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मज़हबी दंगों में क्यों होता है महिलाओं का शोषण?

मुज्ज़फ्फरनगर दंगे

मुज्ज़फ्फरनगर दंगे

डॉक्टर ने कमरे में रौशनी करते हुए सिराजुद्दीन से पूछा, “क्या है?” सिराजुद्दीन के हलक से सिर्फ इतना निकल सका, “जी मैं…जी मैं…इसका बाप हूं।” डॉक्टर ने स्ट्रेचर पर पड़ी हुई लाश की नब्ज़ टटोली और सिराजुद्दीन से खिड़की खोलने के लिए कहा।

सकीना की मुद्रा जिस्म में जुंबिश हुई। बेजान हाथों से उसने इज़ारबंद खोला और सलवार नीचे सरका दी। बूढ़ा सिराजुद्दीन खुशी से चिल्लाया, “ज़िंदा है! मेरी बेटी ज़िंदा है!”

उपर्युक्त अल्फाज़ सआदत हसन मंटो के अफसाने ‘खोल दो’ का अंतिम अंश है, जहां भारत-पाकिस्तान विभाजन के सांप्रदायिक दौर में मंटो ने बेहद मार्मिक तरीके से विभीषिका का वर्णन किया है। यहां गौर करने लायक बात यह है कि धर्मों में बंटे हमारे समाज में पितृसत्ता की हुकूमत कायम है। इस समाज में महिलाओं की निकटतम पहचान एक उपभोग की वस्तु तक सीमित रखी जाती है।

लैंगिक समानता के लिए पितृसत्ता का विनाश ज़रूरी

हर धर्म में महिलाओं को किसी काल्पनिक आसन पर विराजमान करके उनके वास्तविक अस्तित्व को नकार कर उन्हें मनुष्य बने रहने के अधिकार से वंचित रखा जाता है। सामंतवाद जिस सामाजिक ढांचे का इस्तेमाल अपने फर्ज़ी पौरुषपन के प्रभुत्व की सत्ता कायम रखने के लिए करता है, उसमें महिला शोषण एवं बलात्कार जैसे जघन्य कृत्य को भी वैधता प्राप्त है।

बलात्कार जैसे अपराध इस पुरूष प्रधान समाज द्वारा ही ईज़ाद किया हुआ खौफनाक हथियार है, जिसके ज़ोर पर वह महिलाओं के स्वतंत्र कदमों पर लगाम लगाता है। शारीरिक एवं मानसिक शोषण की बेड़ियां ही महिलाओं को सदियों से पुरुषों की जागीर बनाए हुए है।

ऐसे किसी भी समाज में जहां शासन एवं सत्ता सिर्फ एक लिंग को हासिल हो और दूसरे लिंगों के खिलाफ तमाम तरह के सामाजिक दुराग्रह मौजूद हो, वहां लैंगिक समानता की बहस ही बेईमानी लगती है।

समाज में लैंगिक समानता के विचार की धरातल तैयार करने के लिए सबसे पहले पुरुषवाद के उन्मूलन की ज़रूरत है। मौजूदा हालात में लैंगिक समानता हासिल करना मुश्किल है। यहां तो दक्षिणपंथी संगठन पितृसत्तात्मक विचारधारा में बहुसंख्यकवादी कट्टरपंथ का कॉकटेल मिला कर समाज को ज़हर परोस रहे हैं।

इससे समाज एक ऐसे सेफ्टी वाल्व रहित प्रेशर कुकर में तब्दील हो गया है, जो कभी भी साम्प्रदायिकता की आंच पर पक रहे नफरत के उबाल से विस्फोट कर सकता है।

यह समाज बलात्कारियों की बजाए सर्वाइवर्स की इज्ज़त धूमिल करता है

नफरत और दुराग्रह इन संगठनों द्वारा संचालित विद्यालय के ज़रिये युवाओं की रगों में बारूद बन कर दौड़ रहे हैं। जिस कॉकटेल का आविष्कार इन संगठनों ने किया है, उसका परीक्षण हर मज़हबी दंगों में अल्पसंख्यक महिलाओं के खिलाफ हम शारीरिक शोषण के रूप में देख सकते है।

