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“क्या मुस्लिम कम्युनिटी का प्रतिनिधित्व सिर्फ मुसलमान सांसद ही कर सकते हैं?”

मुसलमान

मुसलमान

देश में लंबे समय तक लोकसभा चुनावों का दौर रहा और 23 मई को चुनाव परिणाम घोषित होने के साथ ही तमाम दलों और प्रत्याशियों को लेकर अटकलें फैसलों में तब्दील हो गए। खैर, हमें यह समझना होगा कि चुनाव का प्रत्यक्ष संबंध प्रतिनिधित्व से है। हर बार की तरह इस बार भी प्रतिनिधित्व एक बड़ा प्रश्न बना हुआ था।

प्रतिनिधित्व की बात जब भी आती है तो भारत के सबसे बड़े अल्पसंख्यक मुसलमानों के प्रतिनिधित्व का प्रश्न भी उठता है। ऐसे प्रश्न उठने शुरू होते हैं कि मुसलमानों का प्रतिनिधित्व कितना होगा और कौन करेगा? पिछली बार यानि 16वीं लोकसभा चुनाव में जब मुसलमानों का प्रतिनिधित्व बिल्कुल ना के बराबर था, तब भी यह बात उठी कि भारत का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समुदाय जो कि आबादी में 14.2 प्रतिशत है, उसे इतना कम प्रतिनिधित्व क्यों मिला?

बिहार में भी है मुस्लिम सांसदों के प्रतिनिधित्व का सवाल

यही हाल बिहार का भी है। बिहार में मुसलमानों की आबादी 17 प्रतिशत के लगभग है मगर उनकी आबादी के अनुसार उनका प्रतिनिधित्व ना तो लोकसभा में और ना ही विधानसभा में रही है। पिछली लोकसभा चुनाव में बिहार से केवल 4 मुसलमान चुने गए थे। समाज की एक बड़ी आबादी का ना के बराबर प्रतिनिधित्व दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को मज़बूत नहीं, बल्कि कमज़ोर ही करेगा।

एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि प्रतिनिधित्व की बात जब भी आती है, तो हम केवल इस हिसाब-किताब में लग जाते हैं कि किस धर्म या जाति के लोगों को कितना प्रतिनिधित्व मिला। हम आंकड़ों के उलझनों में उलझ जाते हैं। एक धर्म या जाति के लोगों का उसी धर्म या जाति के लोगों द्वारा प्रतिनिधित्व केवल प्रतीकात्मक रूप में लिया जाता है।

यदि इक्के-दुक्के मौकों की बात ना की जाए तो मुस्लिम समाज का प्रतिनिधित्व लगभग हमेशा ही रहा है। उदाहरण के तौर पर 1984 और 1989 के चुनाव की बात कर सकते हैं, जब जब क्रमशः 49 और 42 मुसलमान सांसद चुनकर संसद पहुंचे थे।

ऐसे में हमें उन मानसिकताओं से बाहर आना पड़ेगा जिसके तहत हम कहते हैं कि सिर्फ मुसलमान सांसद ही मुसलमानों की समस्याओं का ध्यान रख सकता है। यदि ऐसी बात है फिर तो 1984 और 1989 के दौरान मुसलमानों की काफी समस्याएं खत्म हो जानी चाहिए थी, क्योंकि उन 10 सालो में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व ठीक-ठाक रहा है। इसलिए हमें यह समझना होगा कि केवल मुसलमान सांसद ही मुसलमानों की समस्याओं का हल नहीं कर सकते हैं।

प्रतिनिधित्व को समझना होगा

अब प्रश्न यह उठता है कि समस्या का समाधान क्या है? इसका उत्तर यह है कि सबसे पहले प्रतिनिधित्व को परिभाषित किया जाए। इनसाइक्लोपीडिया ऑफ ब्रिटेनिका में प्रतिनिधित्व की परिभाषा इस प्रकार दी गइै है-

