Site icon Youth Ki Awaaz

“जामा मस्जिद वाली रमज़ान की मेरी यादें जो भुलाए नहीं भूलती”

जामा मस्जिद

जामा मस्जिद

बच्चों की शैतानी पर कोई बात चल रही थी और अम्मी जी एक दम बोलीं, “बहुत हरामी होते हैं मुसलमानों के बच्चे।” तभी हम सब हंस पड़े। अम्मी जी ने ऐसा क्यों कहा और हमने जवाब में क्या कहा, यह बात किसी और दिन बताऊंगा। अभी मैं आपको बताने जा रहा हूं रमज़ान के दौरान जाम मस्जिद में भ्रमण की मेरी यादें।

अभी हाल ही में खुद इफ्तारी करने और बाकी रोज़ेदारों को इफ्तारी करवाने जामा मस्जिद गया था। बा-जी का काफी दिनों से इरादा था कि रोज़ेदारों को इफ्तारी कराई जाए फिर हमने प्लान बनाया कि क्यों ना जामा मस्जिद चलें।

जामा मस्जिद पर इफ्तारी करने की बात ही कुछ और है। पुरानी दिल्ली की शाम के तो किस्से ही निराले हैं। वहां के बाज़ार, देर रात तक भीड़-भाड़, खाने-पीने के निराले मुतंजन और मुगलई गोश्त, अहाहा! नाम लेते ही लार टपकने लगती है।

खैर, हम जामा मस्जिद की ओर चल दिए। पुरानी दिल्ली जाने के लिए गाज़ियाबाद से कई रास्ते हैं मगर हमलोग वसुंधरा से आनंद विहार और गीता कॉलोनी होते हुए ही जाते हैं। इस रास्ते से थोड़ा ट्रैफिक कम मिलता है और टाइम भी बच जाता है। मेट्रो से भी जाया जा सकता है मगर इसमें वक्त बहुत खराब होता है और अगर आपका पिकनिक जैसा कोई इरादा है, तो अपनी गाड़ी ही सबसे बेस्ट है। खाने-पीने का सामान, दरी या चादर बिछाने के लिए और कुछ छोटे मोटे बर्तन। यह सब मेट्रो में ले जाते हुए अच्छा भी नहीं लगेगा और मेहनत भी काफी होगी।

ब्रिज मोहन चौक से जामा मस्जिद की ओर जाने पर बाईं ओर कस्तूरबा हॉस्पिटल है। (जिसे वहां आम तौर पर मछली वाला अस्पताल भी कहा जाता है।) आज से लगभग 20 साल पहले इसी सड़क पर मछली मंडी लगती थी। इसी वजह से इसका नाम मछली वाला अस्पताल पड़ गया।

कुछ दूर आगे बढ़ने पर बाईं तरफ एक गली में पार्किंग है। यहां गाड़ी खड़ी करने के बाद असली सफर शुरू होता है। चंद कदमों की दूरी पर है जामा मस्जिद। कुछ ही दूर होने के बावजूद भी यह दूरी काफी अधिक लगती है।

फोटो साभार: Shaikh Hilal

मस्जिद की तरफ जाते हुए बाईं ओर मुगलई तंदुरी फूड के ढाबे हैं। पार्किंग से लेकर मस्जिद के गेट न. 1 तक आपको शानदार बादशाही खुशबू आएगी। मेरे लफ्ज़ों में कहें तो यह खुशबू नहीं है, “वह दिलनशीं है जां-निसार है जन्नत की हूर है।” जैसे वह बुला रही हो आपको अपनी तरफ, अपने हुस्न के जाल में फंसाने के लिए, लालच दे रही हो अपनी नशीली आंखों का। वह नज़ारा इतना शानदार होता है जैसे कोई आपके गले में अपनी बाहों का हार डाल रही हो और कसमें देकर कर रही हो, “आओ डूब जाओ इस लजीज़ खाने के समंदर में।”

अब मुझे ज़रा कोई बताए कि कैसे कोई इससे बच सकता है, खासकर जो मांसाहार का शौकीन हो? मगर अल्लाह ने हमें इन तीस दिनों का वह तोहफा दिया है, जिसमें एक रोज़ेदार इन्हीं गुनाहों से अपने आप को बचाता है, हर ख्वाहिश मार लेता है। जिस खाने से बचना मुश्किल हो उससे अपना मुहं फेर लेता है।

