भारतीय राजनीति में क्षेत्रीय दलों का अपना ही महत्व है। आमतौर पर देखा जाता है कि हर प्रदेश में एक-दो ऐसे छोटे-बड़े क्षेत्रीय दल होते ही हैं जो प्रादेशिक राजनीति को अपने-अपने तरीके से प्रभावित करते हैं। मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों की बात छोड़ दें तो ज़्यादातर राज्य जैसे-पश्चिम बंगाल में तृणमूल काँग्रेस, असम में असम गण परिषद, बिहार में राजद और जदयू, झारखण्ड में झारखण्ड विकास मोर्चा और झारखण्ड मुक्ति मोर्चा, उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा, पंजाब में अकाली दल, महाराष्ट्र में शिवसेना, उड़ीसा में बीजू जनता दल आदि राज्यों के राजनैतिक उथल-पुथल में अहम भूमिका निभाते हैं।
जेपी आंदोलन और नये नेताओं का उदय
बिहार की राजनीति जयप्रकाश नारायण के ज़माने से ही अलग रूप ले चुकी है। हालांकि, यह भी एक सत्य है कि उस दौर की राजनीति में और इस दौर की राजनीति में ज़मीन-आसमान का अंतर है। हां, लेकिन इतना ज़रूर है कि वर्तमान राजनीति की पौध उसी दौर के राजनैतिक आंदोलन की देन है।
1974 में हुए जेपी आंदोलन ने सारे देश में नए नेताओं को एक नई पहचान दी। इसी दौर में बिहार में एक छात्र नेता हुआ करता था, जो अपनी अक्खड़ और भदेस बोली-भाषा और मसखरे अंदाज़ के लिए पूरे पटना विश्वविद्यालय में मशहूर था। वह नेता था, लालू प्रसाद यादव। लालू पटना में वेटनरी कॉलेज के सर्वेंट क्वार्टर में अपने बड़े भाई के साथ रहा करते थे। कानून के छात्र थे तो राजनीति में दिलचस्पी होनी ज़ाहिर सी बात थी। लालू भी इसी आंदोलन में कूद पड़े। साथ में कूदे, नीतीश कुमार, सुशील कुमार मोदी और राम विलास पासवान।
बिहार में क्षेत्रीय दलों की राजनीति की शुरुआत
समय बदला और समय के साथ लालू भी बदले। 1990 में बिहार के मुख्यमंत्री बने और 1997 में जनता दल से अलग होकर एक नई पार्टी बनाई, राष्ट्रीय जनता दल। यह बिहार की राजनीति में एक नए तरह के प्रयोग की शुरुआत थी। यही वह दौर था, जब शिबू सोरेन ने झारखण्ड मुक्ति मोर्चा बनाकर बिहार को तोड़कर एक अलग राज्य बनाने के आंदोलन पर ज़ोर दिया था। लालू का मुख्य वोट बैंक यादव और मुस्लिम जनाधार बना। इसी बीच लालू चारा घोटाला मामले में जेल भी गए।
राम विलास पासवान ने भी जनता दल से अलग होकर 2000 में अपनी नई पार्टी बनाई, लोक जनशक्ति पार्टी। इसी दौर में 2003 के मध्य में नीतीश कुमार भी समता पार्टी और जनता दल का विलय कराकर जनता दल (यूनाइटेड) बनाने में सफल रहे थे। इसी के साथ शुरुआत हुई बिहार में क्षेत्रीय दलों के ध्रुवीकरण की। लालू पहले ही यादव और मुस्लिम मतदाताओं को गोलबंद कर चुके थे, पासवान और दलित वोटर लोजपा के साथ चले गए और कुर्मी तथा अन्य जातियां जैसे, भूमिहार, लाला और राजपूत नीतीश कुमार का साथ देने लगी। ब्राह्मण और बनिया जाति के लोग भाजपा के समर्थन में लगे हुए थे। कॉंग्रेस उस दौर में बिहार की राजनीति में अपना जनाधार खो चुकी थी। कॉंग्रेस के परंपरागत वोटर भी उसका साथ छोड़कर क्षेत्रीय दलों को समर्थन देने लगे थे।
1997 में राजद बनने के बाद से ही बिहार में मुख्यमंत्री का पद किसी ना किसी क्षेत्रीय दल के नेता के पास ही रहा है। 1991 में जनता दल की तरफ से मुख्यमंत्री रहे लालू यादव की पत्नी राबड़ी देवी 1997 -98 से 2005 तक मुख्यमंत्री रहीं और उसके बाद से लगातार जदयू के नीतीश कुमार ही यहां सीएम रहे हैं।
2019 के लोकसभा चुनावों में दो राजनैतिक धड़े एक-दूसरे के सामने थे, एनडीए और महागठबंधन। आइए देखते हैं इस लोकसभा चुनाव में एनडीए और महागठबंधन में शामिल क्षेत्रीय दलों की ओर-
एनडीए-
ऐसे तो मोदी समर्थकों की सुने तो वे यही कहते नज़र आएंगे कि मोदी शेर हैं और अकेला आएगा पर बिहार आकर शायद बात कुछ बिगड़ जाती है। यहां भाजपा 40 सीटों में से मात्र 17 सीटों पर लड़ी, बची हुई सीटों में से 17 सीटों पर जदयू और 6 पर लोजपा ने अपने-अपने उम्मीदवार खड़े किये।
सबसे पहले बात लोजपा की
