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“मैं मार्क्स को पढ़ने से डरता हूं कि कहीं मुझे भी नक्सली ना बता दिया जाए”

कार्ल मार्क्स

कार्ल मार्क्स

मोदी सरकार में मीडिया की स्वायत्तता पर लगातार सवाल उठ रहे थे। जिस प्रकार से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की पुलिस ने पत्रकारों को गिरफ्तार किया है, उससे भी ऐसा ही लगता है लेकिन इससे पहले एक और पत्रकार गिरफ्तार हुआ जिसका नाम है रूपेश कुमार सिंह। यह मामला कुछ बाकी पत्रकारों के मामले से अलग है। बताते चलें कि रूपेश को एक हार्डकोर नक्सली बताकर पुलिस ने गिरफ्तार किया है।

रूपेश की पत्नी की ओर से सोशल मीडिया पर जो विवरण आया है, उसके मुताबिक 4  जून की सुबह 8 बजे रूपेश अपने दो साथियों, मिथिलेश कुमार सिंह और मोहम्मद कलाम के साथ घर से औरंगाबाद के लिए निकले और दो घंटे बाद तीनों का मोबाइल ऑफ हो गया। परिवार वालों की चिंता बढ़ने लगी।

5 जून को रूपेश के परिवार वालों ने रामगढ़ थाने में गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखवाई। इसी दिन रामगढ़ पुलिस रूपेश का मोबाइल उनके घर से यह कहकर ले गई कि जांच में ज़रूरत है और इसे दो घंटे में लौटा दिया जाएगा लेकिन यह मोबाइल अब तक नहीं लौटाया गया है।

हार्डकोर नक्सली बताकर गिरफ्तार किए गए पत्रकार रूपेश।

अगले दिन 6 जून को मिथिलेश का फोन आया कि वह ठीक हैं और घर आ रहे हैं लेकिन तीनों घर नहीं पहुंचे। रामगढ़ पुलिस ने तीनों को ढूंढने के लिए स्पेशल टीम भी बनाने की बात कही और परिवार से गुज़ारिश की गई कि अगर ये लोग घर पहुंच जाएं तो तुरंत पुलिस को बता दिया जाए।

वहीं, अगले दिन 7 जून को अखबार में खबर छपी, “विस्फोटक के साथ तीन हार्डकोर नक्सली रूपेश कुमार सिंह, मिथलेश कुमार सिंह और मोहम्मद कलाम को शेरघाटी-डोभी पुलिस द्वारा गिरफ्तार किया गया है।”

रूपेश एक पत्रकार के तौर पर काम करते हैं, रूपेश के लेख कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते हैं। रूपेश आदिवासियों की समस्याओं, पर्यावरण और सरकार की नीतियों को आलोचनात्मक रूप में लिखते हैं। उनकी गिरफ्तारी पहले से ही संदेह के घेरे में है। कहीं उनको सरकार के खिलाफ और आदिवासियों के समर्थन में लिखने के कारण फंसाया तो नहीं जा रहा?

रूपेश कम्युनिस्ट विचारधारा का समर्थन करते हैं, वह पहले AISA के सदस्य भी रह चुके हैं। शायद इस कारण उनको नक्सली बताकर फंसाना ज़्यादा आसान हो जाता है। 

न्यूज़ चैनल 24*7 पर ईप्सा शताक्षी का लेख प्रकाशित हुआ है। ईप्सा शताक्षी रूपेश से मिलीं और इन दिनों रूपेश के साथ जो कुछ भी घटा उसको लेख का रूप दे दिया। उन्होंने अपने लेख में रूपेश से जुड़े कई तथ्यों को सामने रखा। उन्होंने यह लिखा कि रूपेश ने उन्हें बताया कि उनके सामने उनकी गाड़ी में विस्फोटक रखा गया। उनको गिरफ्तार 4 जून को किया गया था न कि 6 जून को, तो उन्हें दो दिन छिपाकर क्यों रखा गया।

ईप्सा ने अपने लेख में दावा किया कि रूपेश को शारीरिक और मानसिक रूप से प्रताड़ित किया गया। उनसे कहा गया, ”आदिवासियों के लिए लेख और कविताएं  लिखना छोड़ दो इससे माओवादियों को प्रोत्साहन मिलता है। पढ़े-लिखे हो, शादीशुदा हो, जंगल-ज़मीन के बारे में क्यों चिंतित रहते हो? सरकार के खिलाफ लिखना छोड़ दो, हमारी तुमसे कोई दुश्मनी नहीं है। सरकार ने इतनी अच्छी नीतियां बनाई हैं उनके बारें में लिखो।”

अगर यह सच है कि पुलिस ने विस्फोटक खुद गाड़ी में रखकर रूपेश को फंसाया है, तो यह गंभीर मामला है और पुलिस ने यह भी बताया है कि रूपेश के पास से नक्सली साहित्य मिला है। क्या पुलिस यह बताएगी कि नक्सली साहित्य में उसे क्या मिला है? सामाजिक कार्यकर्ता वरवरा को जब गिरफ्तार किया गया था तब उनके परिवार से यह सवाल किया गया था कि वह मार्क्स और माओ को क्यों पढ़ते हैं।

मार्क्स को पढ़ने से कोई नक्सली कैसे हो जाता है!

