पश्चिम बंगाल के NRSS हॉस्पिटल में की गई जूनियर डॉक्टरों की पिटाई की मैं कड़े शब्दों में निन्दा करता हूं। ऐसा करने वालों के साथ कठोर कार्रवाई और उन्हें सज़ा मिलनी चाहिए, क्योंकि हमारे देश में सदियों से वैध या डॉक्टर को भगवान का दूसरा रूप माना जाता है। या कहें कि भगवान के बाद दूसरी शक्ति के रूप में देखा जाता है। इन्हें (वैध या डॉक्टर) हमारी संस्कृति में बहुत ही सम्मानीय रूप में देखा जाता है, क्योंकि हमारे वेद, पुराणों और उपनिषदों में भी इनका एक अलग ही महत्व बताया गया है लेकिन तब, जब वे अपनी ज़िम्मेदारी को सच्चाई के साथ निभा रहे हो।
NRSS हॉस्पिटल में जो कुछ हुआ या जो पुराने अन्य मामले हैं, वे बहुत ही चिंताजनक हैं। वजह हमारे देश में स्वास्थ्य के लिए भारत सरकार द्वारा GDP का 1.2% दिया जाता है, जो बहुत ही कम है क्योंकि US, UK और चीन में ये 8 से लेकर 12% तक है और पूरे विश्व का औसत 3% तक आता है, इसलिए हमारे देश में स्वास्थ्य सेवाओं और सेवा प्रदान करने वालों का बुरा हाल है। इतने बुरे हाल में काम करने वाले डॉक्टर्स और अन्य लोगों पर ऐसे हमले किए जाएंगे तो सुविधाओं में और गिरावट आएगी।
डॉक्टरों की कमी से जुझता देश
WHO कहता है, 1000 आबादी पर 1 डॉक्टर होने चाहिए लेकिन पूरे देश का औसत है 11 हज़ार आबादी पर 1 डॉक्टर। कुछ प्रदेशों में हालात और खराब हैं। बिहार में 28391 लोगों पर 1 डॉक्टर है, उत्तर प्रदेश में 19962 आबादी पर 1 डॉक्टर है और दिल्ली में 2203 व्यक्ति पर 1 डॉक्टर है। इतनी खराब हालत पर भी NRSS हॉस्पिटल जैसे कृत्य होंगे तो सुविधाएं और खराब होंगी।
हॉस्पिटल की, सुविधाओं की, दवाइयों की, डॉक्टर और स्टाफ की कमी है। मेडिकल स्टाफ के ऊपर काम का बहुत दबाव होता है, उनके साथ ऐसी घटना होगी तो सुविधा और खराब होगी। डॉक्टर और मरीज़ के बीच दूरियां बढ़ेंगी।
हमारा डॉक्टरों से नाराज़ होने से ज़्यादा बेहतर होगा कि सरकार से सुविधाओं को मुहैया कराने की मांग करें, डॉक्टर की संख्या बढ़ाने की मांग करें और उनके स्टाफ बढ़ाने की मांग करें, जिससे अच्छी सुविधाओं का लाभ मिले। एक सर्वे बताता है कि 75% डॉक्टर ऐसे हैं, जो कभी-ना-कभी इस प्रकार की हिंसा के शिकार होते हैं, तो प्रश्न यह उठता है कि आखिर अब तक IMA ने किसी कार्रवाई की मांग क्यों नहीं की?
अब इसे बस बंगाल का मुद्दा ना बनाकर पूरा देश का मुद्दा बनाया गया, तो पूरे देश के डॉक्टर और उनके स्टाफ के हक की बात कर ली होती। यह मुद्दा देशव्यापी तो हुआ लेकिन सिर्फ बंगाल के मुद्दे पर प्रकाश पड़ा, बाकी अन्य जगहों पर यह आंदोलन राजनीति की भेंट चढ़ता हुआ दिख रहा है। जो मांगे बंगाल में थीं, वहीं मांग पूरे भारतवर्ष के डॉक्टर के लिए करनी चाहिए थी। ऐसा हुआ नहीं, इसलिए IMA और अन्य डॉक्टरों के अबकी बार के इस दोहरे मापदंड की भी कड़े शब्दों में निन्दा करता हूं। यह कोई पहला हमला नहीं है, जो डॉक्टरों के ऊपर हुआ हो। इससे पहले इसी वर्ष कई ऐसे मामले हुए हैं इसलिए प्रश्न यह उठता है कि
- जब एक अस्पताल में BJP के सांसद (अनन्त हेगडे) ने हॉस्पिटल स्टाफ के साथ मारपीट की थी, तब कहां थी IMA?
- जब गौरखपुर के DRD मेडिकल कॉलेज में ऑक्सीजन की कमी से सैंकडों मासूम बच्चे मर जाते हैं और डॉ. कफील, डॉ. मिश्रा और उनकी पत्नी को आरोपी बनाया जाता है, डॉक्टर कफील द्वारा IMA से गुहार लगाई जाती है परन्तु IMA द्वारा कोई कार्रवाई नहीं की जाती है।
- जब महाराष्ट्र में डॉक्टर पायल तावडी को जातीय उत्पीड़न की वजह से आत्माहत्या करनी पड़ी, तब IMA और अन्य डॉक्टर कहां थे?
- आज वर्तमान में बिहार में दिमागी बुखार से मासूम बच्चों की जान जा रही है, बड़ी संख्या में गंभीर रूप से बच्चे बीमार हैं, IMA का कोई बयान या प्रतिक्रिया आई क्या?
इन तमाम बड़े मुद्दों पर चुप्पी साधने के बाद अचानक IMA और अन्य डॉक्टर एकाएक अपने हित और सुरक्षा की बात को लेकर सड़क पर आ जाते हैं, हमें लगा ये डॉक्टर्स की सुरक्षा और उनके हितों का मुद्दा है, डॉक्टर्स और मरीज़ों के बीच बढ़ते अविश्वास का मुद्दा है, जिसे एक अंजाम तक तक पहुंचना चाहिए लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ।
आखिर इतने बड़े आन्दोलन से मिला क्या?
IMA और तमाम उन डॉक्टरों को जो बंगाल के बाहर से आते हैं, उनको इस आंदोलन से क्या मिला? क्या यह आंदोलन कहीं राजनीति से प्रेरित तो नहीं था? या ऐसा हो कि राजनीति की भेट चढ़ा दिया गया? ऐसा प्रतीत हो रहा है कि देश का हर सिस्टम अब सिर्फ राजनीति में लगा है। वास्तव में यह आंदोलन डॉक्टरों और मरीज़ों के रिश्तों में बढ़ती दूरियों को कम करने के लिए था। तो क्यों इस देशव्यापी आंदोलन को केवल बंगाल की मांग पूरी होने पर खत्म कर दिया गया? ऐसा लग रहा है कि आंदोलन को राजनीतिक हवा दी गई, जिसका परिणाम यह हुआ कि देशव्यापी आंदोलन को बंगाल के निष्कर्ष पर समाप्त कर दिया गया। क्या इनका (डॉक्टर्स और IMA) का भी राजनीतिकरण हो गया है?