पितृसत्तात्मक समाज ने महिलाओं के सम्मान के लिए यह पैमाना तय कर रखा है कि उनके साथ हुए दुष्कर्म के बाद, बलात्कारी की इज्ज़त का समापन होने की बजाए महिलाओं की ही इज्ज़त खत्म हो जाती है।

फोटो साभार: Getty Images

इसके साथ ही सर्वाइवर को तिरस्कृत और बहिष्कृत कर उसके मानसिक शोषण का कर्तव्य भार यह समाज ही अपने कंधों पर लेता है, जिसके फलस्वरूप उस सर्वाइवर के परिवार को सामाजिक उपेक्षा झेलनी पड़ती है। समाज का यह महान रिवाज पीड़िता के परिवार के सम्मान का ही समापन करता है।

वहीं, दूसरी ओर वह अपराधी गर्व से अपनी छाती तान कर बिना किसी शर्म के रोज़ उसके सामने से गुज़रता है। दिलचस्प बात यह है कि वह शोषण करने वाला व्यक्ति हमारे समाज की आंखों में ज़रा भी नहीं चुभता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि खोखले रिवाजों का अनुसरण करने वाला हमारा समाज हमेशा सर्वाइवर की बजाए शोषण करने वाले के पक्ष में खड़ा रहता है।

सांप्रदायिक दंगों में महिलाओं को बनाया जाता है निशाना

समाज की इसी सड़ी-गली मानसिकता का उपयोग कट्टरपंथी अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए करते हैं, जहां दंगों में महिलाओं का शारीरिक शोषण करने का प्रयास होता है। तभी सार्वजनिक मंचों से महिलाओं को कब्र से निकल कर उनकी आबरू लूटने की वकालत की जाती है। ऐसे लोगों की व्यापक फौज तैयार कर दूसरे मज़हबों पर शोषण करना ही इन कट्टरपंथियों की साज़िश है।  

महिलाओं को किसी मज़हब की जागीर या संपत्ति समझ कर उनके लुटेरे सर्वाइवर के मज़हब की निर्धनता तय करते हैं। दरअसल, कट्टरपंथ की इस बर्बरता में कोई मज़हब नहीं, बल्कि पूरी मानवता ही दरिंदगी का शिकार हो जाती है। कट्टरपंथ अपने साम्प्रदायिक खेल में महिलाओं को निजी संपत्ति समझता है।

2002 के गुजरात दंगों ने मज़हबी नफरत की लकीर से बंटवारे के मंज़र को शांतिप्रिय भारत में पुनः स्थापित करने का भद्दा प्रयास किया था। आज दंगों के 17 साल बाद भी पीड़ितों को न्याय मिलना दूर की कौड़ी नज़र आती है और दंगों के सूत्रधार व्यवस्था में अलग-अलग पदों पर न्यायिक एवं जांच प्रक्रिया को क्षत-विक्षत कर सत्ता की सीढियां चढ़ रहे हैं।

17 साल बाद बिलकीस बानो को मिला इंसाफ

23 अप्रैल की सुबह 17 साल के अन्याय के बादलों को बिसरा कर न्याय की धुंधली रौशनी मयस्सर होती नज़र आई। सर्वोच्च न्यायालय ने 17 सालों से न्याय की लड़ाई लड़ रही गुजरात दंगों में सामूहिक बलात्कार पीड़िता बिलकिस बानो को गुजरात सरकार द्वारा 50 लाख मुआवजा, सरकारी नौकरी और आवास दिलाने का निर्देश दिया।

