Site icon Youth Ki Awaaz

मुसलमानों के खिलाफ बने स्टीरियोटाइप को कौन तोड़ेगा?

मुसलमान

मुसलमान

आज सुबह उठते ही रूम पार्टनर ने कहा, “स्टोरी करनी हो तो न्यूज़ है।” मेरा द्वारा पूछे जाने पर उसने बताना शुरू किया कि कैसे एक लड़की रात को ट्रेन से उदयपुर आ रही थी और एक स्टेशन पर ट्रेन जब रफ्तार पकड़ी तब एक लड़का आया और चिट फेंककर चला गया, जिसमें उसका मोबाइल नंबर लिखा था। लड़की जब चिट लेने के लिए गेट तक पहुंची, तब वह लड़का उस लड़की को गंदे इशारे करने लगा।”

इस न्यूज़ को सुनने के बाद जो पहला ख्याल मेरे दिमाग में आया, वो यह कि चिट फेंकने वाला मुसलमान तो नहीं! खैर, इस घटना पर मैंने स्टोरी की। शाम को उस लड़की का फोन आता है और वह बोलती है कि सर लड़के का पता लग गया है। उसका नाम सोयल खान है। मुझे बिल्कुल भी आश्चर्य नहीं हुआ।

मैं मन ही मन में सोचने लगा कि क्या यार! लोग आजकल सड़कों पर प्यार तलाश रहे हैं। उन्हें शर्म आती भी है या नहीं? यह किस तरह की हरकत होती है? स्टीरियोटाइप ऐसे ही तो क्रिएट होता है। पहले तो समझना पड़ेगा कि स्टीरियोटाइप होता क्या है।

स्टीरियोटाइप का मतलब है किसी शख्स के नाम, क्षेत्र या भाषा के आधार पर उसके बारे में राय बना लेना। जैसे मैंने राय बनाई थी कि वह चिट फेंकने वाला कोई मुसलमान होगा।

स्टीरियोटाइप ऐसे ही नहीं बनते, इन्हें हम खुद बनाते हैं। ऐसी टुच्ची हरकतें करके भारत की जेलों में सबसे ज़्यादा मुसलमान कैदी क्यों हैं? इसके पीछे क्या कारण है? ऐसे कई सवाल मेरे ज़हन में उत्पन्न होने शुरू हो गए। मैं सोचने लगा कि मुस्लिम समुदाय से अगर एक दो लोग भी गलत करते हैं, तो क्यों?

उनके कारण लोगों के बीच भ्रांतियां फैलती हैं कि सारे मुसलमान ऐसे ही होते हैं। इनसे अगर कोई इनके व्यवसाय के बारे में पूछेगा तो ये कहेंगे, “हमारा काम है लड़कियों पर चिट फेंकना, चोरी-चकारी करना, जुआ खेलना, ब्लैक के सारे काम करना, गुंडई करना और चलती लड़की को देखकर सिटी मारना व्गैरह-व्गैरह।”

अगर वे इससे उपर उठेंगे तो दिनभर मेहनत मज़दूरी करके फिर शाम को अच्छे से कपड़े पहनकर लुक्कई करेंगे। सबसे ज़्यादा कबाड़ा हमारा तो इस ‘मिया भाई’ शब्द ने किया है।

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार: pixabay

यह जो हम खुद को तोप समझते हैं ना, UPSE में तीन प्रतिशत हिस्सेदारी है हमारी। खैर, उससे हमें क्या? हम तो हर जुम्मे को 400 रुपए किलो का गोश्त लेकर खा जाएंगे और बच्चों को 10वीं से आगे नहीं पढ़ाएंगे क्योंकि मुसलमानों के लिए नौकरी कहां है? ऐसे सवाल जिन मुसलमानों के ज़हन में आते हैं, उनसे मैं बस यही कहना चाहूंगा कि क्यों नहीं है बे नौकरी?

तुमने अप्लाई किया क्या? पढ़ने वाले मुसलमान लड़के UPSC टॉप कर रहे हैं। सबसे कम उम्र में आईएस और आईपीएस बनकर रिकॉर्ड तक बना रहे हैं। सारे शहरों में 500-500 घरों की कॉलोनी बनाकर बस लिए और कसम खा ली कि इससे बाहर हम नहीं जाएंगे कभी।

मैं कहता हूं भाई निकलो घरों से और बाहर देखो दुनिया में क्या-क्या हो रहा है। हम जैसे कुछ जो सबसे पहले तुमसे लड़कर तुम्हारे ताने सुनकर बड़ी मुश्किल से पढ़-लिखकर बड़े शहरों में बड़ी यूनिवर्सिटीज़ या बड़ी कंपनियों में जॉब करते हैं, आकर देखो कभी तुम्हारे बनाए स्टीरियोटाइप से हमें क्या-क्या झेलना पड़ता है।

अपनी बनाई दुनिया से बाहर निकलो और देखो कि लोग तुम्हारे बारे में लोग क्या सोचते हैं। कब तक विक्टिम कार्ड खेलते रहोगे? कब तक कहोगे कि फलां सरकार ने यह किया और फलां ने यह किया?

