Site icon Youth Ki Awaaz

मनुष्य बने रहने के लिए ज़रूरी है कि हम अपनी संवेदनाओं को ना मरने दें

कुछ दिन पहले ही मैं देहरादून से 90 किलोमीटर ऊपर चकराता गया था, जो मुख्य रूप से आर्मी बेस है। दो दिन की यात्रा में मैंने बहुत से स्थानीय लोगों से बात की और इतने में ही मुझे वहां के लोगों के व्यवहार और ईमानदारी के स्तर का अंदाज़ा लग गया।

बहुत से गाड़ी वालों ने हमें एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाया और पैसे देने पर हाथ जोड़ लिया। बहुत लोगों ने तो बिना मेरे बारे में कुछ पूछे मुझे अपने घर में रहने के लिए भी कह दिया। मुझे इस तरह के बहुत सारे उदाहरण मिले जिससे मुझे यह समझ आ गया कि एक मानव के तौर पर वहां के लोग हमसे बहुत ऊपर हैं। लोगों ने बताया कि वहां झगड़ा होना बहुत बड़ी बात है क्योंकि आमतौर पर झगड़ा होता ही नहीं है।

वहां से लौटने के बाद अलीगढ़ की घटना हुई जिसके बारे में कुछ कहने और लिखने-बोलने में हाथ-मुंह कांपने लगता है। ऐसा लगता है कि क्या कहा जाए इस पर, क्या लिखा जाए और लिख भी दिए तो क्या हो जाएगा। ऐसा करने का कोई सोच भी कैसे सकता है लेकिन शर्मनाक सच यही है कि ऐसा हुआ है। यह सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। बस शहर, पीड़ित, अपराधी के नाम बदलते रहते हैं और हैवानियत बढ़ती जाती है। एक के बाद एक ऐसी घटनाएं होती जा रही हैं और हर बार मिलती है तो सिर्फ सांत्वना, दर्द और थोड़ा सा गुस्सा। एक पीड़ित के हिस्से बस यही आता है।

दुख की बात यह है कि ऐसी घटनाओं में भी लोग मज़हब का नाम खोजने लगते हैं और इन घटनाओं को रोकने की बजाए समाज में नफरत फैलाते हैं। हमें इन घटनाओं की आदत पड़ गई है। जैसे एक माहौल में शरीर उसके हिसाब से ढल जाता है, वैसे ही लगातार हो रही ऐसी घटनाओं से हमारी संवेदना भी धीरे-धीरे मर रही है। जब संवेदना मर जाती है तो एक मानव के तौर पर हमारा पतन होने लगता है क्योंकि संवेदना के स्तर पर ही हम एक-दूसरे से जुड़ते हैं और एक-दूसरे के दुख-सुख को समझते हैं। जब वही नहीं रहेगी तो कैसा रिश्ता और कैसा जुड़ाव।

आखिर एक समाज का मतलब क्या हुआ जब हम हमारे आसपास रहने वाले लोगों की समस्याओं से प्रभावित ना हो। आपको यह सोचना चाहिए कि आपके रोज़ाना काम करने से और तथाकथित आधुनिक पैमाने के हिसाब से विकास करने से दूसरों की ज़िंदगी में क्या बदलाव आया। यह ज़रूरी है कि हम अपने आसपास के लोगों के साथ खड़े रहें और एक मानव के तौर पर विकास करें। अन्याय सहने की हमें जो आदत हो गई है, इस आदत को छोड़ना पड़ेगा।

जब तक ऐसी घटनाओं से प्रभावित होकर हम खुद से और अपराधियों से लड़ेंगे नहीं और बहस शुरू नहीं करेंगे, तब तक ऐसा होता रहेगा। कहना नहीं चाहिए लेकिन कल-परसों तक घूम-फिरकर यह हमारे पास भी आएगा। इससे पहले कि ऐसा हो हम इसे रोक दें तो बेहतर होगा। आखिर मनुष्य के तौर पर हम और कितना गिरना चाहते हैं और कब तक चुप रहना चाहते हैं?

तस्वीर प्रतीकात्मक है, आभार- Pexels.com

 

Exit mobile version