देश की मेहनतकश पूंजी को जिस तरह से लोग काँग्रेस के समय लूट रहे थे, वैसे ही बीजेपी के समय भी लूट रहे हैं। इन भूरे कॉरपोरेट्स की दलाली करने कभी काँग्रेस आ जाती है, तो कभी बीजेपी। आम जनता जस के तस पड़ी है, जो किसी भी पार्टी की जीत के जश्न में शामिल हो लेती है।
भारत इस मुहाने पर आकर खड़ा हो गया है कि वर्ग-दृष्टि तो किसी के पास बची ही नहीं है। शासक वर्ग, आम लोगों में यह भ्रम फैलाने में कामयाब हो चुका है कि सरकार की नीतियों का विरोध करना मतलब देश का विरोध करना, सरकार से सवाल करना मतलब देशद्रोही होना, काँग्रेसी होना या वामपंथी होना है।
हममें से ज़्यादातर लोगों ने इस दुष्प्रचारक धारणा को आत्मसात भी कर लिया है और जाने-अंजाने वे भीड़ बनकर इस अंधी रेस में शामिल हो गए हैं, जो देश को गर्त में ले जाकर ही दम लेगी। इसमें कोई शक नहीं कि देश की रीढ़ (देश के युवा) को तोड़ दिया गया है। आने वाले समय में यह युवा अकेले कहीं खड़े नहीं हो सकते हैं। उन्हें भीड़ की बैसाखी की ज़रूरत पड़ेगी।
वे लोग जो अंध राष्ट्रवाद का चश्मा लगाकर, यह भी हां और वह भी हां, गोडसे भी हां और गाँधी भी हां, भगत सिंह भी हां और सावरकर भी हां, साध्वी प्रज्ञा भी हां और शहीद करकरे भी हां करते फिर रहे हैं, वे या तो धूर्त हैं या मूर्ख इनोसेंट क्योंकि यह सब आपके सामने हो रहा है।
नागरिक होना मतलब सत्ताधारी दल से सवाल करना
ऐसा लगता है बस दो ही विचारधारा देश है, एक मोदी समर्थक दूसरी मोदी विरोधी। देश का युवा इसपर अपना स्टैंड स्पष्ट करने के बजाय ढुलमुल लोटे की तरह हिंदुत्व प्रेम में हां-हां करते इधर-उधर लुढ़क रहा है। वह इतना भी सोच पाने की स्थिति में नहीं है कि यह कौन लोग हैं, जो एक तरफ देशभक्त भी बने हैं और दूसरी ओर देशद्रोह के पुरज़ोर समर्थक भी?
याद रखिए रूलिंग पार्टी (तत्कालीन सत्ता) से सवाल करना ही नागरिक होना है। देश में शिक्षा, स्वास्थ्य व रोज़गार का हिसाब मांगना ही देशभक्ति व दिलेरी है। इसके उलट सरकार की भक्ति करना बुज़दिल होना है। कल की पीढ़ी आप से सवाल करेगी। ठीक वैसे ही जैसे आप अपने बुज़ुर्गों से 70 साल का हिसाब मांगते हैं। खैर, आपको जीत मुबारक हो मोदी जी मगर मैं तो सवाल करता रहूंगा।
शिक्षण संस्थानों के साथ मज़ाक
सरकार पांच साल में एजुकेशन पाॅलिसी नहीं बना पाई, जानते हैं क्यों? क्योंकि किसी भी एक सरकार द्वारा जनता को भेड़ों की तरह बार-बार हांका नहीं जा सकता। उसके लिए कुछ दीर्घकालिक इंतज़ाम करने होंगे। वैज्ञानिक व तार्किक शिक्षा की बजाय तिलस्मी अंधविश्वास से भरे चैप्टर कैसे शिक्षा में घुसेड़े जाए इसपर संघ में पिछले कई सालों से मंथन चल रहा है।
मतलब अब देश की शैक्षणिक संस्थानों को प्रोफेसर व स्काॅलर्स की ज़रूरत नहीं रही। वैज्ञानिकों की भी ज़रूरत नहीं है क्योंकि इनकी नीतियों से साफ लगता है कल को भाभा एटोमिक, अदानी एटोमिक सेंटर हो जाएगा और सतीश धवन, अंबानी स्पेस सेंटर हो जाएगा। तो बचेगा क्या?
ऐसे में यह भी संभव है कि हमारे महत्वाकांक्षी मोदी जी अगले चुनाव के समय मंगल ग्रह के टूर की इच्छा भी ज़ाहिर कर दें। खैर, तब की तब देखेंगे। फिलहाल अभीं हिंदू-मुस्लिम किया जाए। यह मान लेना बिल्कुल भी गलत नहीं होगा कि आपने फिर से पांच साल हिंदू- मुस्लिम करने के लिए इस सरकार को दिए।
सारे स्वायत्त संस्थानों को स्टेट मशीनरी में तब्दील कर देने की छूट दे दी। खैर, ठीक है मान लेते हैं कि आपने अच्छा ही किया होगा। आपने जो किया आपको मुबारक। बहरहाल, हमें उन सभी वोटरों की चिंता है, जो सिर्फ वोटर्स नहीं हैं, उनका अस्तित्व भी है जिसका ठीक-ठीक मतलब भी वे नहीं समझते और बावजूद इसके जागरूक मतदाता होने की भूल करते हैं।
मुझे मोदी भक्तों की चिंता होती है
हमें उनकी चिंता है, जो वाट्सएप पढ़-पढ़कर परसेप्शन बनाते हैं। उनकी चिंता है जो सुनियोजित उन्माद का ‘नैरेटिव’ नहीं समझ सकते और ट्रिगर हो जाते हैं। अपने उन मित्रों की भी चिंता है जिनसे अच्छी मित्रता होने के बावजूद भी तीखी नोक-झोंक होती रहती है, जिनसे वैचारिक असहमति है।
मेरे कई मित्र ऐसे भी हैं, जो किसी पार्टी से नहीं आते, जिनके लिए धर्म या जाति गौड़ हो चुकी है। जो वोट तो देते हैं मगर वोट करके सो नहीं जाते। कुछ ऐसे भी हैं जो फितरतन कभी हार नहीं मानते क्योंकि वे हज़ारों के बीच अकेले होकर भी सच बोलने से समझौता नहीं करते हैं।
उनकी संख्या आप उंगली पर बेशक गिन सकते हैं मगर उनके साथ खड़ा रहना मुझे अच्छा लगता है और मज़ा भी आता है। मुझे गर्व है उस उन्मादी भीड़ का हिस्सा ना होने पर और दु:ख है कि यह सब हमारे सामने हो रहा है और हम इसका कोई इलाज नहीं कर पा रहे हैं।