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इमरजेंसी के बाद कितनी बदली थी भारतीय राजनीति की तस्वीर?

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इन्दिरा गॉंधी के खिलाफ सात नुक्तों की याचिका पर फैसला सुनाते हुए पांच में उनको रियायत प्रदान कर दी थी लेकिन दो नुक्तों पर उन्हें दोषी मानते हुए उनकी लोकसभा सदस्यता खारिज़ कर 6 वर्ष के लिए उन्हें कोई भी चुनाव लड़ने से अयोग्य ठहरा दिया था।

लंदन के एक अखबार ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर टिप्पणी करते हुए लिखा था, “यह एक ऐसा फैसला है, जैसे ट्रैफिक कानून तोड़ने के लिए प्रधानमंत्री को कुर्सी से बेदखल कर देना”।

नवजात लोकतंत्र के लिए झटके की तरह था यह फैसला

उस समय देश का लोकतंत्र नवजात था, जिसे लेकर तमाम आशंकाओं का घटाटोप छाया हुआ था। स्वयं इंदिरा गॉंधी इस बात से भयभीत थीं कि अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति चिली की सरकार की तरह उनकी सरकार को भी षड्यंत्र करके गिरवाना चाहते हैं। भीषण शीत युद्ध के दौर में भारत अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्रों के निशाने पर था। अमेरिका और उसकी लौबी के देश व्यक्तिगत रूप से इंदिरा गॉंधी से नाराज़ थे, जिनके कारण वह साम्राज्यवादी हितों के लिए भारत का इस्तेमाल नहीं कर पा रहा था। इस परिप्रेक्ष्य में देखें, तो अमेरिका के पिछलग्गू माने जाने वाले इंग्लैड के अखबार का इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को अतिरंजित मानना सोद्देश्य नहीं ठहराया जा सकता है।

राजनीतिक परिणामों की अनदेखी नहीं कर सकती न्यायपालिका

आज भी परंम्परा है कि न्यायपालिका प्रधानमंत्री से जुड़े मामलों में फैसला देते समय सावधानी बरतती है, क्योंकि इस पद को लेकर अति उत्साह में दिया गया फैसला देश को राजनीतिक अस्थिरता में धकेलने का कारण बन सकता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को लेकर दायर याचिकाओं के फैसलों में न्यायपालिका की इस सजगता को नोट किया जा सकता है। बहरहाल, न्यायाधीश भी वर्ग चेतनाओं से परे नहीं होते हैं। ज़मींदारी उन्मूलन अधिनियम ने कई जातियों को कॉंग्रेस और खासतौर से नेहरू घराने के प्रति पूर्वाग्रही बना दिया था। यह शोध का विषय हो सकता है कि इंदिरा गॉंधी के खिलाफ फैसला देने वाले जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा पर ऐसी किसी वर्ग चेतना का प्रभाव था या नहीं।

खतरनाक था सेना से हुक्म ना मानने का आव्हान

लोकनायक जयप्रकाश नारायण निस्संदेह निष्पाप राजनेता थे लेकिन हार्डकोर कम्युनिस्ट के अपने अतीत के बावजूद आदर्शवादिता की पुट की वजह से वह भावुकता का शिकार हो जाते थे। उन्होंने जनसभा में सेना और पुलिस से सरकार का आदेश ना मानने का आव्हान करके अपने खिलाफ बुने जा रहे अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र से भयभीत इंदिरा गॉंधी को आपातकाल लागू करने का नैतिक और वैधानिक औचित्य प्रदान कर दिया था।

सोवियत संघ के प्रभाव के कारण आपातकाल का उपयोग इंदिरा गॉंधी ने कमोबेश जनवादी व्यवस्था प्रदान करने के रूप में किया। रोज़मर्रा के भ्रष्टाचार में कमी और दफ्तरों में कार्यानुशासन कायम करके उन्होंने इसका अनुभव कराया लेकिन संजय गॉंधी का परासंवैधानिक सत्ता केन्द्र के रूप में प्रभावी हो जाना दूरगामी तौर पर उनके लिए बड़े कलंक का कारण बन रहा था, जिसकी उन्होंने पुत्र मोह में अनदेखी करके अपने लिए बड़ा अनर्थ किया। इमरजेंसी के कारण धरातल की सूचनाएं ऊपर तक बहुत कम पहुंचती थीं, प्रेस भी सेंसरशिप में जकड़ दिया गया था, इसलिए प्रशासन और पुलिस की मनमानियों व ज़्यादतियों से सरकार बेखबर हो गई। परिवार नियोजन जैसा बेहतर कार्यक्रम इसके कारण सरकार के लिए कलंक कथाओं की वजह बन गया।

उत्तर में सूपड़ा साफ, दक्षिण खड़ा साथ

आश्चर्यजनक यह है कि इसके बावजूद इंदिरा गॉंधी ने जब इमरजेंसी खत्म कर चुनाव कराने का फैसला किया, तो उत्तर भारत में भले ही उनका सूपड़ा साफ हो गया हो लेकिन दक्षिण भारत उनके साथ खड़ा नज़र आया। 1977 के चुनाव के बाद गठित जनता पार्टी सरकार ने शाह आयोग बनाया, जिसने इमरजेंसी की ज़्यादतियों की सुनवाई की। शाह आयोग की सुनवाई को जमकर प्रचारित करवाया गया। उम्मीद यह थी कि इन वृतांतों के बारम्बार स्मरण से जनता कॉंग्रेस से इतनी अधिक घृणा करने लगेगी कि वह फिर कभी सत्ता में वापस नहीं आयेगी।

