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“मोदी जी, मुझे पता नहीं था कि आप राजनीति के इतने घटिया कलाकार हैं”

मोदी

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बॉलीवुड फिल्म मेकिंग इतिहास में ऐसी कई हिट फिल्में आई हैं, जिन्होंने बॉक्स ऑफिस पर कमाई के सारे रिकॉर्ड्स तोड़ दिए हैं। टीज़र रिलीज़ से लेकर फिल्म रिलीज़ होने तक हर तरफ उन फिल्मों के चर्चे रहे हैं। फिल्म रिलीज़ होने पर हॉल में भी ज़बरदस्त प्री बुकिंग चल रही होती है लेकिन कई दफा इन सब के बावजूद भी फिल्में फ्लॉप करार दे दी जाती हैं।

भारी भरकम बजट और प्रमोशन भी इन फिल्मों को बचा नहीं पाती हैं। इसका एक कारण फिल्म की कमज़ोर पटकथा, अभिनेता का रौब व कमज़ोर निर्देशन भी होता है।                     

फिल्म का कहानी से कोई वास्ता नहीं

फिल्म में कई जगह ऐसे सीन ज़बरदस्ती डाले जाते हैं जिनका फिल्म से कोई वास्ता नहीं होता है। जैसे-फिल्म की पूरी कहानी ओडिशा व आंध्र के एक गरीब मछुआरे पर आधारित हो लेकिन वह कभी अपने तट से बाहर नहीं गया और वह उस फिल्म का अभिनेता है। फिल्म में उसे मछली पकड़ते हुए ऐसे ब्रांड का टी-शर्ट पहनाया गया है, जिसके बारे में हमारे भोजपुरी सुपर स्टार मिस्टर निरहुआ भी कई दफा सोचे।

इस फिल्म के बजट पर कई काम हो जाते

एक ऐसी ही फिल्म की शूटिंग में मोदी जी व्यस्त हैं। 20-25 कैमरामैन को लेकर निकल पड़े की फिल्म शूटिंग करने। ना जाने इस फिल्म का बजट क्या रहा होगा? कितने अफसर दिन रात एक कर दिए होंगे?

ना जाने कितने दर्शन करने आने वालों का आज का कार्यक्रम रद्द करना पड़ा होगा। इस फिल्म का जितना बजट रहा होगा उतने में ना जाने कितने भीख मांगने वालों के बच्चों के लिए किताब-कलम के पैसे आ जाते। ना जाने कितनी माँ का अपने बच्चों को स्कूल भेजने का सपना पूरा हो गया होता।           

सस्ती लोकप्रियता के कारण होती है परेशानी

खैर, क्या फर्क पड़ता है? जब दिन-रात टीवी वाले आपके द्वारा अभिनीत, लिखित व निर्देशित टीज़र, ट्रेलर व फिल्म ही दिखा रहे होते हैं। आपके इस दो टके की सस्ती लोकप्रियता के कारण ना जाने कितने ‘जनरल नॉलेज़’ वह दिखा ही नहीं पाते हैं। सुबह उठकर पांच-सात पेपर खंगालने के बावजूद भी प्रतियोगिता दर्पण का करंट इश्यू पढ़ना शुरू करता हूं, तो लगता है यह पूरे महीने कर क्या रहे थे हम?

आखिर हम देख क्या रहे थे महीने भर?

अखबार पढ़ा, टीवी देखा, व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी में रेगुलर क्लास किए, फेसबुक पर हमेशा अपडेट रहे लेकिन लगा 95% का तो हमने पहली बार नाम ही सुना है। दो तीन न्यूज़पेपर घर मंगवाना, चार ई-पेपर फॉर्मेट मोबाइल के ज़रिये ही पढ़ लेना व टीवी के डीटीएच रिचार्ज अलग। आखिर हम देख क्या रहे थे महीने भर?

नरेन्द्र मोदी। फोटो साभार: Getty Images

खैर, आपको क्या फर्क पड़ता है? आप तो फिल्म बनाने वाले हो। एडवर्टाइज़ करके पैसे व तालियां बटोरने वाले हो। आपको तो अपनी फिल्मों को सुपर हिट करवाने से मतलब है। आप तो बॉक्स ऑफिस पर ज़बरदस्त कमाई करना चाहते हैं। आपको तो चर्चे में रहना ही पसंद है लेकिन कई दफा इसी चर्चे में बने रहने के कारण ही आपका पूरा शो फ्लॉप हो जाता है। शायद यह तस्वीर भी उसकी एक वजह हो।

चश्मा लगाकर यह कैसा ध्यान?

इस फिल्म ने यह साबित कर दिया कि आप अमिताभ बच्चन जैसे बेहतरीन अभिनेता कभी नहीं हो सकते। आपकी पटकथा लेखन भी कमज़ोर है। साथ ही आपकी निर्देशन शैली पर तो ना जाने कितने सवाल खड़े हो रहे हैं।                   

आखिर मैं यह समझने में लगा हूं कि यह कैसा रातभर का ध्यान था, जहां चश्मे भी आंखों पर ही लटके थे। क्या बिना चश्मे की आपकी तस्वीरें उस अभिनेता की तरह नहीं लगते? या आपने ऐसा इसलिए किया ताकि आप कभी-कभी एक आंख खोलकर देख सके कि यह फोटोग्राफर आपकी फोटो ठीक तरह से ले रहा है कि नहीं!  

गुफा में कपड़ों के लिए हैंगर?

आखिर यह कौन से भगवान की गुफा है, जहां एक कोने में कपड़े लटकाने के लिए हैंगर भी हैं। आखिर किस भगवान के पास गए थे आप? जो कपड़े पहनते हो और उन कपड़ों को टांगने के लिए हैंगर भी।

ऐसा मालूम होता है कि यह तस्वीर मेरे घर की सीढियों के निचले हिस्से की है, जहां कभी हम लुक्का-छुप्पी के खेल में छिपा करते थे हम। हमें यह पता नहीं था कि 2014 में हम जिन्हें चुनकर भेज रहे हैं, वह राजनीति का इतना बड़ा परन्तु घटिया कलाकार है।

मीडिया चाटुकारिता बंद करे

ऐसी ही फिल्मों व एडवरटाइज़मेंट की देन है कि हमारे समाज में आसाराम व राम रहीम जैसा भगवान पैदा हुआ। अभी भी वक्त है कि कैमरे व मीडिया वाले सुधर जाएं क्योंकि उन्हें अंदाज़ा होना चाहिए कि वे लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ हैं।

उन्हें सरकार की आलोचना करने की आदत डालनी पड़ेगी। इससे ही लोकतंत्र मज़बूत होगा। उन्हें चाटुकारिता करना बंद करना होगा। आपको अगर मोदी के काम करने की शैली पसंद आए तो उन्हें वोट दीजिए परन्तु मीडिया की भूमिका व दायरा क्या है, इसका भी ध्यान रखना होगा।

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