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मुखर्जी नगर केस: “क्या वीडियो के ज़रिए आधा सच शेयर करना सही था?”

मुखर्जी नगर में एक घटना हुई, हुआ यूं कि पुलिस वालों ने एक गाड़ी को रोका, अंदर बैठा एक सरदार तलवार लहराते हुए पुलिस वालों को डराने लगा। बाद में पुलिस वाले अपने साथियों के साथ आए और उसे नियंत्रण में करने की कोशिश करने लगे। इसपर उस आदमी ने तलवार से एक पुलिस वाले को घायल कर दिया और इसी वक्त उसके बेटे ने गाड़ी स्टार्ट कर पुलिस वालों पर गाड़ी चढ़ा दी।

निश्चय ही पुलिस वालों की नाराज़गी जायज़ थी, उन्होंने उन बाप बेटों को तबियत से धोया और उन दोनों ने भी अपनी पूरी ताकत से पुलिस वालों को घायल किया। अब आप कहेंगे इसमें नया क्या है, यह तो रोज़ की कहानी है। दरअसल, असली कहानी इसके बाद शुरू होती है। लोगों ने इस घटना का वीडियो बनाया और उतना ही शेयर किया, जिसमें पुलिस वाले बाप-बेटे को पिट रहे थे। इसका असर यह हुआ कि उन बाप बेटों के समर्थन में पूरा सिख समाज उतर आया, पुलिस वालों को सस्पेंड करने, चालक और बेटे को छोड़ने की मांग करने लगा। देर रात तक हालात मुश्किल रहें और 3 पुलिस वालों को सस्पेंड कर दिया गया।

ऑटो ड्राइवर और पुलिस के बीच हुई झड़प/ इस घटना के विरोध में प्रदर्शन। फोटो सोर्स- सोशल मीडिया।

अब कुछ सवाल उभर कर सामने आते हैं-

सवाल है पुलिस के आत्मबल का क्या मतलब रह जाता है? निश्चय ही पुलिस वाले भी दूध के धुले नहीं होते हैं पर अगर जनता में शासन का डर खत्म हो जाए तो क्या देश ज़िन्दा रह पाएगा?

हमने आसिफा के केस में देखा कि किस तरह आरोपियों के पक्ष में तिरंगा यात्रा आयोजित की गई, भीड़ द्वारा लोगों की हत्याएं हुईं और वे लोग बड़े-बड़े मंत्रियों के साथ फोटो खिंचाते दिखें। क्या हम देश का सही जनतंत्र बना रहे हैं? इस भीड़तंत्र में अगर सत्य का पैमाना सिर्फ संख्या से होगा तो एक आम आदमी को न्याय कैसे मिलेगा? एक सरकारी अधिकारी एक पुलिस वाला अपने कर्तव्यों का पालन कैसे करेगा? कैसे हम उससे निष्पक्षता निडरता और न्याय की उम्मीद कर पाएंगे?

साहब देश को भीड़तंत्र से बचाइये, वरना इसे अफगानिस्तान-पाकिस्तान सोमालिया बनते देर नहीं लगेगी।।

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