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क्यों हर शहर वालों को ज़रूरत है कुमाऊं का यह मेला देखना

चैती मेला

चैती मेला

एक अर्से बाद इस साल गाँव जाकर चैत का मेला देखने का मौका मिला। यह मेला बैशाख के एक गते को 14 अप्रैल के दिन मनाया जाता है। अपने बचपन के दिन याद करते हुए मैं सोच रहा था कि समय के साथ समाज में कितना बदलाव आ गया है। 10 साल पहले लोगों में जैसा उत्साह हुआ करता था, लगता है जैसे वह आज खत्म हो चुका है।

यह मेला हमारी खेती से जुड़ा हुआ है। इस दिन गाँव के सभी लोग अपने-अपने खेतों से गेहूं की बाली, सजेंन के फूल और नई फसल से बने पकवान लेकर गाँव के मंदिर में इकट्ठा होते हैं।

मंदिर के पास ही एक ओडा (एक पत्थर जिसे ज़मीन में गाड़ दिया जाता है) की देवी के रूप में पूजा की जाती है और मन्नत मांगी जाती है कि हे देवी इस वर्ष भी हमारी फसल की रक्षा करना और हमारे घरों को धन धान्य से भर देना। सभी सामूहिक रूप से गाना गाते हैं, “हे देवी फुल चडुला फुला सजेंन का फुला।”

इसके बाद खीर-पूड़ी का एक भाग वहां चढ़ाया जाता है और बाकि सभी लोग आपस में मिल-बांट कर खाते हैं, बचे हुए फूल और गेहूं की बालियों का कुछ हिस्सा गाँव के सामुहिक जल श्रोत पर चढ़ाया जाता है और कुछ, वापस जाकर घर की दहलीज पर रख दिया जाता है।

ओडा।

शाम को गाँव के सभी लोग किसी एक घर के आंगन में जमा होते हैं और वहीं से गाते-बजाते हुए मेले में जाते हैं। दूर-दराज़ से मेला देखने आए लोग भी इसमें जुड़ जाते हैं। इसी समय बहू-बेटियां भी अपने-अपने मायके में परिवारजनों से मिलने आती हैं, काफी समय बाद एक दूसरे से इसी बहाने मिलना भी हो जाता है।

पुराने दिन बरबस याद आ गए

मुझे याद है जब मैं छोटा था तो बड़े, छोटों को मेले के लिए जेब खर्च दिया करते थे। उस समय अगर 20 रुपए भी जमा हो जाता तो वो बहुत होता था। हमें इस दिन का बेसब्री से इंतज़ार रहता था। इसी दिन सभी घरों में खासकर कि बच्चों के लिए नए कपड़े बना करते थे, चाहे अमीर हो या गरीब। दर्जी की दुकानों पर काफी भीड़ हुआ करती थी, एक महीने पहले कपड़े देने के बाद ही वे समय पर मिल पाते थे।

ज़्यादातर लोग, खासकर कि मध्यम और निचले वर्ग के लोग अपने बच्चों के लिए नीले रंग की पैंट और आसमानी रंग की शर्ट सिलवाते थे। ये हम सबकी स्कूल-ड्रेस भी हुआ करती थी, जो मेले और साल भर स्कूल में पहनने के काम आती। उस समय जींस-टीशर्ट खरीदना काफी मुश्किल होता था, बमुश्किल ही उतने पैसे जुट पाते थे, इसलिए वह ड्रेस पहनकर मेले जाने में भी काफी मज़ा आता था।

सुबह ही घर से निकल जाना, देर रात जब तक सारे फेरी वाले बाज़ार से चले ना जाएं तब तक घूमना, सॉफ्टी, आईसक्रीम, जलेबियां और भुजे की मिठाई जिसे पेठा भी कहा जाता है, खाना और अपने घरों के लिए भी लाना। वह समय ऐसा था जब हमारे ग्रामीण बाज़ारों में हमेशा यह सब चीज़ें आसानी से उपलब्ध नहीं हुआ करती थी।

मेला

आज हर चीज़ बाज़ार में आसानी से उपलब्ध हैं लेकिन बाज़ारीकरण के इस दौर में कई चीज़ें हम खोते जा रहे हैं, जिसके लिए पलायन भी एक मुख्य वजह है। आज भी हमारी सरकारों का इस ओर ध्यान ही नहीं है। आज दिन-प्रतिदिन गाँव के गाँव खाली होते जा रहे हैं।

रोज़गार की तलाश में शहरों का रूख करते युवा

बमुश्किल ही युवा आज गाँवों में देखने को मिलेंगे, सभी रोज़गार की तलाश में शहरों की ओर भाग रहे हैं, साथ-साथ उनके परिवार भी। नहीं जाएगे तो करेंगे क्या? खेती तो पहले ही खत्म हो चुकी है, ऊपर से पानी भी खत्म होता जा रहा है।

एक वर्षों पुरानी कहावत आज एकदम सटीक बैठती नज़र आती है कि पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी, पहाड़ के कभी काम नहीं आती। उत्तराखंड के अधिकतर त्यौहार खेती-किसानी से ही जुड़े हुए हैं, खत्म होते खेती की इस दौर में यह सब भी खत्म होते जा रहे हैं और हम सभी शहरों में बैठकर केवल सोशल मीडिया और मोबाइल के ज़रिये एक दूसरे को बधाई दे रहे हैं।

गुमनाम हो सकते हैं ये मेले

वह दिन दूर नहीं जब ये मेले और त्यौहार केवल औपचारिकता मात्र रह जाएंगे। इनमें गाऐ जाने वाले झोडा-चांचरी और लोकगीत केवल हमें मोबाइल और यूट्यूब में ही सुनने को मिलेंगे। आज उत्तराखंड के गाँवों के आस-पास बाहरी लोग आकर बसने लगे हैं। वे अपने फार्महाउस और होटल बना रहे हैं।

वहीं, गाँवों के लोग शहरों और तराई क्षेत्रों में अच्छी शिक्षा और रोज़गार के लिए जा रहे हैं। हमारी राज्य सरकारें जिस तरह से बाहरी लोगों को ज़मीनें दे रही हैं, उसी से यह अंदाज़ा लगाया जा सकता कि इनके लिए गाँवों में रहने वाले लोग ज़्यादा मायने नहीं रखते हैं।

नोट: लेखक महीपाल “मोहन” दिल्ली में रहते हैं और ‘सोसाइटी फॉर रूरल अर्बन एंड ट्राइबल इनिशिएटिव’ (SRUTI) के साथ काम कर रहे हैं।

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