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“2 साल डिप्रेशन से लड़ने के बाद अब मैं खुद से प्यार करना सीख गई हूं”

शारदा दहिया

शारदा दहिया

हेल्लो यूथ की आवाज़। शुक्रिया मेरी आवाज़ और मेरा सब्र बनने के लिए। जिसने मुझे मेरी लिखने की ताकत से रूबरू कराया। मैं आज लगभग डेढ़ से दो साल बाद यहां हूं। उसके पहले मैंने एक लड़ाई लड़ी जिसमें मैंने खुद को जीतना सिखाया।

मेरे लिखने की वजह से एग्ज़ाम क्लियर नहीं हो रहे थे?

मैं लिखती थी तो घरवालों को लगता था कि मेरे एग्ज़ाम और नौकरी क्लियर ना होने की वजह यहां लिखना है, जिसके बाद मैंने लिखना छोड़ दिया और अपनी पढ़ाई पर फोकस किया। दिन-रात बस पढ़ने और लाइब्रेरी, किताबें और अखबार में गुज़र गए।

मैथ्स के साइन थीटा से कंप्यूटर की टू डी (2D) तक कुछ नहीं छोड़ा मगर लगातार पढ़ने के बाद भी मैं पास नहीं हो पाई फिर नेट के एग्ज़ाम में चार नंबरों से रह गई और उससे पहले दो नंबर से। कितने सारे इंटरव्यू दिए मगर पास नहीं हो पाई।

रिश्तेदारों के सवाल डराते थे

मैं थक गई थी। किसी दोस्त या रिश्तेदार के किसी भी फंक्शन का हिस्सा होना मैंने छोड़ दिया था क्योंकि उनका यह सवाल, और आजकल क्या कर रही हो?” या फिर “शादी कब कर रही हो?” मुझे डराते थे।

एक दोस्त जो अजीज़ लगता था, जिससे उम्मीद थी कि वह मुझे ज़रूर समझेगा, उसने उसी वक्त आकर कहा कि मुझे तुम अच्छी लगती हो, सुलझी हुई हो मगर तुम्हारी स्किन जली हुई है इसलिए मेरी माँ को तुम पसंद नहीं हो तो हम आगे से टच में ना रहें तो बेहतर है।

उस वक्त जो एहसास-ए-कमतरी हुई वह किसी की ज़िन्दगी में शामिल होने की नहीं थी। बस दिल दुःख गया था कि मेरी स्किन इतनी ज़्यादा अहम थी कि उसके आगे मेरा यूनिवर्सिटी टॉपर होना, राइटर होना और खुश मिज़ाज होना कुछ भी काम नहीं आया? मुझे मेरे करीबी दोस्त ने भी इतना ही जज किया। उस एहसास-ए-कमतरी को वक्त ने खामोशी में लपेट कर अवसाद का शक्ल दे दिया।

खुद को खत्म करने का ख्याल आया

कई बार ख्याल आया कि खुद को खत्म कर दूं। एक बार पूरी रात बाथरूम में बैठ कर गुज़ारी। हाथ में चाकू था और पीछे से घरवालों की नसीहतें कि पढ़ाई पर ध्यान दो। मैं किसी से भी नहीं कह पाई कि बस एक कंधा चाहिए यहां से निकलने के लिए। कितने ही हफ्ते और महीने निकले लेकिन मैं नहीं कह पाई कि मुझे आपकी ज़रूरत थी माँ।

लड़ाई मुश्किल ज़रूर थी मगर नामुमकिन नहीं थी। बस थोड़े सहारे और साथ की ज़रूरत थी। मैं जान गई हूं कि मेरे अख्तियार की आखिरी मंज़िल ही मैं हूं, नकार दिया है हर उस सह को जिसे मैं का गुमान है और हम की कमतरी।

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