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“विश्व में लोकतंत्र को विद्रोह या क्रांति से ज़्यादा सेनाओं से खतरा है”

सेना

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बीते कुछ दिन दुनिया में लोकतंत्र के लिए बहुत भारी रहे। मिस्त्र की लोकतांत्रिक प्रणाली द्वारा चुने गए पहले राष्ट्रपति की अदालत के बाहर मौत हो गई। 2013 में राष्ट्रपति मुर्सी का तख्तापलट कर दिया गया था। सेना ने मुर्सी समेत उनके समूह के कई नेताओं को गिरफ्तार कर लिया था। मुर्सी को मौत की सज़ा सुनाई गई थी। इसी मुकदमे की सुनवाई के लिए वह अदालत जा रहे थे। उसी दौरान उनकी मौत हो गई।

पाकिस्तान में पत्रकार की हत्या

पाकिस्तान में एक युवा पत्रकार मोहम्मद बिलाल को मार दिया गया। उसकी हत्या करने में पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई का हाथ है। उसकी हत्या पाकिस्तानी सेना और आईएसआई के खिलाफ बोलने के कारण की गई। यह ध्यान देने वाली बात है कि दोनों देशों में अब सेना का शासन है। एक देश में प्रत्यक्ष रूप से तो दूसरे देश में अप्रत्यक्ष रूप से।

सूडान में सेना द्वारा लोकतंत्र का दमन

वहीं, पिछले दिनों सूडान से भी खबरें आई कि वहां लोकतंत्र के समर्थकों को कुचला जा रहा है। वहां 100 से भी ज़्यादा लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया। महिलाओं के साथ वहां की सेना ने बलात्कार किया। पूरी दुनिया में जो लोग सेना को प्रजा की रक्षा के लिए आवश्यक बताते हैं, अब उनके लिए इन देशों की सेनाओं को लेकर क्या रुख है यह सोचने वाली बात है।

सेना द्वारा आवाज़ दबाने की कोशिश

यह एक सामान्य नियम है कि शक्ति सत्ता की भूखी होती है। इन देशों में सेना ने अचानक से तो शासन या सत्ता पर अधिकार हासिल किया नहीं होगा। सेना का विस्तार ही इसकी शक्ति का स्त्रोत होगा। इसी के बाद से सेना दखल देना शुरू कर देती है।

पहले शक्ति का स्त्रोत राजा होता था और वह ही सेनाध्यक्ष होता था। पहले राजा और सेना का संबंध प्रत्यक्ष तौर पर होता था लेकिन अब सेना की रणनीति बनाने से लेकर अधिकतर शक्तियां सैन्य प्रमुख के हाथों में होती है। इससे सेना का राज्य प्रमुख से प्रत्यक्ष संबंध टूट जाता है।

सेना को पहले शोषण और अत्याचार का प्रतीक माना जाता था। अब सेना को लेकर लोगों का दृष्टिकोण बदल गया है। सेना को अब लोग राष्ट्रवाद का प्रतीक मानते हैं। इसकी शुरुआत लगभग बीसवीं शताब्दी से हुई। अब जनता सिर्फ दूसरे देश की सेना को क्रूर समझती है लेकिन सूडान के नागरिक जब अपने अधिकारों के लिए सड़कों पर उतरे तो उन्हें भी अपने देश की सेना की दयालुता के बारे में पता चल गया होगा।

फोटो साभार: Getty Images

सेना को जनता की सुविधाओं में कमी करके सुविधाएं दी जाती हैं। सीमा के भीतर जनता भूख से मर रही होती है लेकिन युद्ध को लालायित पूंजीवादी व्यवस्था सेना में भर्ती करती रहती है। हथियारों का उत्पादन होता रहता है और उन्हीं हथियारों के सौदों में भ्रष्टाचार करके पूंजीवादी राजनेता पैसे कमाते हैं।

मैं सेना के विस्तार का विरोध नहीं कर रहा हूं। सेना राज्य और उसकी रक्षा के लिए ज़रूरी है। मैं बस इसके नुकसान बताने की कोशिश कर रहा हूं। दरअसल, विश्व में लोकतंत्र को विद्रोह या क्रांति से ज़्यादा सेना से खतरा है। हम इसके साक्ष्य इतिहास में ढूंढ़ सकते हैं। जिस प्रकार सेना के हाथों में बंदूक होती है उसी प्रकार सेना का शासन भी बंदूक की शक्ति पर आधारित होता है।

एक तथ्य यह भी है कि लोकतंत्र में गरीबों और शोषितों को बोलने और विरोध करने के सिवा मिलता ही क्या है। राज्य अपनी पुलिस और सेना के दम पर उनसे ये भी अधिकार छीन लेता है।

सऊदी अरब में लोकतंत्र की मांग करने पर फांसी की सज़ा

अभी कुछ दिन पहले ही सऊदी अरब में मुर्तज़ा कुरेसिस नाम के लड़के को फांसी की सज़ा सुनाई गई है। 2011 में उसके भाई अली कुरेसिस को लोकतंत्र के पक्ष में प्रदर्शन करने के दौरान वहां की सेना ने गोली मार दिया था। इसी के विरोध में उस समय 10 साल के मुर्तज़ा ने अपने दोस्तों के साथ मिलकर जगह-जगह पोस्टर और सरकार विरोधी नारे लगाए और लोकतंत्र के लिए आवाज़ बुलंद की।

इसी कारण उसे गिरफ्तार कर लिया गया। उसे अब तक मौत की सज़ा नहीं दी गई थी क्योंकि वह अभी तक नाबालिग था। अब जबकि वह बालिग हो गया है तो उसे मौत की सज़ा सुनाई गई है।

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