससे उनके लिए कॉलेज जाना-आना आसान हो गया। कॉलेज में हमेशा उनकी उपस्थिति 100% रही।

सरिता के मुताबिक इसकी एक बड़ी वजह थी। उनके पास किताबें ना होना। दरअसल, किताबों के अभाव में  क्लास-नोट्स पाने की ललक से रोज़ कॉलेज जाना सरिता के लिए ज़रूरी था। उन्हीं नोट्स को पढ़ कर सरिता ने भूगोल से ना केवल फर्स्ट डिवीज़न में ग्रेजुएशन पास किया, बल्कि कॉलेज टॉपर भी रहीं।

आगे पढ़ने के लिए करनी पड़ी मज़दूरी

खूंटी में ग्रेजुएशन तो कर लिया मगर उसके बाद वहां आगे उच्च शिक्षा की सुविधा नहीं थी, इसलिए सरिता रांची में अपने एक भइया के पास आ गईं। वह जिस घर में गार्ड का काम करते थे, वहीं के गैरेज में रहते थे। सरिता भी वहीं रहने लगी। आगे एमए में एडमिशन के लिए पैसों की ज़रूरत थी, तो कुछ दिन तक उन्होंने रेजा (दिहाड़ी मज़दूर) का काम भी किया।

सरिता बताती हैं, “उस वक्त मेरे पास खाने के लिए भी पैसे नहीं थे। दो दिन तक पानी पीकर काम चलाया। भइया को संकोचवश बता नहीं पाई। तीसरे दिन साथी महिलाओं को पता चला, तो उन्होंने अपना लंच शेयर किया। चौथे दिन जब मज़दूरी मिली, तब पड़ोस की एक लड़की ने अपना परीक्षा फॉर्म भरने के लिए मुझसे हेल्प मांगी। मैंने सारे पैसे उसे ही दे दिए। उस वक्त खुद से ज़्यादा उसके लिए मुझे वे पैसे उपयोगी लगे फिर अगले दिन मज़दूरी मिलने पर भोजन का सामान खरीदा और कई दिनों बाद भरपेट भोजन किया।”

रांची यूनिवर्सिटी

कुछ दिनों तक मज़दूरी करके पैसे बचाने के बाद सरिता ने रांची यूनिवर्सिटी में एमए का फॉर्म भरा। एडमिशन टेस्ट लिस्ट में वह टॉप-10 में आई। सरिता ने एनसीसी भी ज्वॉइन कर लिया लेकिन भूगोल विषय होने की वजह से प्रैक्टिकल क्लास करना ज़रूरी था। तब सरिता मज़दूरी छोड़ कर एक घर में दाई या मेड का काम करने लगी।

वह रोज़ सुबह अरगोड़ा चौक से अशोक नगर तक काम करने जातीं फिर वहां से मोहराबादी स्थित एनसीसी ग्राउंड में प्रैक्टिस करने जातीं, फिर वहां से रांची वुमेंस कॉलेज में पढ़ने जातीं और शाम में वापस काम करते हुए शाम करीब आठ बजे तक घर लौटती। सरिता कहती हैं कि यह सारी दूरी मुझे  पैदल ही तय करनी पड़ती थी क्योंकि अगर रोज़ का ऑटो या बस भाड़ा अफोर्ड करना उस वक्त मेरे वश में नहीं था।

बीएड एडमिशन में मकान मालकिन ने की मदद

सरिता ने एमए भी फर्स्ट डिवीज़न से पास कर लिया फिर भी उनके आगे और पढ़ने की ललक कम नहीं हुई। उसके बाद वह बीएड करना चाहती थीं। सरिता कहती हैं, “एक दिन मेरी मकान मालकिन, जिन्हें मैं प्यार से ‘दादीमाँ’ कहती थीं, वह मेरे कमरे पर आईं। उस समय ठंड का मौसम था और मैं ज़मीन पर सिर्फ एक पतला-सा दुपट्टा ओढ़े सो रही थी क्योंकि मेरे पास कंबल या रजाई नहीं था। दादीमांँ मेरी आर्थिक स्थिति देख कर रो पड़ीं। बाद में वह जब तक जीवित रहीं, हमेशा भोजन, कपड़े आदि से वह मेरी यथासंभव मदद करती रहीं।”

इस बार दादी माँ ने बीएड में एडमिशन लेने के लिए सरिता को 10 हज़ार रुपए दिए। कुछ दिन तक फिर से उन्होंने मज़दूरी की और पैसे जमा करके बीएड में दाखिला लिया, जिसमें वह फोर्थ टॉपर रहीं। आगे अब एमएड में एडमिशन लेने की टेंशन आ खड़ी हुई। इसके लिए करीब एक लाख रुपए चाहिए थे।

पीजी डिग्री के साथ सरिता।

किसी ने सरिता को एजुकेशन लोन के बारे में बताया लेकिन जब वह बैंक गईं, तो पता चला बीएड-एमएड की पढ़ाई के लिए यह लोन नहीं मिलता। सरिता ने बैंक स्टाफ से काफी मिन्नतें कीं और उन्हें अपने रिजल्ट और आर्थिक स्थिति के बारे में जब बताया, तब उन्होंने सरिता के पिछले शैक्षिक रिकॉर्ड को देखते हुए उन्हें एक लाख रुपए का लोन उपलब्ध करवा दिया।

सरिता ने जमशेदपुर वुमेंस कॉलेज में दाखिला लिया। वहां हॉस्टल वॉर्डन गुड़िया दीदी ने हॉस्टल मेस की फीस माफ करवाने में सरिता की मदद की। कुछ दोस्तों ने किताबें आदि उधार देकर पढ़ने में मदद की। इस तरह सरिता ने एमएड भी फर्स्ट डिवीज़न विथ डिस्टिंकशन पास कर लिया।

उठा रहीं हैं पूरे परिवार की ज़िम्मेदारी

वर्तमान में रांची वुमेंस कॉलेज में एक बीएड टीचर के तौर पर पढ़ा रही हैं। अपनी छोटी बहन और सबसे छोटे भाई को भी सरिता ने अपने पास ही रख कर पढ़ाया। बहन भी फिलहाल रांची के ही एक प्राइवेट बीएड कॉलेज में पढ़ा रही हैं, जबकि भाई सेंट जेवियर्स कॉलेज से ग्रेजुएशन कर रहा है।

सरिता बताती हैं, “उन दोनों के अलावा एक अन्य लड़की अनिता भी हम लोगों के साथ रहती है। वह भी मेरी की तरह बेहद गरीब परिवार से है लेकिन उसकी आंखों में भी मुझे पढ़ने का वही जुनून नज़र आया, जो कभी मेरी आंखों में पला करता था।” इसी वजह से सरिता उसे अपने साथ ले आईं और अब उसे भी पढ़ा रही हैं। सरिता नहीं चाहती हैं कि जिस कठिन संघर्ष से उन्हें गुज़रना पड़ा है, वैसा किसी और को भी झेलना पड़े।

सरिता कहती हैं, “हर माता-पिता को अपनी लड़कियों की शादी पर पैसा खर्च करने के बजाय उनकी पढ़ाई पर खर्च करना चाहिए। इससे उन्हें दोगुना रिटर्न मिलेगा। एक तो बेटी शिक्षित और आत्मनिर्भर बनेगी और दूसरे, पढ़-लिख कर वह अपने लिए बेहतर जीवनसाथी ढूंढ सकेगी।”

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