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“कबीर को समझना है तो उन्हें भक्तिकाल से ऊपर उठकर पढ़ें”

भारत के उत्तर से दक्षिण तक और पूर्व से लेकर पश्चिम तक आप जहां भी जाएंगे आपको किसी ना किसी योद्धा की वीर गाथा सुनने को मिल जाएगी, जिसने अपने जीवन में शस्त्रों से अनेक शत्रुओं को पराजित किया या किसी सम्राज्य से बेखौफ होकर टक्कर ली। यह तो शस्त्र के बल पर अपने शत्रुओं को परास्त करने की बात रही लेकिन इसी भारत में एक ऐसे व्यक्ति का भी जन्म हुआ, जिसने अपने शब्दों के बल पर हज़ारों सालों से चली आ रही कुप्रथाओं, भेदभाव व अज्ञानता पर अपने शब्दों से प्रहार कर उसकी जड़ें हिलाकर रख दी।

ऐसे ही थे सन्त कबीर दास, जिनका जन्म सन् 1440 में उत्तर प्रदेश के लहरतारा ताल, काशी में हुआ था। इनके जन्म की निश्चित तारीख में इतिहासकारों और लेखकों में भेद है। सन्त कबीर ऐसे महान कवि, समाज सुधारक व मार्गदर्शक हुए, जिन्होंने समूचे विश्व को मानवता की एक बेहतर राह दिखाई। देश में यू तो अनेक कवि व समाज सुधारक आदि हुए लेकिन उन सबमें संत कबीर का पद कुछ अलग ही है, शब्दों के ज़रिए किसी व्यवस्था पर उनके प्रहार उस व्यवस्था की जड़ें हिलाकर रखने वाली हैं।

संविधान निर्माण में संत कबीर के विचारों का योगदान-

कबीर को अपना वैचारिक गुरु मानते हुए भारतीय संविधान निर्माता व भारत के प्रथम कानून मंत्री बाबा साहब डॉ. बी.आर. अम्बेडकर जी ने उनकी वाणी से शिक्षा लेते हुए उनके मानवतावादी विचारों से भारतीय संविधान को रूप दिया।

बाबा साहब की चर्चित पुस्तक ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ की शुरुआत में ही कबीर के विचार मौजूद हैं। कबीर की मुख्य रचनाएं साखी, शब्द और रमैनी के रूप में मौजूद हैं, जिसमें उन्होंने अवधि, सधुकडी और पंचमेल भाषा का प्रयोग किया है।

उनके समय भारत में मुगल सल्तनत ने अपने पैर जमा लिए थे। उस समय मुगलों द्वारा जबरन धर्म परिवर्तन की बात आम थी लेकिन हिन्दू धर्म में अछूत कही जाने वाली जातियों का धर्म परिवर्तन उनकी खुद की इच्छा से भी हो रहा था। उस समय ब्राह्मणों ने धर्मांतरण रोकने के लिए अनेक प्रयास किए लेकिन कबीर जैसे महान दूरदर्शी, दार्शनिक ने यह जान लिया था कि हिन्दू जातियों से निकलकर मुस्लिम धर्म में जाने वालों को भी उसी असमानता का सामना करना पड़ता है।

उस समय कबीर के निर्गुणवाद ने इन दोनों विचारधाराओं को सीमित कर उस बड़े वर्ग को इनसे बचाए रखा। कबीर खुद लिखना नहीं जानते थे हालांकि उनके शिष्यों ने उनकी वाणी को दर्ज किया। कबीर अपने विचारों के ज़रिये हिन्दू-मुस्लिम दोनों की वर्चस्व की लड़ाई को भी जवाब देने से नहीं चुके, कबीर ने कहा है,

हिंदु कहूं तो मैं नहीं मुसलमान भी नाहि

पंच तत्व का पूतला गैबी खेले माहि।

अर्थ- मैं ना तो हिन्दु हूं, ना ही मुसलमान। इस पांच तत्व के शरीर में बसने वाली आत्मा न तो हिन्दुहै और ना ही मुसलमान।
(I am neither a hindu nor a muslim. The soul inside the body of five elements is neither hindu nor muslim)

हिन्दू तो तीरथ चले मक्का मुसलमान

दास कबीर दोउ छोरि के हक्का करि रहि जान।

अर्थ- हिन्दू तीर्थ करने जाते हैं। मुसलमान मक्का जाते हैं।

कबीर दास दोनों छोड़कर परमात्मा के निवास आत्मा में बसते हैं।

(Hindu goes on pilgrimage muslim goes to mecca, Kabir leaving both aside resides in soul, the abode of God)

कबीर के ये शब्द ईश्वरवाद को नकारते तो हैं और निर्गुणवाद को स्वीकारते हैं। कबीर के हर दोहे हर शब्द में ऐसा भाव है जो सीधे-सीधे किसी भी व्यवस्था पर चोट करने का काम करता है।

जातिवाद पर सन्त कबीर के शब्द कुछ इस प्रकार हैं-

जाति ना पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान

मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान।

 

काहे को कीजै पांडे छूत विचार।

छूत ही ते उपजा सब संसार।।

हमरे कैसे लोहू तुम्हारे कैसे दूध।

तुम कैसे बाह्मन पांडे, हम कैसे सूद।।

 

एक बूंद, एकै मल मुतर,

एक चाम, एक गुदा।

एक जोती से सब उतपना,

कौन बामन कौन शूद।।

अगर आप कबीर को पढ़ते हैं, तो एक ही निष्कर्ष निकलता है कि किसी ने बड़ी चालाकी से एक महान दार्शनिक सन्त कबीर को भक्तिकाल का भक्त कबीर साबित करने की पुरजोर कोशिश की। यही बात गुरु रविदास व गुरु नानक, गुरु सेन, गुरु नामदेव आदि के साथ भी हुई। इन सबकी विचारधारा निर्गुणवाद की थी जो कि मूर्ति पूजा, अंधविश्वास, पाखण्ड आदि का खंडन करती थी लेकिन इनके विचारों को सीमित दायरे में रखने हेतु इन्हें भक्तिकाल से जोड़ दिया गया।

लेकिन ऐसे महान दार्शनिक व कवि को कोई बांधकर नहीं रख सकता है, आप कबीर को भक्ति से ऊपर उठकर पढ़ना शुरू करेंगे तो आप उनकी मूल विचारधारा तक पहुंच पाएंगे। अंत में नमन ऐसे महान कवि, दार्शनिक को जिसने समूचे विश्व को मानवता की राह दिखाई।

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