अगर मार्क्स, लेनिन या माओ को पढ़ने से कोई नक्सली हो जाता है तो सारे विश्वविद्यालयों के इतिहास, राजनीति शास्त्र, समाज शास्त्र, अर्थशास्त्र और दर्शनशास्त्र के शिक्षकों और विद्यार्थियों को जेल में डाल देना चाहिए क्योंकि आपके हिसाब से मार्क्स और माओ को पढ़ने वाला हर व्यक्ति नक्सली है। यह सब तो कम्युनिस्ट साहित्य हैं और कम्युनिस्ट साहित्य तो सरकार की नज़र में नक्सली साहित्य है।

अगर कम्युनिस्टों की कविताएं सरकार के मुताबिक कम्युनिस्ट साहित्य में आती हैं तो इतने सालों से तो हम धूमिल, पाश, गोरख पाण्डे, नागार्जुन, फैज़ अहमद फैज़, जौन एलिया और हबीब जालिब को किताबों में पढ़ते-सुनते आ रहे हैं इन सबने अपनी कविताओं में अपनी विचारधारा का खुलकर वर्णन किया है तो क्या इनको पढ़ने से हम नक्सली हो गए!

भारत के कम्युनिज़्म का चेहरा ही भगत सिंह हैं!

अगर कम्युनिस्म का अध्ययन करने से सरकार की नज़रों में नक्सली बन जाता है तो सरकार को भगत सिंह के लेखों के संकलन को भारत में बैन कर देना चाहिए। वर्तमान सरकार का भगत सिंह को लेकर क्या नज़रिया है, ये सोचने का विषय है। अगर हर कम्युनिस्ट नक्सली है तो भगत सिंह सरकार की नज़र में क्या हैं? अगर भारत में कम्युनिज़्म को कुचलना है तो उसके लिए भगत सिंह की विचारधारा को मिटाना पड़ेगा क्योंकि भारत के कम्युनिज़्म का चेहरा ही भगत सिंह हैं।

मैं राजनीति विज्ञान का छात्र हूं। मैंने मार्क्सवाद को पढ़ा है, मेरा झुकाव मार्क्सवाद की ओर है। मैंने मार्क्स की किताबें पढ़ी हैं और मेरे पास विश्व के कम्युनिस्ट नेताओं की जीवनी है, सिवाय माओ के। मार्क्सवाद का अधिक अध्ययन करने के लिए लेनिन और माओ की विचारधारा का अध्ययन किया जा सकता है लेकिन अभी तक मैंने न माओ को पढ़ा न उनके विचारों को। इसके पीछे एक डर है जिसे मेरे भीतर पैदा किया गया है।

कार्ल मार्क्स। फोटो साभार: Twitter

मै डरता हूं माओ को पढ़ने से। क्या सारे विश्वविद्यालयों के इतिहास विभाग में चीन की क्रांति और माओ को नहीं पढ़ाया जाता होगा लेकिन अगर हमारे घर की अलमारी में माओ की किताबें हों तो हम अर्बन नक्सल हो जाते हैं। अगर सिर्फ माओ की किताब पढ़ने से कोई नक्सली हो जाता तो अभी तक हिटलर की ‘मीन काम्फ (मेरा संघर्ष)’ और नाथूराम गोडसे की ‘मैंने गांधी को क्यों मारा’ पुस्तक अभी तक बैन क्यों नहीं हुई है।

नाथूराम गोडसे को पढ़कर कुछ लोग गाँधी से नफरत करें, ऐसा संभव नहीं है क्या? या सिर्फ इसलिए कि वो हिंदूवादी था और हिटलर दक्षिणपंथी था इसलिए उनको पढ़ना सरकार की नज़र में अपराध नहीं है।

ऐसा कभी मेरे साथ भी तो हो सकता है कि पुलिस कभी मुझसे भी पूछ ले कि मै मार्क्स को क्यों पढ़ता हूं। मैं भी सरकार की नीतियों के खिलाफ लिखता हूं। अगर मेरे घर में माओ की किताब हुई तो मेरे लिए खतरा और भी बढ़ सकता है। तब मुझे भी अर्बन नक्सल बोला जा सकता है। क्या हम इस कगार पर पहुंच गए हैं कि हमें एक विचारधारा से डर लगने लगा है जो गरीबों, असहायों और सर्वहाराओं का नेतृत्व करने का दावा करती है।

कहीं हमारा देश किसी हिटलर जैसे तानाशाह के चंगुल में तो नहीं फंसने जा रहा। हिटलर की गद्दी को भी सबसे ज़्यादा खतरा कम्युनिस्टों से था। उसने सबसे पहले कम्युनिस्टों को देशद्रोही जैसी संज्ञाएं दी, उनको खत्म किया था। फासीवादियों को सबसे ज़्यादा डर कम्युनिस्टों से लगता है। कहीं इसी का नतीजा तो यह नहीं है कि भारत में कम्युनिस्टों का दमन किया जा रहा है।

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