इन हमलों से बचते-बचाते हम पहुंच गए हैं गेट न. 1 जामा मस्जिद। गेट की तरफ चेहरा करके खड़े होने पर पीछे की तरफ मटिया महल है। वही मटिया महल जहां मशहूर ‘करीम’ की दुकान है। जिसके दीवाने सिर्फ दिल्ली या हिंदुस्तान में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में हैं। उस सड़क पर बाईं ओर 2 दुकानों के बाद ‘अल जवाहर’ है, जिसके बगल से एक पतली सी गली के अंदर है ‘करीम’ लेकिन सच पूछिए तो मुझे अल-जवाहर का ही खाना पसंद है क्योंकि करीम सिर्फ नाम का रह गया है।

मस्जिद 25-30 फीट की ऊंचाई पर है और वहां तक पहुंचने के लिए करीब 30 सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं। रमज़ान का महीना हो और वक्त हो इफ्तार का तो मस्जिद की रौनक देखते ही बनती है। मस्जिद के अहाते में सैकड़ों परिवार रोज़ा खोलने के लिए बैठे हैं। सबके चेहरों पर एक खुशी, सुकून और नूर है।

फोटो साभार: Twitter

वैसे यहां सिर्फ मुसलमान ही नहीं, अन्य धर्मों के लोग भी मिल जाएंगे। कुछ जो अपने मुस्लिम दोस्तों के साथ इफ्तार करने आते हैं, कुछ यहां का माहौल देखने तो कुछ मेरी तरह अपनी यादें बनाने ताकि अपने-अपने अंदाज में यहां का खूबसूरत लम्हा बयां कर सकें। यही खूबसूरती है इस्लाम की जहां हर मज़हब के लोग अकेला या गैर महसूस नहीं करते।

अन्य धर्म स्थलों की तरह आपके कपड़े कोई नहीं देखेगा। खासतौर पर लड़कियों के तो बिल्कुल भी नहीं। उनके पहनावे की वजह से उन्हें कोई अंदर जाने से नहीं रोकेगा। उन्हें पीरियड्स हैं या नहीं, इससे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। मुस्लिम लड़कियां भी बेधड़क वेस्टर्न कपड़े पहनकर यहां आ सकती हैं।

खैर, आहाते में हमने अपने लिए जगह बनाई और बैठ गए। एक-एक करके हमने वुज़ू किया। अब हमें इफ्तारी बांटनी थी। इफ्तारी के हमने पैकेट्स बना लिए थे ताकि बांटने में आसानी हो। एक थैली भाई और बाजी ने ली और एक मैंने और अब्बू जी ने। हमने बांटना ही शुरू किया कि सारे पैकेट्स कुछ पल में ही खत्म हो गए।

थोड़ा सा बुरा लगा कि सभी को हम पैकेट्स नहीं दे पाएं और सोचा कि इंशाल्लाह अगली बार ज़रूर सभी को भेज पाएंगे। जैसे-जैसे इफ्तार का वक्त करीब आता जाता है, माहौल खामोश और इबादति हो जाता है। सब के हाथ दुआ मांगने के लिए उठ जाते हैं, “अल्लाह तुने हमे यह हलाल रिज़्क अता फरमाया तेरा लाख-लाख शुक्र है और ऐसे ही दुनिया के हर इंसान को तू रिज़्क अता फरमा। आज इस मस्जिद में हर मज़हब के लोग जिस तरह से एक ही जगह बैठ कर खाना खा रहे हैं, हमारे मुल्क और दुनिया में ऐसी ही मोहब्बत और भाई-चारा पैदा कर।”

फोटो साभार: Shaikh Hilal

कुछ ही देर में इफ्तारी हुई और इफ्तार करके मर्द नमाज़ पढ़ने मुख्य मस्जिद की और चल दिए जहां इमाम नमाज़ पढ़ाते हैं क्योंकि मर्दों को जमात के साथ नमाज़ पढ़ना फर्ज़ है मगर औरतों पर ऐसी कोई पाबंदी नहीं है। वे वहीं अपनी जगह पर ही नमाज़ अदा करने लगीं। इमाम खाने के पास जहां इमाम नमाज़ पढ़ाते हैं, वह जगह वाकई मुगलई सल्तनत का एक बेजोड़ नमूना है।

