बहन जी ने बोला कि यादवों ने गठबंधन को वोट नहीं दिया, भितरघात किया और बीजेपी को वोट शिफ्ट हो गया। इन शब्दों पर ध्यान देने के बाद आपको अंदाज़ा होगा कि यह वही शब्द हैं, जो यादव उछल-उछलकर अति पिछड़ी और दलित समाज की जातियों के लिए बोला करते थे।
बहन जी ने सिर्फ अति पिछड़ी, दलित जातियों की जगह यादव शब्द इस्तेमाल कर दिया था। अब मैं यह पूछना चाहता हूं कि जो यादव अति-पिछड़ों और दलितों को यह बोलकर बदनाम करते थे, टारगेट और इग्नोर किया करते थे कि ये लोग तो बीजेपी को वोट देते हैं और संघी हैं, आज उन यादवों को जब संघी बोला गया है तो उन्हें कैसा लग रहा है?
क्या सफाई देने का मन कर रहा है? बहन जी पर गुस्सा आ रहा है या यादवों को बीजेपी से जोड़ने के कारण शर्म आ रही है? यह तो हुई मानसिक, मनोवैज्ञानिक, राजनीतिक, वैचारिक और सामाजिक प्रताड़ना की बात जो लगातार यादव समुदाय ने अतिपिछड़ी जातियों के लोगों के साथ किया और अभी भी कर रहे हैं। बहन जी ने अब वह सभी प्रताड़नाएं यादवों के ऊपर थोप दी हैं।
क्या यादवों ने इस चुनाव में बीजेपी को वोट दिया है?
जो मेरी समझ है वो यह कि यादव या किसी भी कम्युनिटी के ऊपर आप क्लेम नहीं कर सकते हैं कि वे पूर्ण रूप से संघी या क्रांतिकारी हैं और जहां तक यादवों का मामला है, तो बस एक छोटा सा उदाहरण देंगे कि कैसे कहीं-कहीं सिर्फ जाति का नाम काम करता है। आज़मगढ़ ज़िले से रमाकांत यादव सपा, बसपा और भाजपा तीनों पार्टियों से चुनाव लड़ चुके हैं और अभी 2019 में भदोही की सीट पर काँग्रेस से भी उन्होंने चुनाव लड़ लिया।
2009 में समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार दुर्गा प्रसाद यादव थे और भाजपा के उम्मीदवार रमाकान्त यादव थे। आज़मगढ़ की जनता ने बीजेपी के रमाकांत को चुना क्योंकि वह ज़्यादा बाहुबली थे, ठीक यही सीन 2014 के चुनाव में भी था लेकिन आखिर में इनफॉर्मल समझौतों से सपा के मुलायम सिंह ने बीजेपी के रमाकांत को मात्र 30, 000 वोटों से हरा दिया। अभी भी अगर रमाकांत सपा के अखिलेश यादव के खिलाफ लड़ गए होते तो शायद उनकी ही जीत होती या कुछ वोट से वह हार जाते।
डेटा और मेरे अनुभव के हिसाब से यादवों ने मज़बूती के साथ यादव को चुना है, जो उनकी रक्षा कर सके फिर चाहे वह संघ, बसपा, सपा या कांग्रेस का ही क्यों ना हो! फिर भी क्या हम किसी भी समुदाय को पूरी तरह से ज़िम्मेदार ठहरा सकते हैं कि यह एक कम्युनिटी संघी है या क्रांतिकारी है? मेरे हिसाब से बिल्कुल नहीं लेकिन यादवों ने लगातार यह कहा कि सिर्फ वे ही लड़ रहे हैं, बाकी लोग नहीं।
मायावती जी को सोचना चाहिए कि जब आप किसी पर आरोप लगा रही हैं तो अगले समुदाय को कैसा लगेगा, जबकि वे कंधे से कंधा मिलाकर हमेशा आपके साथ रहे हैं। जब भी आप किसी का अपमान करेंगी तो याद रखिए कि वह अपमान दुनिया का आखिरी अपमान नहीं है, अगला अपमान आपका भी हो सकता है।
जब सब लड़े तो आपने क्लेम किया कि आप और आपकी जाति अकेले लड़ रही थी, जब सबने आपको नेता माना तो आप नेता बनकर सिर्फ अपनी जाति, अपने परिवार का फायदा देखे और जब सभी जातियों ने आपको वोट दिया तो आप बोले कि अतिपिछड़ों ने वोट नहीं दिया है।
आपने एहसान फरामोशी की है, वही आपको वापस मिल रहा है। बहन जी ने बहुत देर से घोषणा की है कि हम तो बचपन से देखते आ रहे हैं कि यादव कोई हॉर्लिक्स या बॉर्नविटा नहीं है जिसे पीते ही आप लड़ने-भिड़ने लड़ेंगे और ऊर्जा संचरित होने लगेगी। यादव भी नॉर्मल इंसान हैं और आगे भी जनता जिसे ठीक समझेगी, वोट देगी।
अब तीसरी बात, जैसा कि बहन जी ने सिर्फ एक जाति का नाम लिया कि ‘यादवों’ ने उनको वोट नहीं दिया, तो अब यह भी एक पॉलिटिक्स है। देश की जनता को मायावती जी से पूछना चाहिए कि उन्हें क्यों लगता है कि यादवों का वोट बसपा के खाेते में नहीं गया है। क्या बसपा की नज़र में सपा सिर्फ यादवों की पार्टी थी? फिर चुनाव से पहले बहुजन का ढोंग क्यों पीटा गया? ऐसे में यह भी तो कहा जा सकता है कि सपा-बसपा गठबंधन अवसरवादी नीति का परिणाम था।
यादव के साथ किसी और भी जाति का नाम बहन जी ले सकती थीं जैसे- कुर्मी, कुशवाहा आदि लेकिन बहन जी ने सिर्फ यादव का नाम लिया। इससे ज़ाहिर है कि बसपा का भी रुझान अतिपिछड़ों के वोट बैंक की तरफ है और जितनी जल्दी यादवों का ढोल पीटने वाले लोग भी इसे समझ लेंगे, बेहतर होगा।
समाजवादी पार्टी अगर आज भी वर्गीकरण के खिलाफ लाए गए अपने डॉक्यूमेंट पर माफी मांग ले और पार्टी का नेतृत्व किसी अतिपिछड़े नेता को दे दे, तो कुछ हालात सुधर सकते हैं। हालांकि मुझे चुनाव के पहले भी पता था कि यह गठबंधन कुछ जातियों का पावर रिलेशन है फिर भी इससे एक सामाजिक गठजोड़ की उम्मीद थी।
इसके टूटने पर मुझे दु:ख हुआ और इस पूरे घटनाक्रम को अतिपिछड़ी जाति की नज़र से देखने के बाद मुझे चीज़ें और स्पष्ट हुईं। अब भी हम लोगों को बहुत सी चीज़ें सीखने, समझने और माफी मांग लेने की ज़रूरत है। हमें यह समझना होगा कि सब साथ लड़ेंगे तो जीतेंगे।