इमरजेंसी का मुद्दा हो गया अप्रासंगिक

लेकिन ढाई वर्ष बाद ही लोगों ने इन सारे अपराधों को एकतरफ कर इंदिरा गॉंधी को 1980 के चुनाव में सिर माथे ले लिया और भारी बहुमत से उनकी सत्ता में वापसी हो गई। इसके बाद इमरजेंसी के अध्याय का एक तरह से पटाक्षेप हो गया था। इसकी यादें केवल इतिहास के एक प्रसंग के तौर पर बनी रह गई थीं। 1980 के बाद 1985 में इंदिरा गॉंधी के पुत्र राजीव गॉंधी आज तक के सबसे बड़े बहुमत के साथ सत्ता में रिपीट हुए। 1989 में कॉंग्रेस ने सत्ता गंवाई, तो इसलिए नहीं कि विपक्ष ने उसके खिलाफ इमरजेंसी या सिख हत्याओं का मुद्दा उठा दिया था, 1989 की हार की वजह बोफोर्स तोप सौदे में दलाली का मुद्दा था। इसके बाद 1991 से 96 तक कॉंग्रेस ने एक बार फिर राज किया। बाद में अटल जी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार गठित हुई लेकिन उनके कार्यकाल में इमरजेंसी का रोना बहुत नहीं सुना गया।

समाजवादी चैम्पियन फिर लाये लाइम लाइट में

इमरजेंसी के खिलाफ अंडरग्राउण्ड आंदोलन में सबसे बड़ी भूमिका आरएसएस के कार्यकर्ताओं की रही थी। इसके बावजूद इमरजेंसी को सार्वजनिक पटल पर ज़ोर-शोर से उभारने का काम भाजपा पहले कभी नहीं कर पाई। इसका सूत्रपात तो समाजवाद के चैम्पियन मुलायम सिंह यादव ने किया। जब उन्होंने लोकतंत्र सेनानी पेंशन शुरू की उस समय यह बात उठी भी थी कि इससे सबसे बड़ा महिमा मंडन संघ के लोगों का होगा लेकिन मुलायम सिंह के कंधे हमेशा से ही संघ की पालकी के लिए दृश्य या अदृश्य तौर पर हाज़िर रहे हैं। वे सच्चे राष्ट्रवादी जो हैं, जिसके लिए कारसेवकों पर गोली चलवाने के प्रसंग को भूलकर संघ उनकी खुलेआम सराहना भी पहले ही कर चुका है।

मुलायम सिंह के श्रीगणेश से संघ परिवार को मौका मिल गया, जिसके खाते में स्वतंत्रता आंदोलन के लिए ज़ोर ज़ुल्म सहने के नाम पर ज़ीरो बैलेंस था, जिसके कारण उसे हीन भावना का शिकार होना पड़ता था लेकिन इमरजेंसी के बहाने उसे भी एक बड़ी संघर्ष गाथा में मुख्य पात्र के रूप में अपनी भूमिका निभाने का अवसर मिल गया।

विश्वनेता की अर्हता की एक ज़रूरी पूर्ति का मोदी को मिला अवसर

ज़्यादातर प्रतिष्ठापित विश्व नेता किसी ना किसी मुक्ति संग्राम के योद्धा रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी जब एक कालजयी विश्व नेता के रूप में इतिहास में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने को अग्रसर हैं, उन्हें अपने व्यक्तित्व में किसी मुक्ति संग्राम से जुड़े होने का हवाला ना होने की कमी बहुत खलती होगी लेकिन इस बार आपातकाल में उनके भूमिगत योगदान को एक बड़ा फलक प्रदान करके इसकी भरपाई कर दी गई है।

इमरजेंसी को अनुशासन पर्व भी कहा था

विनोबा भावे ने आपातकाल को अनुशासन पर्व की संज्ञा दी थी। लोकतंत्र जब उच्छृंखल वर्ग सत्ताओं के कारण लोक की भलाई की कीमत पर उनके स्वार्थों का पोषण करने लग जाए तो जनोन्मुखी सरकार को कठोर होना पड़ता है, ताकि इन वर्ग सत्ताओं को निज़ाम के अनुशासन में बांधकर आम लोगों के उत्थान के लिए कार्य किये जा सकें।

आज वर्ग सत्ताओं को मैनेज करके सरकार को टिकाए रखने का समय नहीं है। भ्रष्टाचार, मनमानी आदि के कारण पानी सिर से ऊपर हो चुका है और सरकार यथास्थितिवादी रूख अपना रही है। सत्तारूढ़ पार्टी भ्रष्ट तत्वों की पनाहगाह के रूप में तब्दील होती जा रही है। नौकरशाही को नियंत्रित करने की दिलेरी भी वह नहीं दिखा पा रही है। संगठित वर्गों के आगे वह नतमस्तक है लेकिन आम आदमी न्याय से वंचित होता चला जा रहा है। यह स्थिति बदलने के लिए सरकार को असाधारण अधिकारों के इस्तेमाल की गुजांइश बनाए रखनी पड़ेगी, बशर्ते उसके उद्देश्य जनवादी हो। मोदी सरकार को भी एक अनुशासन पर्व की ज़रूरत है लेकिन उसमें परासंवैधानिक शक्ति केन्द्र ना हो और व्यक्तिगत या राजनैतिक रंजिश की वजह से इसका प्रयोग ना होने देने की व्यवस्थाएं ऐसे साफ सुथरे अनुशासन पर्व में निहित हो।

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