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“नेता बनने के लिए पैसे की ज़रूरत होती है ताकि साथ वालों को बांट सके”

राजनीतिक रैली

राजनीतिक रैली

पिछले तीन-चार महीनों से देश में आम चुनाव की सरगर्मी थी। इस सरगर्मी में सभी राजनीतिक दल, मीडिया और चुनाव में रूचि रखने वाली संस्थाएं मतदाताओं के चक्कर में पड़े थे। हर वयस्क अपने-अपने ढंग से लोकतंत्र के इस पर्व के बारे में राय दे रहा था।

यह चुनावी माहौल एक ओर देश की आने वाली सरकार के लिए दिशा तय कर रहा था, वहीं यह भी बताना महत्वपूर्ण है कि इनके द्वारा हमारे देश की भावी पीढ़ी का राजनीतिक समाजीकरण हो रहा था।

स्कूली बच्चे और किशोर इस चुनाव में सीधे योगदान अर्थात् मतदान तो नहीं करने जा रहे थे लेकिन यह ज़रूर था कि वे देश की राजनीति के बारे में अपनी दृष्टि का विकास कर रहे थे।

इनकी राजनीतिक दृष्टि और सूझबूझ को समझने के लिए मैंने चुनावी राजनीति के बारे में स्कूली बच्चों और किशोरों से बातचीत की। इसके लिए अलग-अलग स्कूलों के 10 से 16 वर्ष के विद्यार्थियों के साथ 8 केन्द्रित समूह चर्चा की गई।

ये विद्यार्थी महाराष्ट्र के वर्धा ज़िले के रहने वाले थे। हालांकि ये इस चुनाव में मतदाता नहीं थे लेकिन अगले आम चुनाव में इनमें से अधिकांश मतदाता बन चुके होगें। एक ओर तो बच्चों को स्कूल में सरकार, लोकतंत्र, चुनाव और कानून का संवैधानिक पाठ पढ़ाया जाता है तो दूसरी ओर बच्चे अपने रोज़मर्रा के जीवन में इनके एक अलग रूप को देखते हैं। यह रूप ना तो कृत्रिम है और ना ही ऐसा जो केवल वयस्कों के लिए है और जिससे बच्चों को दूर रखने का कोई औपचारिक निर्देश है।

बच्चों के मन में राजनीति की ऐसी छवि है

बच्चों और किशोरों के साथ बातचीत से पता चलता है कि वे भारत की संसदीय राजनीति को दलीय राजनीति के रूप में देख रहे हैं। उनके अनुसार इस बार का चुनाव दो मुख्य राजनीतिक दलों और गठबंधनों के बीच है। खासकर इसे वे दो नेताओं नरेन्द्र मोदी और राहुल गाँधी के बीच के ‘युद्ध’ के रूप में रेखांकित करते हैं। आश्चर्य है कि लोकतंत्र की स्वाभाविक प्रक्रिया के लिए ये बच्चे इतना घोर या चरम विशेषण ‘युद्ध‘ क्यों उपयोग कर रहे है?

इसका उत्तर चुनाव की उनके परिवेश में प्रस्तुति से समझा जा सकता है। इस चुनाव को मीडिया से लेकर राजनीतिक दल तक इस रूप में प्रस्तुत करते रहे कि मानो करो या मरो की स्थिति है। इस स्थिति में चुनाव की प्रस्तुति संसदीय लोकतंत्र में स्वतंत्र मत के प्रयोग के बदले भेड़चाल की ओर ले जाती है, जहां मतदान औचित्य के आधार पर ना होकर मतांधता के आधार पर होता है। इसका प्रभाव बच्चों में भी दिखा।

फोटो साभार: Getty Images

यद्यपि इन बच्चों ने किसी विचारधारा विशेष का नाम नहीं लिया लेकिन वे लोकप्रिय नारों ‘न्याय’, ‘आएगा तो मोदी ही’ और ‘माँ शीश नहीं झुकने देगें’ का उल्लेख कर विचारधारात्मक झुकाव की ओर संकेत कर रहे थे। कई बार वे किसी पार्टी विशेष या नेता विशेष के पक्ष में राय ज़ाहिर करते लेकिन उनके पास तर्कों का अभाव था। अक्सर वे भावोद्रेक में अपने विचार व्यक्त करते जहां दूसरे के प्रति पूर्वग्रह अधिक रहता था।

