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“सत्ता के लालच में ही सही लेकिन BJP ने गोडसे का वजूद मिटा दिया”

नाथूराम गोडसे ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि 21वीं सदी में सत्ता के लोभ में उसी का संगठन उसका साथ छोड़ देगा। भाजपा, आरएसएस और उनसे जुड़े कई संगठनों ने नाथूराम गोडसे को कभी भी हत्यारे की उपाधि नहीं दी, बल्कि उनकी जयंती और पुण्यतिथि पर आयोजन रख उन्हें एक देशभक्त के रूप में याद किया जाता रहा है।

हिन्दू महासभा ने जिस तरह से गोडसे की जयंती पर महात्मा गाँधी की हत्या का नाटकीय रूपांतरण किया, यह प्रमाण है कि गोडसे और उसकी विचारधारा आज भी लोगों के मन में जीवित है। जिस विचारधारा के लिए गोडसे फांसी चढ़े, आज सत्ता के लोभ में उन्हीं के अनुयायियों ने उससे पल्ला झाड़ कर गोडसे को हमेशा के लिए मार डाला।

दरअसल, हाल ही में भोपाल से भाजपा की प्रत्याशी साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर का एक बयान विवादों में आ गया, जिसमें उन्होंने एक पत्रकार से वार्ता के दौरान नाथूराम गोडसे को देशभक्त की उपाधि दी। वह गोडसे, जिसे राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की हत्या के ज़ुर्म में सज़ा-ए-मौत सुनाई गई थी, वह देश भक्त कैसे हो गया?

नरेन्द्र मोदी। फोटो साभार: Getty Images

चुनावी माहौल में काँग्रेस सहित अन्य सभी विपक्षी दलों ने इस बयान को लेकर भाजपा को घेर लिया फिर वह हुआ जो इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ। चुनाव के अंतिम चरण के लिए प्रचार चल रहा था, अभी मतदान होना भी बाकी है, ऐसे में भाजपा को गाँधी और गोडसे में से एक को चुनना था या फिर यूं कह सकते हैं कि गोडसे और सत्ता में से एक को चुनना था।

विवाद को बढ़ते देख आनन-फानन में ही सही लेकिन भाजपा ने गाँधी को चुनकर, सत्ता के प्रलोभन के लिए गोडसे और उसकी विचारधारा का वजूद ही मिटा दिया।

पत्रकारों और राजनीतिक विशेषज्ञों ने पहले ही कयास लगा लिए थे कि माफी वाला बयान भी जल्द ही आ जाएगा और भाजपा ने उनकी उम्मीदों से दोगुना मसाला मीडिया को परोसा। साध्वी प्रज्ञा ने ना सिर्फ माफी मांगी, बल्कि मोदी-शाह सहित भाजपा के दिग्गज नेता गाँधी का गुणगान करते नज़र आए।

गौरतलब है कि साध्वी प्रज्ञा ने अपने बयान में सिर्फ गोडसे का बखान किया था, जो आरएसएस, भाजपा और अन्य साथी दल हमेशा से करते आ रहे हैं, उसमें नया कुछ भी नहीं था। गाँधी के लिए तो साध्वी प्रज्ञा ने कुछ बोला ही नहीं था। यह पूरा व्याख्या भाजपा की बौखलाहट और सत्ता के लोभ को उजागर करता है।

इससे यह बात भी स्पष्ट हो गई है कि मोदी-शाह भले ही भाजपा को ऐतिहासिक जीत के साथ सत्ता में ले आए हों लेकिन वे कभी भी वाजपेयी-अडवाणी की जगह नहीं ले पाएंगे, जिन्हें हार मंज़ूर थी लेकिन विचारधारा के साथ समझौता नहीं। जो विरोधियों का अपमान किए बिना उन्हें अपनी राजनितिक सूझबूझ और दाव-पेंच  से घेरा करते थे।

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी। फोटो साभार: Getty Image

भाजपा ने सत्ता में आने के बाद से ही गाँधी-नेहरू की छवि को धूमिल करने के निरंतर प्रयास किए। सोशल मीडिया के ज़रिय भाजपा समर्थक अनौपचारिक रूप से गाँधी-नेहरू के खिलाफ जनता को गुमराह करने के साथ ही उनके प्रति नई पीढ़ी में ज़हर घोलते आए हैं। इतना ही नहीं, स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने भाषणों में कभी गाँधी-नेहरू से ऊपर नहीं उठ पाए।

