मैंने इस स्पेस पर आखिरी बार तब लिखा था, जब पूरा देश एक्ज़िट पोल के ग्राफ में डूबा हुआ था। एक चैनल पर एंकर ग्राफिक्स के हेलीकॉप्टर पर बैठकर नंबर गिना रहा था। दूसरे चैनल पर पंडित सब बैठकर ज्योतिष के हिसाब से सीटें बांट रहे थे। तब से इडियट बॉक्स नहीं देखा। देखा भी तो न्यूज़ चैनल घूम आने का साहस नहीं हुआ।
हां, इस बीच खबरों के लिए अखबार ज़रूर पढ़ता रहा मगर उसमें भी सिर्फ भविष्य फल। अखबार में वही एक स्पेस होता है, जहां भविष्य को लेकर संभावनाएं नज़र आती हैं, जिनका कोई भविष्य नहीं है, उन्हें भी भविष्य फल पढ़ना चाहिए। कभी-कभी फल में से भविष्य निकल पड़ता है।
अब लिखना और बोलना ज़रूरी हो गया है। द वायर और इंडियन एक्सप्रेस में काम कर चुके स्वतंत्र पत्रकार प्रशांत कनौजिया को यूपी पुलिस ने शनिवार को सिर्फ इसलिए गिरफ्तार कर लिया क्योंकि प्रशांत ने किसी और की बनाई वीडियो अपने ट्विटर हैंडल से वनलाइनर कैप्शन के साथ शेयर की थी।
वीडियो में एक अनजान महिला खुद को योगी आदित्यनाथ की प्रेमिका बताती है। उसके साथ प्रशांत ने कैप्शन लिखा,
इश्क छुपता नहीं छुपाने से योगी जी।
Ishq chupta nahi chupaane se yogi ji pic.twitter.com/dPIexKheou
— Prashant Jagdish Kanojia (@PJkanojia) June 6, 2019
प्रशांत प्राइमरी रूप से वीडियो लीक करने वाले नहीं हैं ना ही अकेले उनकी प्रोफाइल से वीडियो सोशल मीडिया पर आया है, तो क्या एफआईआर सिर्फ कैप्शन पर आधारित है? क्योंकि वीडियो को हज़ारों लोगों ने लाइक और शेयर किया है, उस हिसाब से तो उन सब पर आरोप दर्ज होने चाहिए मगर गिरफ्तार सिर्फ प्रशांत कनौजिया हुए, यह कैसे और क्यों संभव है? किसी और के वीडियो के साथ कैप्शन लिखना किस धारा के तहत अपराध है?
अब सवाल नहीं पूछ सकता है पत्रकार
हमने ऐसे भारत की कल्पना कब कर ली, जहां पत्रकार ना सवाल पूछ सकते हैं, ना व्यंग कस सकते हैं, कटाक्ष कर ही नहीं सकते, आलोचना तो खैर! तो पत्रकार करे क्या? मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों को जन्मदिन की बधाई वाला पोस्ट लिखे? मैं कहता हूं यही करना चाहिए इसी में स्कोप है।
ज़्यादा दिन नहीं हुआ है, जब ममता बनर्जी पर एक मीम शेयर करने पर एक बीजेपी कार्यकर्ता को गिरफ्तार कर लिया गया था। उस वक्त अगर लोकतंत्र खतरे में था, तो आज लोकतंत्र सलाखों के पीछे जाकर बहुत सुरक्षित और कूल महसूस कर रहा है। है ना?
पत्रकार को गिरफ्तार करने का यह इकलौता मामला नहीं
क्या पत्रकार को गिरफ्तार करने का यह इकलौता मामला है? जवाब है नहीं। थोड़ा और पीछे लौटिए, जब मणिपुर के पत्रकार किशोरचंद्र वांगखेम को सिर्फ इसलिए गिरफ्तार कर लिया गया था, क्योंकि उन्होंने राज्य में बीजेपी सरकार के मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह की कड़ी आलोचना करते हुए वीडियो अपलोड किया था।
कहा गया कि किशोरचन्द्र ने सरकार की आलोचना करते वक्त जिस भाषा का प्रयोग किया था, वह ठीक नहीं थी। वाकई? सरकार की आलोचना की क्या भाषा होगी? यह किस कानून के तहत तय होता है? निश्चित तौर पर भाषा सबकी शालीन होनी चाहिए मगर खराब भाषा ही अगर जेल में बंद कर देने का पैमाना है तो नेहरु को अय्याश बताकर व्हाट्सएप्प के कबाड़ में मैसेज ठेल देने वाले बीजेपी आईटीसेल प्रमुखों को सबसे पहले जेल में बंद किया जाना चाहिए।
हमारे प्रधानमंत्री ने तो पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को “भ्रष्टाचारी नंबर वन” कहा था। क्या यह अच्छी भाषा की श्रेणी में आता है? क्या खराब भाषा की ही वजह से चुनाव आयोग ने योगी आदित्यनाथ को चुनाव के दौरान 72 घंटों तक मुंह बंद रखने के लिए नहीं कहा था? तो खराब भाषा किसको कहते हैं?
सवाल सिर्फ किशोरचंद्र या प्रशांत का नहीं है, सवाल है कि क्या फर्क रह गया फिर इस दौर में और 75 के आपातकाल में? जब पत्रकारों को लिखने और बोलने के लिए हथकड़ियां पहनाई गई थी, आज किसी पत्रकार की गिरफ्तारी को आप अखबारों में पढ़ रहे हैं, कल को हमारे और आपके बगल की कुर्सी पर बैठा कोई पत्रकार जेल में डाला जा रहा होगा। मगर इन सबके बीच आप क्या कर सकते हैं? आपको तो चुप रहना सिखाया गया है। आप मार्टिन निमोलर की इस कविता को पढ़ सकते हैं-
पहले वे कम्युनिस्टों के लिए आए
और मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं था
फिर वे आए ट्रेड यूनियन वालों के लिए
और मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं ट्रेड यूनियन में नहीं था
फिर वे यहूदियों के लिए आए
और मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं यहूदी नहीं था
फिर वे मेरे लिए आए
और तब तक कोई नहीं बचा था
जो मेरे लिए बोलता
पहले आपके बोलने के तमाम दरवाज़े बंद हो जाएंगे फिर आपके घर के दरवाज़े बंद किए जाएंगे, इसलिए लिख रहा हूं कि कुछ मत बोलिए। बोल भी रहे हैं तो वही बोलिए जो योगी जी को अच्छा लगे। कुछ लिख भी रहे हैं, तो बगल के थाना से परमिशन ले आइये। खुश रहिए, आज़ाद भारत में सांस लेते रहिए और ज़िंदा रहिए।