लोजपा ने यह चुनाव भाजपा के साथ लड़ा है और मात्र 6 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे हैं। पिछली बार लोजपा के 7 में से 6 उम्मीदवार चुनकर लोकसभा पहुंचे थे। चिराग पासवान जमुई सीट से एक बार फिर खड़े हैं और मज़बूत स्थिति में नज़र आ रहे हैं। पिता राम विलास के साथ जिस तरह की राजनैतिक सूझ-बूझ संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष के रूप में चिराग ने दिखाई है, वह वाकई कबीले-तारीफ है। राजनैतिक मौसम वैज्ञानिक के रूप में विख्यात राम विलास पासवान इस बार भी एनडीए में ही शामिल हैं और राजनैतिक विश्लेषकों की मानें तो वह हमेशा जीतने वाली साइड ही होते हैं।
अब बात जदयू की
जदयू की बात करें तो इस बार हो सकता है इस पार्टी को थोड़ा नुकसान उठाना पड़े। जनता में भले ही अभी भी नीतीश खुद को ‘विकास पुरुष’ वाले लिबास में ही देखते हैं पर इस बात से भी नहीं नाकारा जा सकता कि मुज्ज़फरपुर बालिका गृह कांड और सृजन घोटाले के आरोपों ने उन्हें दागदार किया है, जिसका असर आम चुनावों के परिणाम में जदयू को देखना पड़ सकता है। जदयू इस बार कुल 17 सीटों पर चुनाव लड़ी है और फिलहाल एनडीए के साथ है। पिछली बार जदयू के 2 नेता लोकसभा पहुंचे थे। इस बार भाजपा के साथ सीट बंटवारे को लेकर जदयू ने नाराज़गी ज़ाहिर की थी। नाराज़गी का आलम यह था कि अमित शाह खुद नितीश कुमार से मिलने तक चले आए थे।
महागठबंधन
कभी जदयू, राजद और कॉंग्रेस पार्टी को मिलाकर बने महागठबंधन में अब 5 दल शामिल हैं, राजद, कॉंग्रेस, रालोसपा, हम और वीआईपी। जदयू 2017 से एनडीए का हिस्सा है। हालांकि, राजद कहता रहा है कि नीतीश कुमार ने महागठबंधन में लौटने की कोशिश की थी पर जदयू इस बात को नकारते रहा है।
अब बात बिहार के सबसे बड़े दल राजद की
राजद इस लोकसभा चुनाव में महागठबंधन का सबसे बड़ा दल बनकर उभरा। कुल 20 सीटों पर चुनाव लड़ रहे राजद के 4 सांसद पिछले आम चुनाव में लोकसभा पहुंचे थे। इस बार महागठबंधन में सीट बंटवारे को लेकर काफी खींचतान हुई थी। नतीजा यह निकला कि राजद कुल 20 सीटों पर, कॉंग्रेस 9 सीटों पर, रालोसपा 5 सीटों पर तथा हम और वीआईपी तीन-तीन सीटों पर चुनाव लड़ी।
राजद के तेजस्वी यादव महागठबंधन के सबसे बड़े नेता बनकर उभरे और शुरुआती दौर में यह कॉंग्रेस से सीटों के बंटवारे में हो रही देरी को लेकर काफी नाराज़ भी नज़र आए। राजद ने अपनी आरा लोकसभा सीट सीपीआई (एमएल) के राजू यादव के लिए छोड़ दी थी। शिवहर और जहानाबाद सीट को लेकर तेजस्वी यादव को खुद अपने बड़े भाई तेज प्रताप की नाराज़गी झेलनी पड़ी। तेज प्रताप ने इन दोनों सीटों पर अपने उम्मीदवार राजद से अलग ‘लालू-राबड़ी मोर्चा’ बनाकर उतारे हैं। गौरतलब है कि फिलहाल 81 विधायकों के साथ राजद बिहार का सबसे बड़ा दल है।
रालोसपा
उपेंद्र कुशवाहा एनडीए की वर्तमान सरकार में मंत्री थे। बाद में ‘उपेक्षित’ महसूस होने पर उन्होंने एनडीए छोड़कर महागठबंधन का दमन थाम लिया। जहानाबाद से सांसद अरुण कुमार भी रालोसपा से नाराज़ चल रहे हैं और अपना अलग गुट बनाकर चुनावी मैदान में हैं। रालोसपा ने मात्र 5 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे हैं।
हम
पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की पार्टी हम को महागठबंधन में मात्र 3 सीटें मिली। 2015 में बनी इस पार्टी के मात्र 1 विधायक और 1 विधान पार्षद हैं। गया (सुरक्षित) सीट से उम्मीदवार हम के अध्यक्ष जीतन राम मांझी इस सीट से मज़बूत स्थिति में नज़र आ रहे हैं।
वीआईपी
फिल्मों में सेट डिजाइनर रहे मुकेश साहनी का दल वीआईपी पहली बार चुनाव मैदान में उतरा है। खुद को ‘सन औफ मल्लाह’ बताने वाले मुकेश साहनी के बारे में कहा जाता है कि इन्होंने चुनाव में जमकर खर्च किया है और महागठबंधन के नेताओं के लिए हेलीकॉप्टर का इंतज़ाम कराया है। मल्लाह और मछुआरा जाति के वोट में इनकी अच्छी पकड़ मानी जा रही है।
बिहार की राजनीति में इतने उतार-चढ़ाव के बाद यह देखना अहम होगा कि 2019 के लोकसभा चुनावों के परिणाम क्या दिशा और दशा तय करते हैं?