हर समूह की चर्चा में पाकिस्तान को मुंहतोड़ जवाब देना, वंशवाद, हिंदू धर्म, नोटबंदी और बेरोज़गारी जैसे लोकप्रिय सवाल-जवाब आए ही। इन विद्यार्थियों के साथ हुई चर्चा से पता चलता है कि वे चुनाव को लोकतंत्र से जोड़कर देखते हैं। उनके लिए यह व्यक्ति का अधिकार है जिससे वह अपनी सरकार चुनता है।

राजनीतिक चालबाज़ी भी समझते हैं बच्चे

इस समझ के साथ उनका यह जोड़ना महत्वपूर्ण है कि उन्हें (नेताओं को ) गाँव वालों से कोई लेना-देना नहीं, चुनाव जीतना है और चले जाना है। नेताओं की विश्वसनीयता का ह्नास यहीं तक नहीं थमता। बच्चों ने दलबदलू नेताओं की लंबी लिस्ट भी साझा की और कहा कि ‘हर नेता मज़बूत पार्टी में चला जाता है।’ उनके लिए पार्टी की मज़बूती की कसौटी जन-कल्याण या उसके कार्यों का मूल्यांकन ना होकर एक भिन्न कसौटी है।

फोटो साभार: Twitter

इस कसौटी के बारे में अलग-अलग समूहों ने बताया कि मज़बूत पार्टी वह पार्टी होती है जिसका नेता मज़बूत होता है, जो सत्ता में होती है और जिसके पास पैसा होता है। इन्हीं कारणों से मज़बूत पार्टी जीतती है। ऐसी स्थिति में स्पष्ट होता है कि बच्चों के लिए राजनीति महत्व का मुद्दा है लेकिन वे इसके महत्व को सत्ता, नियंत्रण और प्रभाव के रूप में देख रहे हैं। विचारणीय है कि ऐसी समझ के साथ बड़े हो रहे भावी नागरिक ‘सत्ता’और ‘लोकतंत्र’ के अंतर को कैसे कायम रखेगें? कैसे वे संसदीय लोकतंत्र में हर नागरिक के मूल्य व अधिकार की परिकल्पना करेगें?

‘देश का भविष्य चुनाव से तय होता है’

इन्हें मालूम है कि देश का भविष्य चुनाव से तय होता है लेकिन संसदीय लोकतंत्र में उनकी आस्था कम होती जा रही है। हालत यह है कि कुछ विद्यार्थियों ने कहा कि जहां चुनाव की चर्चा होती है, वे वहां से हट जाते हैं। कुछ ने कहा इसलिए हम घर देर से जाते हैं कि हमें चर्चा सुननी ना पड़े। अपनी अरूचि के बारे में बच्चों ने कहा कि जब सब चोर हैं तो किसे वोट करें? ज़्यादातर नेता बुरे हैं, उनमें से जो कम बुरा है उसे चुनेंगे।

चुनावी प्रक्रिया की इस तरह की यथार्थवादी समझ हमारे लिए चिंताजनक है। हम केवल मतदान के प्रतिशत के कम होने या अधिक होने से संतुष्ट नहीं हो सकते। बच्चों के ऐसे विचार संकेत हैं कि आगे आने वाले लगभग 10 सालों में हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती होगी संसदीय लोकतंत्र की प्रतिष्ठा को कायम रखना। यह किसी एक की ज़िम्मेदारी नहीं है, ना ही इस प्रतिष्ठा के लोप के लिए कोई एक ज़िम्मेदार है।

चुनावी राजनीति की विद्रूपता कितनी वैध हो चुकी है कि उसके लिए यह प्रमाण पर्याप्त है कि बच्चों ने कहा कि प्रत्याशी चयन पैसे, जाति, धर्म और अधिवास के आधार पर होता है। सभी समूहों ने कहा कि स्थानीय नेता के पढ़े-लिखे होने का कोई खास फर्क नहीं पड़ता क्योंकि वोट मुख्य नेता या बड़े नेता के नाम पर गिरता है, चुनाव किसी को लड़ा दो। सहभागी बच्चों के अनुसार चुनावी सभाओं से जनता का मन नहीं बदलता। इसका फायदा केवल इतना होता है कि जो इनमें जाता है, उसे पैसे मिल जाते हैं।

फोटो साभार: Twitter

यह विचार प्रमाण है कि कहीं ना कहीं मत निर्माण की प्रक्रिया में शक्ति का केन्द्रीकरण, अस्मितामूलक आधार जैसे- जाति, धर्म, और पैसों का लालच मुख्य भूमिका निभा रहे हैं। ऐसे कारक विवेक को परिष्कृत करने और वृहत्तर हित को देखने की दृष्टि को सीमित करते हैं। यदि भावी पीढ़ी भी इसी दिशा में आगे बढ़ेगी तो वैचारिक संकीर्णता बढ़ती जाएगी जो किसी भी दृष्टि से समाज, अर्थव्यवस्था और राज्य के लिए हितकर नहीं होगा।

