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लंबे विवाद के बाद अब 24 मई को रिलीज़ होगी फिल्म ‘पीएम नरेंद्र मोदी’

नरेन्द्र मोदा

नरेन्द्र मोदा

लंबे विवाद के बाद आखिर ओमुंग कुमार की बहुचर्चित फिल्म पीएम नरेंद्र मोदी को रिलीज़ डेट मिल ही गई। पीएम मोदी के जीवन पर आधारित यह बायोपिक पहले 11 अप्रैल को रिलीज़ होने वाली थी लेकिन चुनावी माहौल को देखते हुए विपक्ष ने इसे आदर्श अचार सहिंता का उलघन बता कर काफी हंगामा किया।

जब कोर्ट ने संतोषजनक सुनवाई नहीं की तो चुनाव आयोग ने हस्तक्षेप करते हुए चुनाव प्रक्रिया संपन्न होने तक इसकी रिलीज़ पर रोक लगा दी। अब यह फिल्म मतगणना और चुनाव के नतीजों की घोषणा के ठीक एक दिन बाद यानि 24 को रिलीज़ होने जा रही है।

यह फिल्म घोषणा के साथ ही ना सिर्फ चर्चा में आई, बल्कि विवादों में भी घिरी रही। सबसे बड़ा सवाल था कि मोदी जैसे विषय पर बन रही फिल्म को इतनी आनन-फानन में क्यों बनाया गया?

फिल्म के ज़रिये मतदाताओं को भटकाने का आरोप

काँग्रेस सहित सभी विपक्षी दलों ने आरोप लगाया कि यह फिल्म चुनाव के दौरान मतदाताओं को भटकाने के उद्देशय से बनाई गई है और जिस गति से घोषणा के बाद यह फिलम रिलीज़ के लिए तैयार भी हो गई, यह कहीं ना कहीं विपक्ष के आरोपों पर मुहर भी लगाता है।

साल के शुरुआत में फिल्म की घोषणा हुई और कुछ ही दिनों में पहला पोस्टर भी जारी कर दिया गया और उसके बाद जनवरी के अंत में इसकी शूटिंग शुरू हुई। आपको जान कर आश्चर्य होगा कि जिस फिल्म कि शूटिंग जनवरी में शुरू हुई, वह मार्च तक बन कर तैयार हो गई और तो और 11 अप्रैल को रिलीज़ भी होने वाली थी।

फोटो साभार: Getty Images

शायद आम लोग इस प्रक्रिया को ना समझ पाए लेकिन जो फिल्म निर्माण और प्रोडक्शन से जुड़े है, वे इस बात को अच्छे से समझ सकते हैं कि एक भव्य फिल्म के कांसेप्ट से लगा कर, स्क्रिप्टिंग, शूटिंग, एडिटिंग और पोस्ट प्रोडक्शन में कितना समय लगता है और इतना ही नहीं, जब मुख्य किरदार में मोदी हो तो ज़िम्मेदारी और बढ़ जाती है।

रिलीज़ में इतनी जल्दबाज़ी क्यों?

ऐसे में इतनी जल्दबाजी की आवश्यकता ही क्या थी? पोस्टर की बात करें तो नरेंद्र मोदी के किरदार में विवेक आनंद ओबेरॉय कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाए और यही हाल कुछ ट्रेलर का भी था। फिल्म इतनी जल्दबाज़ी में बनाई गई कि विवेक को अपने किरदार को निभाने के लिए तैयारी का प्रयाप्त समय ही नहीं मिला।

अभिनय की बात करें तो ट्रेलर में वह मोदी के किरदार के साथ न्याय करने में असमर्थ नज़र आ रहे हैं, ना आवाज़ और ना ही उनका अंदाज़ दर्शको को मोदी की याद दिला पा रहा है। अब बात कॉन्सेप्ट की करें तो फिल्म के ट्रेलर से ही यह प्रतीत हो जाता है कि कहानी में कुछ नया है ही नहीं।

पिछले पांच वर्षो में जो कुछ मीडिया दिखा रहा है और जो कुछ जनता मोदी के बारे में पहले से ही जानती है, सिर्फ उन्हीं बातों को फिल्म के रूप में पिरो कर परोसा जा रहा है। ऐसे में अब सवाल यह उठता है कि मनोरंजन के माध्यम से भाजपा का इस तरह से प्रचार करना क्या सही है?

