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“हम दलितों के बीच भी आपस में फैला हुआ है जातिगत भेदभाव”

प्रतीकात्मक तस्वीर

प्रतीकात्मक तस्वीर

मैं और मेरा दोस्त नवीन, दोनों एक ही कॉलेज में साथ-साथ पढ़ते थे। धीरे-धीरे हम अच्छे दोस्त बन गए। इसी बीच यह भी पता चल गया कि दोनों एक ही जाति से ताल्लुक रखते हैं। दोनों की विचारधारा भी लगभग एक थी बेबाक, निर्भीक, अपनी जाति को लेकर कोई संकुचित मानसिकता ना रखने वाली थी।

अब जाति की बात आई है तो आप सब लोग आतुर हो रहें होंगे कि आखिर हमारी ऐसी कौन सी जाति है? तो पाठकों मेरी उसकी जाति ‘चमार’ है। कुछ साल पहले तक भी हम दोनों एक दूसरे को एक ही जाति का समझते थे लेकिन आपको तो पता ही है, जो चीज़ आपको एक करती है, वह कहीं-ना-कहीं अधूरी होती है, तो यहां भी कुछ ऐसा ही हुआ।

नवीन चूंकि अपनी ही जाति का था, तो उसके विवाह के लिए मैंने एक रिश्ता बताया। नवीन को कोई आपत्ति नहीं थी लेकिन उसके बुज़ुर्गों ने एकाएक पूछा कि जाति क्या है? तो मैंने बड़े ही सीधे शब्दों में कह दिया कि हमारी ही है। अगला सवाल मुझसे पूछा गया कि तुम्हारी क्या है? मैंने कहां मेरी तो चमार है, जो आपकी है।

अब असली किस्सा यहां शुरू हुआ, चमार तो हो पर कौन से चमार हो? यह सवाल मेरे और मेरे दोस्त नवीन के लिए बिल्कुल ही नया था और थोड़ा अजीब भी। क्या इतने बंटे होने के बाद भी कुछ बंटवारा बाकी रह गया है, जो हमें अभी तक नहीं पता है?

खैर, आगे चलते हैं, हमने कहा,

हमें तो ऐसा कुछ मालूम नहीं है।

इसपर जवाब आया,

जब शादी ब्याह करने जाते हैं तो यह पूछते हैं कि चमार में कौन से चमार हो।

हमने कहा,

आप ही बता दो कि कौन से चमार होते हैं और कौन से नहीं।

तो उस बंटवारे की फेहरिस्त बहुत लंबी और घिनौनी थी, जिसमें कुछ का नाम लेते हुए उन्होंने नाक सिकोड़ ली थी और अपने आपको राजवंशी कुल का मान लिया था। उन्होंने कहा कि चमारों में जितनी भी जाति आती है, उन सबमें आपस में शादियां नहीं होती हैं।

तो जिज्ञासा से भरे हमने भी पूछा कि क्यों नहीं होती? उनका जवाब केवल यह था,

नहीं होती तो बस नहीं होती, पहले से नहीं होती है, तो हम कैसे करें? वो हमसे छोटे हैं, हम उनसे कैसे कर लें?

यहां आकर सब्र का बांध टूटता सा नज़र आ रहा था, फिर उन्होंने साफ शब्दों में दलील दी कि लड़की जाटव है और लड़का चमार है, शादी नहीं हो सकती है। इस पर मैंने कहा कि इसका उल्टा होता तो, तो तब भी नहीं होती, उन्होंने कहा कि हां तब भी नहीं होती।

उन दोनों की जाति जानने के बाद मुझे अपनी और नवीन की जाति में भी भेद नज़र आने लगा। यहां आपस में कुछ भी बना लिया हो पर बाकी जाति के लिए बस आप चमार हो चमार हो।

यह समझ आने लगा कि जिस अंबेडकरवाद की दुहाई देते-देते हम जी रहे थे, वह तो हमारे कपड़ों, गाड़ियों, नौकरियों ओर घरों की चकाचौंध में कहीं गुम है, असलियत तो कुछ और ही है। असलियत यह है कि हम आज भी उन सामाजिक ताने-बाने में कहीं-ना-कहीं उलझे हुए हैं, जो आज़ादी के पहले के भारत से चला आ रहा है, जहां हमें कोई मानवीय अधिकार प्राप्त नहीं थे। जिस मनुवाद को हम टटोलते रहते हैं दूसरी जातियों के मध्य, वह तुम्हारे हमारे बीच में है।

अब यहां कुछ तथाकथित दलित चिंतक आएंगे कहेंगे कि यह क्या बकवास है, यह क्यों लिखा है, इसका क्या मतलब है? तो उनसे कहना चाहूंगा कि जब तक इंसान अपने अंदर की कमियों को नहीं जान पाता है, तब तक वह किसी भी बदलाव को प्राप्त नहीं कर सकता है।

मैं अपनी जाति में ऐसी अलगाववादी विचार रीति रिवाज़ की भर्त्सना करता हूं, जो हमें एक दूसरे से अलग करती हो। एक दूसरे के समक्ष एक प्रतिद्वन्दी के रूप में खड़ा करती हो, हम सामाजिक तौर से एक होने में बाधा उत्पन्न करती हो।

क्या आप चाहते हैं कि आपकी एकता केवल किसी राजनीतिक पार्टी विशेष को वोट देने तक ही रहे, उस एकता का धरातल पर कोई वजूद ना हो। ऐसी कुरीति, विचारधारा, सामाजिक कानून का खात्मा केवल आज का युवा कर सकता है, क्योंकि बुज़ुर्गों ने ऐसा करने की कभी नहीं सोची, नहीं तो यह नौबत नहीं आती।

अंबेडकरवाद आपको एक करता है और जातियां आपको अलग करती हैं। अब फैसला आपका है। अगर आप भी इस फासले को खत्म करना चाहते हैं, तो ज़्यादा-से-ज़्यादा लोगों तक इस बात को पहुंचाइये। बाकी नवीन ने उस दिन प्रण किया कि अपनी ही बताई गई जाति में शादी नहीं करेगा, सामाजिक दंश को तोड़कर रहेगा।

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