इस चर्चा के भागीदार बच्चे स्थानीय नेताओं को उनकी संपत्ति, गाड़ियों, घरों की संख्या, समर्थकों की भीड़ आदि के सापेक्ष देखते हैं। वे अपने स्थानीय नेताओं के बड़े उद्योगों व महाविद्यालयों आदि का उल्लेख करते हैं। नेता के लिए संपत्ति की अपरिहार्यता के बारे में एक बच्चे का यह बयान देखने लायक है, “नेता बनने के लिए पैसे की ज़रूरत होती है क्योंकि साथ रहने वालों में बांटना होता है, रैली करनी होती है आदि। नेताओं के पास कालाधन होता है। यह कालाधन जनता का होता है।”

‘जो धन दिखता नहीं वह है कालाधन’

कालाधन की परिभाषा करते हुए बच्चों ने बताया कि जो धन दिखता नहीं ,है जिसे नेता घर में छुपाकर रखते हैं, वह कालाधन है। यह भी उल्लेखनीय रहा कि नेताओं के बारे में बच्चे मानते हैं कि वे महानगरों में रहते हैं। वे कभी-कभी गाँव आते हैं। यह बातें प्रमाण हैं कि सत्ता का प्रतीक पूंजी और आम आदमी से दूरी बनती जा रही है। नेता और प्रकारांतर से सरकार ऐसी संस्था के रूप में मान्य नहीं है जो आम नागरिक के लिए कार्य करे।

इन सामाजिक प्रस्तुतियों और स्वीकृतियों के प्रति बच्चों के मन में कोई उलझन या द्वन्द नहीं है। वे इसे एक चलन मान चुके हैं। यदि उक्त विद्रूपता सच्चाई है, चलन है तो इसके विकल्प पर बातचीत या संवाद का ना होना इससे बड़ी समस्या है। ना तो स्कूल और ना ही परिवार इस तरह के मुद्दों पर किसी वैकल्पिक दृष्टि से बच्चों को परिचित करा रहे हैं। वे भी यथासंभव इन कठोर प्रश्नों पर मौन है।

भागीदार बच्चों ने बताया, “उनके घरों में यह चर्चा होती है कि किसे मत दिया जाए मगर यह चर्चा नहीं होती कि जिसे दिया जा रहा है उसे क्यों दिया जाए?” बच्चों ने यह भी बताया कि उनके स्कूलों में चुनाव के बारे में चर्चा ना के बराबर है। चर्चा उसी सीमा तक है जिस सीमा तक पाठ्य पुस्तकें इसके लिए अवकाश देती हैं। बच्चों की दो समातंर दुनिया है।

फोटो  साभार: Twitter

स्कूल की दुनिया तो किताबी ज्ञान और परीक्षा के अंकों में उलझी हुई है। वहां वे शिक्षकों और किताबों की मदद से लोकतंत्र की परिभाषा, सरकार के कार्य, सांसद की योग्यता और संसद का निर्माण आदि के बारे में तथ्यात्मक सूचनाएं एकत्रित करते हैं। इसके विपरीत विद्यालय के बाहर की दुनिया में बच्चे जो देख रहे हैं उसे समझ रहे हैं, अपना रहे हैं। दुःखद यह है कि इसके द्वारा हम भावी पीढ़ी में राजनीतिक व्यवस्था को लेकर नकारात्मक अभिवृत्ति भर रहे हैं।

इसके लिए बच्चों के पास प्रमाण सहित कारण हैं जिन्हें हम खारिज़ नहीं कर सकते हैं। हां, इतना अवश्य कर सकते हैं कि हम सभी वयस्क विचार करें कि भारत के लोकतंत्र का भविष्य इस रास्ते पर जाने से कैसे बचे? इसके लिए कक्षा में, परिवार में और समुदाय में चुनाव पर चर्चा किसी ‘युद्ध’ की तरह ना हो बल्कि वे ऐसी प्रक्रिया के रूप में जहां मताधिकार के प्रयोग के लिए युक्तियुक्त बहस हो, जहां आलोचना की पूरी गुंज़ाइश हो लेकिन जिसका लक्ष्य मैं-तुम का भेद ना होकर ‘हम’ का भला हो।

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