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दिल्ली में महिलाओं के लिए मुफ्त सफर की घोषणा से क्यों चिढ़ रहे हैं लोग?

दिल्ली मेट्रो में महिलाएं

दिल्ली मेट्रो में महिलाएं

मुबंई के लोकल और मुबंई वेस्ट की बसों की तरह ही दिल्ली के लोगों के लिए लाइफ लाईन दिल्ली मेट्रो और डीटीसी की हरी और लाल बसें हैं। दिल्ली मेट्रो में हर रोज़ औसतन 28 लाख और दिल्ली डीटीसी बसों में 12 लाख मुसाफिर सफर करते हैं।

इन्हीं दिल्ली मेट्रों और डीटीसी बसों में महिलाओं को मुफ्त यात्रा की सुविधा देने की घोषणा करके मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने अगले विधानसभा चुनाव के लिए दांव लगा दिया है। गौरतलब है कि अगले साल की शुरूआत में दिल्ली में विधानसभा चुनाव होने हैं और दिल्ली में कामकाजी महिलाओं और कॉलेज जाती लड़कियां मेट्रो और बसों का इस्तेमाल करती हैं।

लोकलुभावन घोषणाएं करने वाले पहले शख्स नहीं हैं केजरीवाल

दिल्ली सरकार की यह घोषणा लोक कल्याणकारी राज्य की ओट में एक लोक-लुभावन पहल ही है। ऐसा करने वाले अरविंद केजरीवाल पहले राजनीतिज्ञ नहीं हैं। पॉपुलर राजनीति में कन्ज़ूमर बेस राजनीति के उदाहरण भारतीय राजनीति के इतिहास में हज़ारों हैं, जिसकी शुरूआत अविभाजित आंध्रप्रदेश में एन.टी. रामा राव  ने दो रूपया किलो चावल देने की घोषणा करके की थी।

दो रुपया किलो चावल की घोषणा ने उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचा दिया था। इसके बाद दक्षिण की राजनीति में मिक्सी, पंखे, आयरन और वॉशिंग मशीन मुफ्त में देने तक के वायदे हुए और वादा करने वाले दलों को इसका फायदा भी मिला।

कभी महात्मा गाँधी ने औपनिवेशिक सत्ता की जड़ों को हिलाने के लिए हर इंसान की ज़रूरत ‘नमक’ को नमक सत्याग्रह करके करोड़ों भारतीयों को आज़ादी की लड़ाई में शामिल कर लिया था। अब लोगों की ज़रूरतों के हिसाब से लोकलुभावन घोषणाएं करके जनता से जुड़ने की कोशिश होती है।

केजरीवाल हमेशा करते रहे हैं, लोकलुभावन राजनीति

अरविंद केजरीवाल हमेशा लोकलुभावन घोषणाओं के ज़रिये अपनी राजनीति करते रहते हैं। पिछली विधानसभा चुनाव से पहले भी दिल्ली के हरेक परिवार को बीस हज़ार लीटर पानी और बिजली का बिल आधा करने का विश्वास दिलाया था और सत्ता में आते ही इस वादे को पुरा भी किया। इसलिए उनके ताज़ा फैसले से जो प्रतिक्रियाएं आ रही हैं, उन्हें कुछ साचों में बांटकर देखा जा सकता है।

पहली यह कि क्या सार्वजनिक संसाधन बिल्कुल मुफ्त उपलब्ध कराई जानी चाहिए, खासकर तब जब सरकारें आर्थिक रूप से अरामदेह स्थिति में ना हों। सार्वजनिक परिवहन सेवा निश्चित तौर पर एक बड़ा क्षेत्र है, जिसमें आम आदमी की रोज़ाना की दुश्वारियां भी कम नहीं हैं।

अरविंद केजरीवाल। फोटो साभार: Getty Images

दिल्ली के लोग वायु प्रदूषण से किस तरह जकड़े हुए हैं, एनजीटी से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक सार्वजनिक परिवहन के इस्तेमाल को प्रोत्साहन देने के लिए इसे सस्ता करने की वकालत कर चुके हैं। जब सरकार मुनाफा कमाने वाली कोई व्यापारिक संस्था नहीं है तो इस तरह के फैसलों का स्वागत क्यों नहीं होना चाहिए?