जब आप नमाज़ पढ़ने के लिए खड़े होते हैं, तब महसूस होता है यहां कभी शाहजहां भी खड़ा हुआ होगा। ठीक इसी जगह पर उसने भी नमाज़ पढ़ी होगी और भी कई बादशाह सालों तक यहीं नमाज़ पढ़ते होंगे। उनकी रूहें कितनी खुश होती होंगी यह देखकर कि उनकी बनाई हुई इमारत में आज भी नमाज़ होती है। लोग गाहे-बगाहे उन्हें याद कर ही लेते हैं।

मैं जैसे ही नमाज़ पढ़कर बाहर निकला तो मेरी बहन ज़िद्द करने लगी कि मुझे भी मस्जिद के अंदर जाकर फोटो खिंचवानी है। मैंने हल्के लहज़े में मना किया तो वह ज़िद्द करने लगी फिर मैं मान गया। पहले उसने वहां फोटो खिंचवाई जिस चबूतरे पर मुअज्ज़िन अज़ान देता है। वह बेहद ही खूबसूरत चबूतरा है।

अब वह ज़िद्द करने लगी कि मुझे इमाम खाने के पास जा कर फोटो खिंचवानी है, जहां एक बड़ा सा झूमर टंगा हुआ है। आमतौर पर मस्जिद में लड़कियों का जाना मना होता है। खासकर इमाम वाली जगह तो बिल्कुल भी नहीं मगर मैं ले गया उसे वहां भी। किसी ने कुछ नहीं कहा और वहां पर काफी लड़कियां फोटो खिंचवाने पहुंच गईं।

फोटो साभार: Shaikh Hilal

यह वही मज़हब है जिसमें औरतों को बुर्का पहनना सिखाया गया मगर वक्त से साथ बदलना भी। हमारे काफी गैर-मुस्लिम लोगों में यह बात फैली हुई है कि लड़कियां मस्जिद में नहीं जाती हैं। उनसे मैं कहना चाहूंग कि वे यहां आकर देखें कि कैसे लड़कियां उस सोच को बदल रही हैं।

लड़कियां बिना डरे बिना हिचकिचाहट के मस्जिद में घूम भी रही हैं और पोज़ बना-बनाकर फोटो भी खिंचवा रही हैं। सलाम उन मर्दों को भी जो इन्हें आगे बढ़ने से रोक नहीं रहे हैं, बल्कि आगे बढ़ने में उनका साथ दे रहे हैं क्योंकि उन्हें पता है कि अब लड़कियों को रोका नहीं जा सकता, उन्हें झुकाया या तोड़ा नहीं जा सकता।

मैं अपनी बहन की फोटो खींच रहा था तब एक 14-15 साल की लड़की पर नज़र पड़ी। वह भी बार-बार पोज़ बनाती और अपने डैड पर चिड़चिड़ाती कि आप तो ठीक से क्लिक ही नहीं कर पा रहे, सारे फोटो बेकार कर दिए। डैड भी बेचारे बेटी को समझाते कि बेटे अब सही आएगी फोटो मगर वह फिर नाकाम हुए। तब मैंने कहा, “लाइए अंकल बहन की फोटो मैं खींच देता हूं।”

मेरी थोड़ी सी कोशिश से उस लड़की के चेहरे पर खिलखिलाहट आ गई और मैंने सोचा कि आज एक बार फिर किसी के चेहरे पर मुस्कान बिखेर दिया। यह एक छोटा सा सफर मुझे याद रहेगा कि कैसे रमज़ान के दौरान हर रोज़ेदार अपने आप को गुनाहों से बचाता है।

काश यह सिलसिला पूरे साल हो। बिना रमज़ान के भी मैं ऐसे ही अपनी ख्वाहिशों पर काबू रखूं और लड़कियां भी इसी तरह स्टीरियोटाइप्स तोड़ती रहें। हम खुशकिस्मत हैं कि हमारी बहन है। भाईयों का भी यही फर्ज़ है कि वे अपनी बहनों का साथ दें क्योंकि कभी-कभी माँ-बाप रूढ़िवादी हो जाते हैं।

Exit mobile version