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“मोदी जी, क्या आपके PM बनने से पहले पूरे वर्ल्ड में भारत को कोई नहीं जानता था?”

नरेन्द्र मोदी

नरेन्द्र मोदी

भारतीय लोकतंत्र का सबसे बड़ा पर्व बीत गया। कब्रों से कुछ वक्त के लिए पाकिस्तान, नेहरू, चीन, यूएन की स्थाई सदस्यता, आतंकवाद, राजीव गाँधी, 1984, इमरजेंसी, अली और बजरंग बली निकल कर आए। मगर हां, चुनाव खत्म होते ही वे चुपचाप अपनी कब्रों में जाकर सो गए।

नौकरियां, शिक्षा, स्वास्थ्य, शांति, अर्थव्यवस्था, महिला सुरक्षा और इंफ्रास्ट्रक्चर यह सभी अपनी बारी के इंतज़ार में मुंह ताकते रह गए। वैसे अपने यहां रिवाज़ तो यही है कि मुर्दों को पूजा जाता है और ज़िंदा चीज़ों को तव्वज़ों नहीं दी जाती है।

यह चुनाव एक प्रायोजित प्रतियोगिता की तरह था जिसमें सारी सरकारी मशीनरी, मीडिया और बीजेपी एक तरफ और दूसरी तरफ एक लाचार हारा हुआ विपक्ष जो पांच सालों तक कहा था, किसी को पता नहीं।

वैसे तो मोदी जी ने सिटी केबल वाले को छोड़ कर देश के सभी मीडिया हाउस को इंटरव्यू दे दिया मगर एक भी इंटरव्यू ऐसा नहीं था, जिसमें किसी मुद्दे पर सवाल किया गया हो।

मीडिया, पीएम का इंटरव्यू ऐसे ले रहा है जैसे कोई लड़का रिश्ता देखने घर आया हो और होने वाले सास-ससुर सवाल पूछ रहा हो। “आप पर्स रखते हो”, “आप थकते क्यों नहीं” और “आप 4 घंटे ही सोते हो?” जैसे कई सवाल पीएम से पूछे गए। इसी वजह से भारतीय मीडिया विश्व में 140 वें स्थान पर है।

नरेन्द्र मोदी। फोटो साभार: Getty Images

खैर, चुनाव जाते-जाते वह घडी आ गई जिसका सबको इंतज़ार था। मोदी जी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस के ज़रिये पत्रकारों से बातचीत की। यहां तक कि अमित शाह को यकीन नहीं हो रहा था कि पीएम मोदी प्रेस कॉन्फ्रेंस कर रहे हैं। उस प्रेस कॉन्फ्रेंस में पत्रकारों का अनुभव ऐसा था जैसे मोदी जी ने ममता दीदी के भेजे रसगुल्लों में से एक-एक रसगुल्ला पॉलीथिन में डालकर पत्रकारों के मुंह में डाल दिया हो।

मोदी जी के सामने चुनाव आयोग नतमस्तक था। उन्हें सारे मामलों में क्लीन चिट दे दी गई, जिससे चुनाव आयुक्तों के बीच भी विवाद उत्पन्न हो गया। ‘संवैधानिक संस्थाओं को नुकसान पहुंचाया जा रहा’ यह कहते हुए अब तो मुंह दर्द करने लगा है।

मैंने शुरू में ही बता दिया कि मुद्दों के आधार पर यह चुनाव नहीं था। हां, 2014 से पहले भारत का मानचित्र जो लक्षद्वीप जितना छोटा था, अब वह बड़ा होकर रूस जैसा हो गया है। इन बातों से तो यही लगता है कि मोदी जी के आने से पहले भारत को कोई नहीं जानता था और उन्होंने ही पूरी दुनियां में घूम-घूमकर सभी को बताया कि मैं भारत से आया हूं।

शायद इसलिए हमने एक बार फिर भाजपा को अपार बहुमत के साथ जीतने का मौका दिया ताकि मोदी जी फिर से उन देशों में जाकर भारत का डंका बजा पाएं, जहां पिछले कार्यकाल के दौरान नहीं गए थे।

मुझे तो यह चुनाव, चुनाव लगा ही नहीं। ऐसा लग रहा था जैसे एक अलग ही लेवल का सर्कस था। मायावती मुसलमानों को वोट देने के लिए ऐसे कह रही थी, जैसे उन्होंने मुख्यमंत्री रहते मुसलमानों को जन्नत दे दी हो। अरविन्द केजरीवाल गठबंधन के नाम का गुलाब फूल लिए काँग्रेस के पीछे दौड़ रहे थे और शिवसेना गाली देते-देते भी बीजेपी की हो गई।

तेजस्वी यादव। फोटो साभार: Getty Images

उधर तेजस्वी और तेज प्रताप अलग ही खेल रहे थे। प्रत्याशियों का दल बदल भी ज़रों पर रहा और आलम यह हुआ कि वे खुद ही भूल गए कि वे किस पार्टी से हैं। चुनाव खत्म होने के बाद मोदी जी, जिन्होंने 5 सालों में कभी छुट्टी नहीं ली थी वह भी रेस्ट करने हिमालय की गुफाओं में गए। तब तक इधर नीतीश कुमार को हल्का-हल्का यह लगने लग गया कि बीजेपी तो सांप्रदायिक है।

अब पश्चिम बंगाल की बात कर लेते हैं। वहां सर्कस नहीं, रंगमंच हुआ जिसमें कलाकारों के हाथों में हथियार थमा दिए गए क्योंकि बीजेपी को मंच चाहिए था और ममता को अपना मंच बचाना था।

मैं भी आज भारतीय मीडिया की भूमिका में आकर एक पूरा लेख लिख दिया और राहुल गाँधी का नाम तक नहीं लिया। क्या आपने सोचने की ज़हमत उठाई कि ऐसा क्यों? मैं कहता हूं कि क्यों लिया जाए राहुल गाँधी का नाम? वह तो इस सर्कस के खेल में हैं भी नहीं!

खैर, पत्रकार यूट्यूब चैनल बनाकर खबरें दे रहे थे, एक्टर पत्रकारिता कर रहे थे और नेता एक्टिंग के साथ-साथ कॉमेडी कर रहे थे। चुनाव परिणाम आने के बाद सर्कस के तम्बू खुल गए। पेट्रोल पंप वालों और हलवाइयों ने चुनाव परिणाम आने से पहले ही अपने हिसाब क्लियर करवा लिए। कल तक के युवा नेता फिर से अपनी दुकानों की तरफ लौट गए। सीबीआई वाले अपने ही किए केस वापस ले रहे हैं।

विपक्ष की बैठकें जारी हैं, मीडिया ने भी एग्ज़िट पोल के बहाने टाइम पास कर लिया और तमाम राजनीतिक पंडितों ने अपनी घिसी-पिटी राय भी दे दी। इन सबके बीच जनता में पहले की तरह ही निराशा है। जनता को पता है कि चुनावों में जो भी वादे किए गए थे, सभी जुमले थे।

अब 70 सालों से तो हमें जुमलों की आदत सी पड़ गई है। ऐसे में क्या हम यह मानकर चलें कि लोगों को रोटी खुद कमाकर खाना है क्योंकि राजा कभी गरीबों का नहीं होता।

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