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“मानवता की जीत है कठुआ मामले पर कोर्ट का फैसला”

कठुआ मामले पर प्रोटेस्ट

कठुआ मामले पर प्रोटेस्ट

देश को हिला देने वाले कठुआ कांड पर आया फैसला न्याय के प्रति आम आदमी के भरोसे को बढ़ाने वाला है। इस अमानवीय कांड के सुर्खियों में आने के बाद देश की सर्वोच्च अदालत के सक्रिय होने से एक बेहद गरीब खानाबदोश परिवार को न्याय मिला, जिसके लिए गुहार तक लगा पाना भी संभव नहीं हो पाता।

आम लोगों के मतदान से बनने वाली सरकार द्वारा आम लोगों के लिए सहज न्याय तक उपलब्ध नहीं करा पाना वाकई में हमारे देश, केंद्र व राज्य सरकारों और समाज लिए शर्मनाक है। 

जिस देश का समाज अब कमोबेश लड़कियों या महिलाओं के साथ शारीरिक और मानसिक यातनाओं से अधिक विचलित नहीं होता है, वह हाल के दिनों में बच्चों खासकर बच्चियों के साथ हो रहे हिंसक व्यवहार से बहुत अधिक विचलित होने लगा है। सूरत, नदिया, उन्नाव, कठुआ, मुजफ्फरपुर शेल्टर होम, महोबा, टप्पल और भोपाल की घटनाएं बार-बार एक ही सवाल पूछ रही हैं कि समाज बीमार और हिंसक क्यों होता जा रहा हैं?

आंकड़ों पर एक नज़र

असल में सच्चाई भी यही है कि हम एक बीमार और हिंसक समाज बनते जा रहे हैं, जहां बच्चों के प्रति हिंसा के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। आंकड़ों की बात करें तो साल 2001 से 2016 के बीच बच्चों के खिलाफ अपराध के जो मामले दर्ज़ हुए, उनमें 89% की वृद्धि हुई

साल 2001 में 10, 814 मामले दर्ज़ हुए, जिनकी संख्या 16 साल में बढ़कर 595, 089 हो गई। इसी दौर में बच्चों के खिलाफ अपराध के लंबित मामलों की संख्या 21, 233 थी, जो 2016 में 11 गुना बढ़कर 2, 27, 739 हो गई।

केवल उत्तर प्रदेश की बात करें, तोनैश्नल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो’ की 2017 में आई रिपोर्ट के अनुसार 2015 से 2016 के बीच बच्चों के साथ बलात्कार की घटनाओं में 400 प्रतिशत का इज़ाफा हुआ। इसी रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2016 में रोज़ 106 रेप के मामले दर्ज़ किए गए।

इन घटनाओं के विरोध में सभी को एक मंच पर आना होगा

इन तमाम घटनाओं पर होना यह चाहिए था कि विपक्ष, नागरिक समाज, लेखक, पत्रकार और आम जन सब मिलकर सरकार को घेरें। मीडिया, कानून व्यवस्था पर सवाल उठाए ताकि व्यापक स्तर पर बन रहे दबाव की वजह से ऐसी घटनाओं को होने से पहले  ही रोकी जा सके। यह मुद्दा इतना बड़ा बने कि कदम उठाने के लिए सरकार मजबूर हो जाए। पुलिस महकमा सतर्क हो जाए और कुछ मासूमों की जान बचाई जा सके।

फोटो साभार: Getty Images

बच्चों के खिलाफ ऐसे अपराधों को रोके जाने के लिए कैसी पहल कदमी की ज़रूरत है? आखिर क्या वजह है कि हमारे हिंसक समाज के सामने छोटी बच्चियां इस कदर असुरक्षित हो गई हैं? सबसे बड़ा सवाल कि मज़बूती का दम भरने वाली सरकारें ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए क्या कर रही हैं? इन सवालों पर कोई हंगामा नहीं है।

जो हो रहा है, वह इसके उलट है। इस तरह की तमाम घटनाओं को मज़हबी बना दिया जा रहा है। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर लोगों को सेक्युलर होने पर तोहमत भेजी जा रही है। हर व्यक्ति से सवाल पूछा जा रहा है, ताने दिए जा रहे हैं कि फलां मामले के समय सक्रिय लोग अब चुप क्यों हैं?

क्या सरकारों को हम उनके दायित्व से मुक्त कर रहे हैं?

बायनरी में बांट कर तमाम घटनाओं को देखना असल में सरकारों को उनके दायित्व से मुक्त कर दे रहा है, इसको समझने के लिए कोई तैयार नहीं है। हमारे पुरखों ने अंग्रेज़ों के जिस ‘बांटों और राज करो’ नीति को पीठ पर लादे हुए थे, उसी का इस्तेमाल आज हमारी सत्ता, हमारे खिलाफ कर रही है।

फोटो साभार: Getty Images

जो लोग सवाल पूछ रहे हैं, उन्हें देशद्रोही के तोहमत से नवाज़ा जा रहा है। कुछ लोगों को सत्ता के खौफ से डराया भी जा रहा हैं। फर्ज़ी राष्ट्रवाद, हिंदुत्व का पागलपन और नफरत को उस स्तर पर ले जाया जा रहा है, जहां ऐसे सवाल पूछने वालों के मन में ना तो सर्वाइवर के लिए कोई संवेदना रहे, ना ही इस तथ्य की कोई चिंता कि हमारा समाज बच्चों के लिए किस कदर असुरक्षित होता जा रहा है।

यह अधिक परेशान करने वाली स्थिति है। इससे उबरने के लिए समाज को सरकार से पहले सक्रिय होना होगा, नहीं तो हम संवेदनहीन समाज के वह प्राणी बन जाएंगे, जिसके बिना भी एक स्वस्थ समाज की कल्पना की जा सकती है।

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