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“बिहार में मेरे साथी पत्रकार को बंदूक की नोक पर धमकियां दी गईं”

पत्रकार को धमकी

पत्रकार को धमकी

मैं अपनी बात, एक घटना का ज़िक्र करते हुए शुरू करूंगा। बमुश्किल डेढ़-दो साल पहले की बात है जब मैं अपने अखबार के लिए घुमंतू रिपोर्टिंग करता था और इस दौरान अक्सर बिहार के ज़िलों और कस्बों के पत्रकारों से मिलना-जुलना और उनके घर आना जाना होता था।

इसी सिलसिले में मैं बिहार के कोसी अंचल में अपने एक पत्रकार साथी के घर में था। हमलोग उनके दरवाज़े पर बातें कर रहे थे कि तभी दो तीन बड़ी गाड़ियां रुकी और कुछ लोग गन लेकर उसके दरवाज़े में घुसने लगे। साथी ने मुझे अंदर भेज दिया और कहा, बाहर मत आइयेगा।

मैं दरवाज़े से सटे कमरे में मैं बैठ गया, तभी उनकी पत्नी और उनके पिता भी उसी कमरे में आ गए। हम तीनों के कान इस बात को समझने में लगे थे कि बाहर हो क्या रहा है। गाड़ियों से आए लोग उस पत्रकार साथी से करीब आधे घंटे तक बहस करते रहे। बहस में गरमा-गरमी थी, अक्सर लगता था कि मारपीट की नौबत आ जाएगी।

सामने वाले सज्जन, पत्रकार साथी से कह रहे थे कि हम जब तुमको रेगुलर विज्ञापन देते हैं तो तुम हमारे खिलाफ खबर कैसे छाप सकते हो। पत्रकार साथी उसे बार-बार समझा रहे थे कि देखिए, विज्ञापन देने का मतलब यह नहीं है कि कोई बड़ी घटना हो जाए और हम उसकी खबर नहीं लिखें।

सामने वाला धमकी देते हुए यह इशारा तक करता दिखाई पड़ रहा था कि वह चाहे तो उसे मरवा सकता है। पत्रकार साथी भी दबने का नाम नहीं ले रहे थे। वह पत्रकारिता का उसूल समझा रहे थे। ईश्वर की कृपा रही कि बहस बिना किसी हिंसक घटना के एक समझौते वाली स्थिति पर आकर बहस खत्म हो गई।

वे लोग गए और हमने चैन की सांस ली। उनके जाने के बाद साथी ने बताया कि जो सज्जन आए थे वे किसी लिब्रेशन आर्मी के चीफ थे और उनकी पत्नी नगर पंचायत की अध्यक्ष बन गई थी। अध्यक्ष महोदय के नाम पर अखबार को विज्ञापन दिया जाता था मगर एक बार लिब्रेशन आर्मी के चीफ महोदय का किसी वारदात में नाम आया और अखबार ने यह खबर छाप दी तो वे खार खाए थे।

उनके लिए मर्डर वगैरह करना आम बात थी मगर पत्रकार साथी किसी भी सूरत में अपनी इंटिग्रिटी से समझौता नहीं करना चाहते थे। उस रोज़ उनकी पत्नी ने मुझसे कहा कि अपने मित्र से कहिए, इस तरह के झमेले से दूर रहे। मैं उनकी बात समझ सकता था।

दरअसल, यह जो कहानी है, यह कोई रेयर कहानी नहीं है। देश के ज़िले और प्रखंड स्तर के कई पत्रकारों के साथ ऐसी घटनाएं घटती हैं, खास कर जो पत्रकार अपने उसूलों पर अडिग रहने की कोशिश करते हैं।

सीवान में राजदेव रंजन की हत्या की जांच चल रही है और जांच का नतीजा क्या निकलेगा कहना मुश्किल है मगर अमूमन यह माना जा रहा है कि उनकी हत्या इसलिए हुई कि शहाबुद्दीन उनके अखबार को विज्ञापन दिलाता था, इसके बावजूद राजदेव रंजन ने जेल में उनके दरबार की तस्वीर प्रकाशित कर दी।

उसी तरह पिछले साल कटिहार के एक पत्रकार का ऑडियो टेप वायरल हुआ था जिसमें एक स्थानीय विधायक पत्रकार को गंदी गंदी गालियां दे रहा था और यह जता रहा था कि जब काम पड़ता है तो यह पत्रकार ही उसके पास जी हुजूरी करने पहुंचता है, जबकि खबर छापते वक्त शेर बन जाता है।

इन तमाम अनुभवों से गुज़रते हुए और लगातार ज़िलों और कस्बों के अपने पत्रकार साथियों से मिलते-बतियाते हुए मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि हमारे ये साथी आज की तारीख में एक अलग किस्म के खतरे का सामना कर रहे हैं और इसकी वजह इतनी सी है कि ये पत्रकार खबर लिखने के साथ-साथ अपने मीडिया हाउस के लिए विज्ञापन वसूलने का भी धंधा करते हैं।

जाहिर सी बात है कि अगर एक ही आदमी किसी संस्थान के लिए विज्ञापन वसूले और ज़रूरत पड़ने पर विज्ञापन देने वाले के खिलाफ निगेटिव खबर लिखे तो सामने वाले उस व्यक्ति को सबक सिखाने के तरीके तलाशने लगता ही है मगर मीडिया संस्थान इन पत्रकारों के खतरों से अनजान सिर्फ धन कमाने के लिए हर तरह के तिकड़म को अपनाने की कोशिश करते हैं।

चाहे इसके लिए रिपोर्टर को विज्ञापन एजेंट या वितरक ही क्यों ना बनाना पड़े। मैं बिहार और झारखंड के क्षेत्रीय पत्रकारों की बात जानता हूं और मुझे लगता है कि देश के तकरीबन हर हिस्से में क्षेत्रीय पत्रकारों का यही हाल है।

बिहार में 38 ज़िले और 534 प्रखंड हैं। चार बड़े सेंटर हैं, जहां अखबारों ने अपने प्रिंटिंग सेंटर खोल रहे हैं। इन चार सेंटरों में काम करने वाले पत्रकारों को छोड़ दिया जाए तो बाकी ज़िलों के पत्रकारों को ना अखबार ढंग की सैलरी देता है, ना टीवी चैनल, पत्रिका और वेब पोर्टल तो आइकार्ड देकर पत्रकार बहाल कर लेते हैं।

अखबार और क्षेत्रीय टीवी चैनलों के ज़िलों में जो संवाददाता होते हैं, उनकी औसत सैलरी 5 से 8 हज़ार रुपये प्रति माह होती है और प्रखंडों-अंचलों में काम करने वाले पत्रकारों को मीडिया संस्थान 500 से 1500 रुपये के बीच प्रति माह मानदेय देते हैं।

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