मनोरंजन के ज़रिये जनता को गुमराह करने का प्रयास

पिछले लोकसभा चुनावो में सोशल मीडिया को माध्यम बना कर जनता के बीच अपनी विचारधारा का प्रचार करने वाली भाजपा इस बार एक कदम और आगे बढ़ गई। इस बार मनोरंजन के ज़रिये जनता को गुमराह करने का प्रयास किया गया, जिसके चलते काँग्रेस के खिलाफ फिल्म निर्माण के साथ ही टीवी सीरियल और वेब सीरीज पर भाजपा सरकार की योजनाओं का प्रचार प्रसार भी किया गया।

नरेंद्र मोदी के किरदार के साथ विवेक ने न्याय नहीं किया

बॉलीवुड में बायोपिक के चलन पर प्रकाश डाले तो चाहे फोगाट बहनों पर बनी दंगल हो या फिर भाग मिल्खा भाग या संजय दत्त की बायोपिक संजू हो, ये वो फिल्में हैं जिन्होंने बॉक्स ऑफिस पर सफलता के झंडे गाड़े। इन फिल्मों की सफलता का मुख्य कारण अपने विषय के अनछुए रोचक पहलुओं से दर्शको को रूबरू करना रहा।

फोटो सभार: Getty Images

इसके अलावा किरदार को पर्दे पर जीवंत दर्शाने के लिए अभिनेताओं ने विशेष तैयारी भी की। दंगल में उम्र के अलग-अलग पड़ाव को नेचुरल दिखाने के लिए आमिर खान ने पहले वजन बढ़ाया फिर घटाया भी, इसी तरह फरहान अख्तर ने भी मिल्खा सिंह की भूमिका के लिए लाजवाब बॉडी ट्रांसफॉर्मेशन किया।

रणबीर कपूर ने भी संजय दत्त के किरदार में ढलने के लिए जो मेहनत की, वह परदे पर निखर कर आई, जिसकी सबने सराहना की। ऐसे में युवा और फिट विवेक, 68 वर्ष के नेता नरेंद्र मोदी के किरदार के साथ कैसे न्याय कर सकते है? मेकअप के ज़रिय उनको बुज़ुर्ग तो दिखाने का प्रयास किया गया है लेकिन फिटनेस छुपाये नहीं छुप रही।

विवेक ही क्यों?

सच यह भी है कि जितने फिट विवेक हैं, उतने फिट मोदी उम्र के किसी भी पड़ाव में नहीं रहे हैं। उनका इस फिल्म के मुख्य किरदार में होना ही अपने आप में एक बहुत बड़ी पहेली है, क्योंकि बॉलीवुड मंजे हुए कलाकारों से भरा हुआ है, जो मोदी की भूमिका बखूबी निभा सकते थे फिर विवेक ही क्यों?

यदि किसी कारणवश विवेक को ही लेना पड़ा, तो उन्हें तैयारी के लिए समय क्यों नहीं दिया गया? ऐसे कई सवाल इस फिल्म से जुड़े हैं, जिनके जवाब देने में ना तो भाजपा को दिलचस्पी है और ना ही फिल्म के निर्माता-निर्देशक को। विपक्ष ने जब चुनाव के दौरान फिल्म पर रोक लगाने का मुद्दा उठाया तो भाजपा के कार्यकर्ता बौखला गए और इस बात पर सत्ताधारी पार्टी और विपक्ष ने जम कर हंगामा भी किया।

फोटो साभार: Getty Images

चुनाव आयोग के फैसले के बाद अचानक से इस फिल्म की चर्चा ऐसे बंद हुई जैसे मानो कोई मिशन फेल हो गया है और लोगों का अब मन ही उठ गया हो। विवेक ओबेरॉय जो इस फिल्म के ज़रिय अपने डगमगाते बॉलीवुड करियर को पटरी पर लाने का प्रयास कर रहे हैं, वो यह कैसे भूल गए कि वह दर्शको के लिए नए नहीं है।

बहरहाल, अभी सब चुनाव में व्यस्त हैं लेकिन यह देखना दिलचस्प होगा कि यह फिल्म 24 मई को भाजपा सरकार की जीत की खुशी मानती है या फिर विदाई का गम?

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