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कविता: “कहीं रूठ ना जाए धरती”

धरती

धरती

यह पर्वतों से अनियमित पिघलती बर्फ

यह बरखा का सावन में भी नहीं आना,

यह फैक्ट्रियों से उठता अनियंत्रित धुआं

यह तापमान का अकस्मात बढ़ जाना।

 

यह साल-दर-साल सूनामी की तबाही

यह नदियों-तालाबों का पानी सूख जाना,

यह रोज़ लाखों जानें लेते हुए संक्रमण

यह अनगिनत जीवों का बाढ़ में बह जाना।

 

यह बंज़र बन जाना उपजाऊ ज़मीनों का

यह समय से पहले ही फलों का पक जाना,

यह सूर्य का अनहद आग बरसाना धरा पर

यह पकी फसलों पर ओला-वृष्टि हो जाना।

 

यह अंतिम चेतावनी और उद्घोष है प्रकृति का

मानवीय कुकृत्यों का प्रतिशोध है प्रकृति का।

 

यह प्रतिशोध है उन सबसे जिन्होंने छीने हैं

प्रकृति से उसके पेड़ रूपी कई प्यारे भाई,

जो पेड़ उन्हें फल-लकड़ी-छाया देता था

जिसे सींचती थी अपने लहू से धरती माई।

 

यह प्रतिशोध है उन सबसे जिन्होंने घोला है

प्रकृति की ह्रदय रूपी जलवायु में ज़हर,

जो जलवायु उन्हें कभी शुद्ध हवा देती थी

उसे दूषित कर रही हैं फैक्ट्रियां एवं शहर।

 

यह प्रतिशोध है उन सबसे जिन्होंने खोदे हैं

प्रकृति की माँ रुपी धरती पर अनेकोनेक छिद्र,

बोरवेलों से छलनी किया है इसका बदन

कृत्रिम रसायन से बना दिया इसे बंज़र-दरिद्र।

 

अब भी संभल जाओ और सहेजो प्रकृति को

वर्ना कोई ना रोक पाएगा मानव-पतन गति को।

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