प्रजातंत्र के इस महापर्व में भाषणों के ज़रिये वैमनस्यता की राजनीति की जा रही है, जो हमारे देश के आने वाले भविष्य के लिए कितना खतरनाक और विध्वंसक होगी, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा लेकिन उससे भी अधिक चिंता की बात है डर का माहौल बनाकर लोगों के दिमाग से खेलना।
ऐसा लगता है जैसे इंसान, इंसान नहीं, राजनेताओं के कुर्सी तक पहुंचने की सीढ़ी मात्र बनकर रह गया है, जहां सत्ता के लोभी आम इंसान के सपनों, आशाओं और इच्छाओं को कुचलकर पहुंचना चाहते हैं।
ध्रुवीकरण का नया तरीका
लगभग सभी पार्टियां और राजनेता इस देश के नागरिकों को एक आशा की किरण देने के बजाय डर का माहौल दे रहे हैं। कोई पाकिस्तान और आतंकवाद के नाम पर, कोई तानाशाही के नाम पर तो कोई अल्पसंख्यकों के दमन के नाम पर। बार-बार एक ही बातों को दोहराकर झूठे राजनीतिक प्रोपेगंडा को सच और यकीन में बदलने की कोशिश की जा रही है।
हमें बार-बार याद दिलाया जा रहा है कि हम खतरे में हैं। डर को केंद्र में रखकर वोट पाने की यह बहुत अच्छी तकनीक हो सकती है मगर इस डर का हमारे अचैतन्य मानस पटल पर गहरा और नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। हमारी सोच, मनोभाव और हमारा व्यवहार एक-दूसरे के प्रति बड़े भयानक रूप से बदलने लगता है। राजनेता जब डर दिखाकर वोट मांगने लगें तो समझिए आपके मुद्दों के साथ मज़ाक है।
जब राजनेता हमें बताते हैं कि हम खतरे में हैं तो हमारे दिमाग में अपनी जान का डर और अपनों के खोने का डर सताने लगता है। डर के प्रभाव में हमारा सांस्कृतिक जुड़ाव (धर्म, जाति, विचारधारा) कई गुना बढ़ जाता है। बहुत सारे शोध ने यह साबित किया है कि मरने का डर हर साझा सांस्कृतिक समुदाय के मेंबर को इमोशनली और फिज़िकली एक-दूसरे के करीब लाता है।
इसकी वजह से जिस समुदाय से हमारा जुड़ाव नहीं होता उससे द्वेष और खतरे की भावना पनपने लगती है, जो हमें वैसे लोगों को वोट करने के लिए मोटिवेट करता है, जो हमारे जैसे हों। ऐसी स्थिति में लोग यह बिल्कुल नहीं देखते कि उस व्यक्ति की पॉलिसी या ऑब्जेक्टिव क्या है। यह एक प्रकार का ध्रुवीकरण है।
हीनता के रोग में किसी के अहित का इंजेक्शन बड़ा कारगर होता है
आत्मसम्मान और कॉन्फिडेंस मौत के डर को बहुत हद तक कम करने की क्षमता रखता है मगर जब एक व्यक्ति को अच्छी ज़िन्दगी नहीं मिल पाती, उन्हें गरीबी और भुखमरी मिलती है और बेहतर ज़िंदगी की आशा बड़ी क्षीण नज़र आती है। ऐसी स्थिति में लोग हीन भावना से ग्रसित हो जाते हैं।
जैसा कि हरिशंकर परसाई ने भी कहा है, “हीनता के रोग में किसी के अहित का इंजेक्शन बड़ा कारगर होता है।”
इस तरह से इन भाषणों का असर एक शांत और अहिंसक प्रवृति के व्यक्ति को भी उग्र सोच और हिंसक प्रवृति का बना देता है। चूंकि यह प्रक्रिया अचेतन है, इसलिए लोगों को महसूस भी नहीं होता कि उनमें कितना बदलाव आ गया है। मैंने कितने ही लोगों में यह उग्र बदलाव होते देखा है।