1984 और उसके कुछ सालों बाद देश में सिखों के खिलाफ माहौल था मगर देश के हर सिख ने वह स्टीरियोटाइप तोड़ा। वे पढ़ने- लिखने के बाद मुख्यधारा में आए और आज सम्मानजनक ज़िन्दगी बिता रहे हैं और हम कभी काँग्रेस तो कभी बीजेपी को दोष दे रहे हैं। भले ही अपनी औलादें सड़कों पर हुड़दंग मचा रही हो।

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार: pixabay

खैर, जिस लड़की की बात मैंने बताई है, उस केस में लव जिहाद का एंगल भी जोड़ कर देखा जा रहा है मगर मुझे पूरा विश्वास है कि उस चिट फेंकने वाले को लव जिहाद का मतलब भी नहीं पता होगा। उसको बस मौज करनी थी तो उसने मौज कर ली। जो शर्मिंदा हो रहे हैं, वे होते रहें क्योंकि उन्हें अपने घर से बाहर ही नहीं निकलना है।

मेरे नबी की हदीसे हैं कि इल्म हासिल करने के लिए चीन तक सफर करना पड़े तो करें मगर विसंगति देखो उसी नबी की मोहब्बत का दम्भ भरने वाली कौम जाहिल, अनपढ़ और गंवार है।

मैं कई ऐसे मुर्खानंदों को जनता हूं, जो ऐसी चिट जेब में लेकर घूमते हैं और जहां भी मौका मिले किसी लड़की को दे आते हैं। मतलब, उन लोगों ने अपनी ज़िन्दगी का मकसद ही लड़की हासिल करना बना दिया है। ना खुद की फिक्र है और ना ही कौम के बारे में कोई चिंता। ऐसे लोग सरकार की नीतियों को देखकर कहते है कि अल्पसंख्यको के लिए कुछ नहीं किया जाता है।

क्यों बे? तुमने अपनी औलादें सरकार के भरोसे पैदा की हैं क्या? मेरे माँ-बाप ने आधी रोटी कम खाई होगी मगर हमें पढ़ाया-लिखाया। किसी करोड़पति बाप की औलाद नहीं हूं। उन्ही लोगों के बीच से उठकर आया हूं, जिनके हक की बात कर रहा हूं। मेरा क्या है, मैं लड़ा हूं, जीत रहा हूं और इंशाअल्लाह आगे भी जीतूंगा मगर यह दर्द है, जो बोल रहा है।

मैं उन लोगों में से नहीं हूं जो उपर चढ़कर निचे वालों को भूल जाऊं मगर कभी खुद का आंकलन भी कर लिया करो यार! ज़रा सोचो कि क्या कर रहे हैं हम और कहा जा रही है कौम? मकसद क्या है हमारा?

एक अखबार में 100 आपराधिक खबरें छपती हैं, जिनमें अगर एक मुसलमान का नाम होगा तो लोगों को याद रहेगा। इसी तरह उसी अखबार में 100 अचीवमेंट की खबरें भी छपती हैं, जिनमें अगर एक मुसलमान का नाम भी होगा तो लोगों को याद रहेगा क्योंकि तुम्हारा नाम ही तुम्हें अलग पहचान दिलाएगी।

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार: pixabay

मुझे मन तो कर रहा है कि इतना लिख दूं इस बारे में ताकि फेसबुक की वॉल काम पड़ जाए मगर उसका फायदा क्या अगर कोई बात किसी को समझ ना आए। मुझे पता है कुछ लोग कमेंट बॉक्स में, कुछ इनबॉक्स तो कुछ कॉल करके मुझे ज्ञान देंगे। उन्हें पहले ही कह देता हूं  कि ऐसी कोशिश भी मत करना।

दिमाग और हौसलों की जंग में हमेशा जीत दिमाग की होती है। हौसलों की जीत किताबों में होती होगी। यहूदियों ने दिमाग से ही काम लिया और इज़राइल बन गया। फलीस्तीनी आज भी अपने हौसलों के साथ अपनी ज़मीन बचाने में लगे हुए हैं।

जो अरब देश इस्लाम के ठेकेदार बनते हैं, वे अमेरिका के तलवे चाट रहे हैं। हर रोज़ इस मामले को यहां घुसेड़ने का मतलब यह समझाना है कि हम लोग किसी चमत्कार के इंतज़ार में हैं मगर ऐसा कुछ नहीं होगा। हमें अपनी आदतों से खुद लड़ना होगा, पढ़ना होगा और एक सीमित दाएरे से बाहर निकलकर स्टीरियोटाइप को समझना और तोड़ना होगा।

मैकेनिक,प्लम्बर,लाइट फिटिंग वाले, ऑटो चलाने वाले, ड्राइवर, लोहे का काम करने वाले और कबाड़ी की दुकान वाले सब मुसलमान ही क्यों हैं? इस बारे में कभी सोचा है क्या? मैं यह नहीं कह रहा हूं कि ऐसे काम खराब होते हैं मगर कहीं ना कहीं अशिक्षा बड़ी वजह है, जिसके कारण उन्हें ऐसे काम करने पड़ते हैं। ऐसे में यह कहना भी उचित नहीं है कि मुसलमानों के लिए नौकरियां नहीं हैं। इतना कह देने से हमारी ज़िम्मेदारी खत्म नहीं हो जाएगी।

Exit mobile version