बिलकिस बानो का व्यवस्था से संघर्ष हमारे समाज की वास्तविक चित्र खिंचता हुआ हमारे भद्दे पितृसत्ता एवं धार्मिक अतिवाद की त्रासदी की तस्वीर हमारे समक्ष रखता है। 2002 के दंगों के दौरान 5 महीने की गर्भवती 19 वर्षीय बिलकीस के साथ कुछ वहशी दरिंदों ने कई दफा सामूहिक बलात्कार किया और वे तभी रुके जब उन्हें यह आभास हुआ कि बिलकिस मर चुकी है।

बलात्कार से पहले उन्होंने बिलकिस की आंखों के सामने उसकी तीन साल की बच्ची सलेहा का कत्ल कर दिया। गौरतलब है कि दंगों के दौरान बिलकिस बानो के 14 परिजनों की हत्या की गई और सभी महिलाओं के साथ हत्या से पहले उनकी इज़्ज़त लूटी गई।

बिलकीस बानो। फोटो साभार: Twitter

बात यहां खत्म नहीं हो जाती है। यहां से शुरुआत होती है उस राज्य के खोखले प्रशासन की जो सर्वाइवर की बजाए शोषण करने वाले का साथ देता हुआ उसके अपराध में शामिल होता दिखाई देता है। पुलिस और प्रशासन बहुसंख्यक कट्टरपंथ के कलपुर्जे़ बन जाते हैं और व्यवस्था से न्याय मिलने की उम्मीद एक भद्दा मज़ाक बन कर रह जाता है।

सवाल तो यह भी खड़ा होता है कि उस वक्त 56 इंच का पौरुषपन किस मांद में छुप कर यह अन्याय अपनी आंखों से प्रत्यक्ष देख कर खामोश रहा। बिलकिस बानो के साथ लगातार हुई अमानवीयता की पराकाष्ठा किसी भी सभ्य समाज को शर्मिंदा होने पर मजबूर करती है।

अगर ऐसे जघन्य अपराध पर भी हुक्मरानों की नींद में खलल नहीं पड़े तो यह बात स्पष्ट समझ लेनी चाहिए कि 56 इंच का निर्माण अपनी कमज़ोरी को बेहतर आवरण से ढ़ंकने का मात्र एक प्रयास है।

सावरकर ने बलात्कार को राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की बात कही थी

सावरकर अपनी किताब “भारतीय इतिहास के छह वैभवशाली युग” के पैरा 449 में लिखते हैं, “मुस्लिम औरतों को कभी यह डर लगा ही नहीं कि उनके अपराध के लिए कोई हिन्दू उनको उतनी ही कड़ी सज़ा दे सकता है। उनके मन में औरतों के प्रति सम्मान का विकृत सदाचार भाव था।”

सावरकर औरतों के प्रति हिंदू पुरुषों के इस कृत्य को आत्महत्या के समान मानते थे। इसका मतलब उनका मानना था कि हिंदुओं को भी मुस्लिम औरतों के साथ बुरा बर्ताव करना चाहिए जैसा कि उनकी नज़र में मुस्लिम आक्रमणकारी करते थे। गौर करने वाली बात यहां यह है कि सावरकर हिंदुत्व विचारधारा के लिए वही दर्जा रखते हैं, जो साम्यवाद के लिए कार्ल मार्क्स रखते हैं।

हिन्दुवाद और हिंदुत्व के फर्क को पहचाने बिना अलग-अलग कट्टरपंथी संस्थानों में हिंदुत्व के अनुयायी के लिए आज भी सावरकर के विचार वेद वाक्य हैं। इसलिए मंटो के अफसानों के जीवंत किरदार, जिन्होंने बंटवारे में मज़हबी कट्टरपंथ के हाथों दोहन झेला था, उनके शोषक और शोषित चेहरे बदल गए मगर शोषण प्रणाली आज तक बदस्तूर जारी है।

मज़हबी दंगों में महिलाओं का शारीरिक शोषण और उनके मज़हब को निशाना बनाने का प्रयास हर धार्मिक अतिवाद करते हैं। आज भी महिलाओं को किसी धर्म एवं समुदाय की निजी संपत्ति माना जाता है।

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