दशकों बाद इंदिरा गाँधी के इमरजेंसी वाले दिन विरोध प्रदर्शन भी हुआ और साथ-साथ फिल्मों के ज़रिय काँग्रेस का दुष्प्रचार करने से भी भाजपा पीछे नहीं हटी। सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी के खिलाफ जिस तरह का रवैया भाजपा के नेताओं का रहा है, वह किसी से छिपी नहीं है।

आश्चर्य तो इस बात का है कि विकास, चिकित्सा, शिक्षा और रोज़गार आदि मुद्दों को छोड़ मोदी चुनावी सभाओं में राजीव गाँधी को भी घसीट लाए। इतना ही नहीं, पिछले पांच वर्षो में देश के प्रधानमंत्री के रूप में पहली और आखरी प्रेस-वार्ता ने मोदी की पोल खोल कर रख दी।

काँग्रेस ने गाँधी-नेहरू को कभी मरने नहीं दिया 

इन सब के बावजूद, राहुल गाँधी का आत्मविश्वास आजकल देखते ही बन रहा है, जो मोदी-शाह सहित पूरी भाजपा से अकेले लोहा ले रहे हैं। ‘पप्पू’ जैसी उपाधि के अलावा राहुल गाँधी के बयानों को तोड़-मरोड़ कर सोशल मीडिया पर वायरल कर उनका मज़ाक बनाया जाता है लेकिन ना उन्होंने कभी जनता से दूरी बनाई और ना ही कभी मीडिया से भागने का प्रयास किया।

सबसे बड़ी बात गाँधी-नेहरू के विरुद्ध इतना नकारात्मक वातावरण बनाने के बावजूद काँग्रेस ने कभी भी गाँधी-नेहरू को मरने नहीं दिया। हर काँग्रेसी गर्व से गाँधी-नेहरू का नाम लेता है। यहां तक कि रॉबर्ट वाड्रा पर गंभीर आरोपों के बावजूद प्रियंका गाँधी ने राजनीति में ‘प्रियंका गाँधी वाड्रा’ के रूप में कदम रखा क्योंकि उन्हें गाँधी और वाड्रा दोनों ही नामों से किसी प्रकार की शर्मिंदगी नहीं है।

ऐसे में अब भाजपा और आरएसएस के समर्थकों और कार्यकर्ताओं को आत्मचिंतन करना चाहिए कि जिन लोगों के हाथों में उन्होंने संगठन की बागडोर थमाई है, क्या वे उनकी उम्मीदों पर खरे उतर पा रहे हैं?

इस घटनाक्रम के बाद दो विचारधाराओं की प्रतिस्पर्धा में गोडसे हमेशा के लिए खत्म हो गया और गाँधी की जीत हुई। शायद अब भाजपा के नेताओं का उद्देशय मात्र सत्ता में बने रहना है क्योंकि वे इस बात से भलीभांति वाखिफ हैं कि उनके असंख्य प्रयासों के बावजूद गाँधी के प्रति देश की जनता आज भी संवेदशील है।

यही वजह है कि खादी इंडिया के कवर पेज पर चरखे के साथ मोदी की तस्वीर को जनता से नकार दिया था और उसके बाद नोटबंदी के समय गाँधी की तस्वीर नोटों से हटाने की हिम्मत मोदी जुटा ही नहीं पाए। कभी हिन्दू राष्ट्र का नारा देने वाला आरएसएस, राजनीति के जाल में ऐसे फंसा कि आज अपने कार्यालय में रोज़ा इफ्तार का आयोजन करना पड़ रहा है।

फोटो साभार: Getty Images

अब आज की पढ़ी-लिखी जनता को यह समझना चाहिए कि यह वक्त धर्म और जाति में उलझ कर आपस में लड़ने का नहीं है, बल्कि हमें राजनीतिक दलों और संगठनों की विचारधाराओं से ऊपर उठकर अपने-अपने क्षेत्र से ऐसे नेताओं को चुनना चाहिए, जो आपकी समस्याएं समझते हों और उनका समाधान करने के लिए उनके पास कोई ठोस रणनीति हो, जिस पर आप विश्वास कर सके।

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आंख बांध करके किसी पर भी विश्वास करने की बजाये, लोकतंत्र का स्वाद लेना आवश्यक हो गया है जहां आप अपने नेताओं से सवाल करें, उनके किए वादों का हिसाब लें। यदि कोई आपकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाया तो विकास और जन-कल्याण के लिए बदलाव ज़रूरी है। संकोच ना करें और अपने मतदान की ताकत से देश को तरक्की की राह पर आगे ले जाएं।

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