“प्रतिनिधित्व वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से सारे नागरिकों या उनके किसी अंश की भावनाएं, अधिमान्यताएं, दृष्टिकोण और इच्छाओं को उनकी ऐच्छिक कार्य का रूप प्रदान करता है और जिनके प्रतिनिधि होते हैं, उन्हीं पर बाध्यकारी प्रभाव होता है।”

इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रतिनिधित्व का वास्तविक अर्थ क्या है? इस परिभाषा के अनुसार, प्रतिनिधित्व विचारों, हितों और मुद्दों का होना चाहिए ना कि केवल धर्म या जाति का। केवल प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व से ज़्यादा बदलाव की संभावना नहीं है, क्योंकि अगर इसकी संभावना होती तो आज भारत के दलितों तथा आदिवासियों का पूर्ण रूप से उत्थान हो जाना चाहिए था।

प्रतिनिधित्व का असल मतलब क्या है, इस मुद्दे पर मैं Hannah F Pitkin की पुस्तक ‘The Concept of Representation’ (1967) के अंतर्गत प्रतिनिधित्व के सिद्धांतों की बात करना चाहूंगा। उन्होंने अपनी पुस्तक में चार प्रकार के प्रतिनिधित्व की बात की है। इनमें पहला Formalistic यानि कि औपचारिक प्रतिनिधित्व, दूसरा Symbolic यानि प्रतिकात्मक, तीसरा Descriptive यानि विवरणात्मक और चौथा Substantive यानि तात्विक।

इसमें सबसे महत्वपूर्ण वह चौथे प्रकार के प्रतिनिधित्व को बताती हैं। उनके अनुसार यह वो प्रतिनिधित्व है जिसमें किसी समुदाय की आवाज़ को प्रतिनिधित्व दिया जाता है। अर्थात इसमे किसी समुदाय के असल मुद्दों को प्रतिनिधित्व दिया जाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि किसी भी समुदाय, धर्म या जाति के पास इस चौथे प्रकार की प्रतिनिधित्व होनी चाहिए।

समुदाय के लोगों की बात सुननी होगी

प्रतिनिधित्व करने वाला चाहे कोई भी हो लेकिन अगर वह उस समुदाय के असल मुद्दों की बात करता है, तो वह असल प्रतिनिधित्व माना जाएगा। भारत में प्रतिनिधित्व का मुद्दा इस बात से जुड़ा हुआ कि किसी भी समुदाय धर्म या जाति का लोकसभा या विधानसभा में कितना प्रतिनिधित्व रहा है। जबकि दूसरी तरफ वह सामुदायिक प्रतिनिधि उस समुदाय के असल मुद्दों को उठाने में नाकामयाब होता आ रहा है।

इस अर्थ में हम दलित समुदाय की बात कर सकते हैं। हम जानत हैं कि दलित समुदाय के लिए लोकसभा और विधानसभा दोनों जगह सीटें आरक्षित की गई हैं। इस प्रकार उनका इन संस्थानों में उचित प्रतिनिधित्व है मगर हम देखते हैं कि आज भी वे समाज में उस प्रकार से उत्थान नहीं कर पाए हैं, जैसा कि आशा की गई थी।

फोटो साभार: Getty Images

ठीक इसी प्रकार जब मुसलमानों के प्रतिनिधित्व की बात आती है, तब हम संख्या और प्रतिशत निकालने बैठ जाते हैं। हां, यह ज़रूर है कि उनका उचित प्रतिनिधित्व हो मगर सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि उनके प्रतिनिधि उस समुदाय का असल प्रतिनिधित्व कर सके ताकि ज़रूरी मुद्दे विधानसभा और लोकसभा तक पहुंचने में सफल हो पाएं।

अगर कोई प्रतिनिधि उसी समुदाय का होने के बावजूद यह करने में असफल हो जाता है, तब ऐसे प्रतिनिधि की कोई आवश्यकता नहीं रह जाएगी। आवश्यकता यह है कि अगली दफा जब भी हम वोट करने जाएं तो इस बात का ध्यान ज़रूर रखें कि क्या हम फिर से जाति और धर्म के आधार पर तो अपने प्रत्याशी का चयन नहीं कर लेंगे?

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