दूसरा यह कि समानता की बात करने वाले देश में एक जेंडर को प्राथमिकता देना गलत है, इससे महिला सशक्तिकरण के विचार को चोट पहुंचेगी। दिल्ली सरकार के मौजूदा फैसलों पर समानता और महिला सशक्तिकरण पर चोट करने वालों से पूछना चाहिए वे किस हक से डीटीसी के बसों में अपने लिए रिज़र्व सीट और मेट्रो में रिज़र्व डब्बे में सफर करती है।

क्या इससे उनकी समानता और महिला सशक्तिकरण की भावनाओं पर चोट नहीं पहुंचती है? जो महिलाएं टिकट खरीद सकती हैं, सरकार ने उनके लिए टिकट खरीदने का विकल्प बंद नहीं किया है, वे टिकट खरीद कर समानता और महिला सशक्तिकरण का अपना विश्वास कायम कर सकती हैं।

तीसरा यह कि महिलाएं पब्लिक ट्रांसपोर्ट का ज़्यादा इस्तेमाल करेंगी, निजी वाहनों का उपयोग कम होगा, परिवार में थोड़ी बचत होगी और महिलाओं को आर्थिक मुनाफा होगा। सस्ती सार्वजनिक परिवहन सेवा के ज़रिये महिलाओं को आर्थिक लाभ मिलने से वे सार्वजनिक जगहों पर घरों से बाहर निकलेंगी, महिलाओं के लिए एक स्पेस का निमार्ण होगा और सार्वजनिक स्पेस के निमार्ण से ही महिलाएं समानता और सशक्तिकरण के लिए अधिक उन्मुख तो होंगी।

फोटो साभार: Getty Images

इसके अलावा मासिक बचत से कई महिलाओं को आर्थिक सशक्तिकरण का लाभ भी मिलेगा। कामकाजी महिलाओं के साथ-साथ दिल्ली शहर में छात्राएं जो महंगी सार्वजनिक सेवा होने के कारण आर्थिक तंगी से परेशान होती हैं, उन्हें  भी इसका सीधा लाभ मिलेगा।

चौथा यह कि सब्सिडी के फैसले से विकास कैसे संभव है और इसके बोझ को एक वर्ग पर क्यों डाला जा रहा है? मौजूदा फैसले का बोझ दिल्ली की अर्थव्यवस्था पर पड़ेगी जिसके इंकार नहीं किया जा सकता है मगर मुख्य सवाल यह होना चाहिए कि कोई भी सरकार जब लोकलुभावन फैसला लेती है, तो उन्हें बोझ क्यों मान लिया जाता है?

कौन सी सरकार लोकलुभावन या लोक-कल्याणकारी योजनाएं लागू नहीं करती हैं? हाल ही में पंजाब सरकार लड़कियों को नर्सरी से उच्च शिक्षा तक मुफ्त शिक्षा देने का फैसला कर चुकी है। हर सरकार इस तरह के फैसले लेती रहती है, जिससे एक विशेष तबके को फायदा होता है। क्या सरकारों के बेफजूल के फैसलों का सरकारी धन पर बोझ नहीं पड़ता है?

मूर्तियों के निर्माण में खर्च होने वाली राशि पर बात क्यों नहीं?

बड़ी-बड़ी मूर्तियों को बनाने में जो करोड़ों रुपये खर्च किए जा रहे हैं, उससे समाज के किन तबकों को लाभ होता है और कौन-सा विकास का पैमाना तय होता है? जिस फैसले से समाज के एक वर्ग की चेतना में विकास होता है या आर्थिक समृद्धि मिलती है, उनको बोझ नहीं कहा जाना चाहिए। वह विकास के लिए ही लिया गया एक कदम है जिसके दूरमागी प्रभाव भी होते हैं।

फोटो साभार: Getty Images

इस बात से कोई इंकार नहीं है कि राजनीतिक लाभ से प्रेरित यह पॉपुलिस्ट फैसला, कई सांस्थानिक विफलताओं की ओर भी इशारा करती हैं जिन्हें ढकने की कोशिश की जा रही है मगर महिलाओं की सुरक्षा का दायित्व भी सरकार का है, जिसे केवल सस्ती सार्वजनिक सेवाओं के उपायों से ही सुलझाया नहीं जा सकता हैं।

इसके लिए और भी ज़रूरी कदम उठाने पड़ेगे, जिनपर सरकार का ध्यान जाना अधिक ज़रूरी है। महिलाओं के हेल्थ, एजुकेशन और भी कई सुविधाओं को सहज और सुलभ बनाने की ज़रूरत है, जो सरकार की ज़िम्मेदारी है। दिल्ली सरकार ने इस दिशा में पहला कदम तो उठाया है।

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