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विश्व संचार दिवस: क्यों ज़रूरी है रिपोर्टिंग के दौरान सहज भाषा का प्रयोग

रिपोर्टिंग

रिपोर्टिंग

निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल

बिन निज भाषा ज्ञान के मिटत ना हिय को सूल।

भारतेंदु हरिश्चंद्र की यह पंक्तियां खुद में बहुत बड़ी बात समेटे हुए हैं। साथियों हमारे देश की भाषा हिंदी है, यह हम सभी जानते हैं। हिंदी हमारे देश में लगभग हर जगह बोली जाती है और विभिन्न क्षेत्रों में इसका स्वरूप भी भिन्न होते हुए तमाम बोलियों के रूप में हमारे बीच देखने को मिलता है।

जैसे- अवधी, भोजपुरी, बृज, हरियाणवी और पंजाबी। हर जगह की बोली हिंदी के मूल प्रभाव को लिए हुए हिंदी के बहुआयामी रूप को परिलक्षित करती हमारे जन जीवन में रची बसी है।

हिंदी हम सबने पढ़ी लिखी भी है। पढ़ाई-लिखाई के दौरान हिंदी के गद्य, पद्य और व्याकरण से हम सबसे ज़्यादा परिचित होते हैं। गद्य में कहानी, उपन्यास और संस्मरण पत्र विधाएं होती हैं जबकि पद्य में दोहे चौपाई, गीत व छंद आदि गेय शैली में काव्य रूप में हम पढ़ते हैं। व्याकरण तो हमारी हिंदी के गद्य-पद्य दोनों रूपों के शिल्प विन्यास में चार चांद लगाने में अहम भूमिका निभाता है।

प्रयोजनमूलक हिंदी को प्रयोग में लाने की ज़रूरत

यूं तो राजकाज की भाषा मे हिंदी को स्थान नहीं मिल सका है मगर हिंदी का एक स्वरूप जिससे आम जनमानस परिचित तो है किंतु उसके स्वरूप को किस नाम से जानते हैं, यह शायद ज्ञात ना हो। जी हांं साथियों, प्रयोजनमूलक हिंदी, जो कि हमारे जन जीवन को इस तरह प्रभावित करती है, जैसे बिन हवा पानी के हम हों।

रोज़मर्रा की जीवन से जुड़ी हर ज़रूरतों में हम जिस हिंदी को प्रयोग में लाते हैं, जो सहज, सरल और हमारी आदतों में शामिल है, वही तो है प्रयोजनमूलक हिंदी। इसका प्रयोग प्रशासनिक स्तर को छोड़कर हर जगह व्यापकता से देखने को मिलता है।

संचार की पूरी व्यवस्था में चाहे प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक्स या फिर इंटरनेट की व्यापक दुनिया ही क्यों ना हो, प्रयोजनमूलक हिंदी हर जगह प्राण फूंकती है। रेडियो, टेलीविज़न और सिनेमा में भी तो हमारे जीवन मे रची-बसी इसी हिंदी का प्रयोग होता है। उदाहरण के तौर पर मान लीजिए कि एक सर्वे या रिपोर्टिंग के लिए एक व्यक्ति किसी गाँव में जाता है और वह अपनी पढ़ी-लिखी विशुद्ध साहित्य भाषा या फिर अंग्रेज़ी भाषा का प्रयोग करता है, तो ग्रामीण जनमानस उसे सहजता से नहीं स्वीकार पाता।

ऐसे में आधी अधूरी जानकारी या खबर हाथ लगती है परन्तु अगर क्षेत्र की प्रचलित भाषा या बोली को प्रयोग करें तो लोग जल्दी घुलमिल जाते हैं और उनसे संवाद सहज होता है। ऐसा करने से अपनत्व भाव भी पनपता है और परिणाम ज्यादा अच्छे मिलते हैं।

स्वरोज़गार के प्रोत्साहित के लिए भी ज़रूरी है प्रयोजनमूलक हिंदी

इसी तरह जब हम बदलते भारत में स्वरोज़गार को प्रोत्साहित कर व्यापार के क्षेत्र में नई पारी की शुरुआत कर रहे हों तो प्रयोजनमूलक हिंदी की भूमिका बहुत प्रभावशाली हो जाती है क्योंकि लघु कुटीर उद्योगों को जन जीवन की भाषा में ही जनजीवन तक पहुंचाया जा सकता है।

सम्प्रेषण के लिए भाषा या बोली की उपयोगिता तो व्यापार में भी है। कोई भी व्यापार या बाज़ार सम्प्रेषण कला के बिना सम्भव नहीं, जैसे मोल भाव में ही देखिए कि सरल और सहज हिंदी ही हम प्रयोग करते हैं। आज इंटरनेट की दुनिया में भी व्यापार को बढ़ाने के लिए संवाद और सम्प्रेषण की आवश्यकता पड़ती है।

वहां भी सामान्य और सरल हिंदी में अपने व्यापार की जानकारी अधिक लोगों को जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इसलिए प्रयोजनमूलक हिंदी व्यापारिक दृष्टिकोण से भी उन्नति के मार्ग प्रशस्त करती है।

फोटो साभार: Twitter

भूमंडलीकरण के इस दौर में महिलाओं की उन्नति की बात करें तो वर्षों से उनकी हस्तकला, जो घर की सजावट का हिस्सा रही वह अब स्वरोज़गार के विकल्प के रूप में उभरकर संचार व्यवस्था से तालमेल बिठाती हुई प्रयोजनमूलक हिंदी के सहयोग से आर्थिक स्वावलम्बन का आधार बन रही है। यह महिलाओं की आर्थिक दशा को उन्नत करने में महत्वपूर्ण कदम है।

प्रयोजनमूलक हिंदी ने गली मोहल्ले और हाट बाज़ारों के साथ सोशल मीडिया पर भी व्यापार से लेकर कला, साहित्य और अभिव्यक्ति के संचार में सशक्त भूमिका अदा करते हुए अपना वर्चस्व स्थापित किया है। इसलिए हम कह सकते हैं कि प्रयोजनमूलक हिंदी किसी भी तरह से संचार के लिए प्राणदायिनी हवा की भांति है, जो जीवन को सांसों की तरह लयबद्ध करती है।

विश्व संचार दिवस पर सभी को ढेर सारी शुभकामनाएं।

नोट: लेखक शालिनी सिंह आकाशवाणी लखनऊ में एंकर हैं।

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