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“25 साल की उम्र में मैंने हिन्दी को सहेली के रूप में देखने का फैसला लिया था”

चार साल की उम्र में मैं अपने माँ-बाप के साथ बेंगलुरू छोड़कर दिल्ली चली आई। हज़ारों मील दूर मैंने वह घर छोड़ा जहां तमिल और कनड्डा बोला जाता था। अचानक से, जो शब्द मेरे मुंह से तमिल में निकल आते थे वह अपने आप चुप हो चुके थे। आखिर, किसको समझ आता, सिवाय मम्मी के?

जहां मेरी पाटी (नानी) मुझे प्यार से “चिन्नु कुट्टी” बुलाया करती थी, वहां दादी की “बिटिया” में बराबर भावना आने लगी, मगर भाषाएं बिखर गईं। कहते हैं कि छोटी उम्र में दिमाग इतना तेज़ चलता है कि दो तीन भाषाएं सीखना बहुत आसान होता है। पता नही क्यूं मगर हिन्दी बोलना मेरे लिए इतना मुश्किल पड़ा कि मैं घरवालों से भी केवल अँग्रेज़ी में बात करती थी।

मम्मी पापा मेरे लिए “हैरी पॉटर” और “टिनटिन” खरीदते थे, मगर “लोटपोट” या “चाचा चौधरी” का नाम सुनते ही मुझे घबराहट होती थी। मुझे डर था कि मेरे पापा, ताउ, बुआ, दादी, चचेरे भाई-बहन – जो सब बेझिझक हिन्दी भाषी हैं, मुझपर हस पड़ेंगे, क्यूंकी दिल्ली शहर में रहकर हिन्दी बोलना तो सबको आना चाहिए।

काफी कोशिश की मैंने

दादी के यहां घंटों बिताती थी, कुछ सीखने के विश्वास में। दिक्कत यह थी कि उनके आधे दांत उम्र के कारण गिर चुके थे तो लगभग पांच-छ: शब्द ही समझने को मिलता था। वैसे भी, दादी ज़्यादातर अपने कमज़ोर घुटनों के बारे में बात करती थी। अपने मकसद में मैने घर में बर्तन मंझणे वाली दीदी से कुछ सीखने का फैसला लिया। अब मुश्किल यह कि बीस-पच्चीस घरों में बर्तन धो-धोकर कौन शख्स एक बच्चे को हिन्दी पढ़ाएगा?

फिर आया स्कूल का पहला साल

मैं एक क्लासरूम में घुसी जहां सारे बच्चे हिन्दी बोल रहे थे। एक कोने में बैठकर मैं स्कूल बेल का इंतज़ार कर रही थी। उस दिन हमारे एक टीचर ने हमको लकड़ी से बने हिन्दी अक्षर दिये यह बोलकर कि हर कोई एक शब्द बनाए। मुझे आज भी याद है कैसे उस टीचर ने मुझे ज़ोर-ज़ोर से डांटा, क्यूंकि मैं यह काम कर नहीं पाई।

अगली परीक्षा पांचवी क्लास में आई

हर दिन टीचर एक स्टूडेंट को खड़ा कर किताब से पढ़वाया करती थी। जब मेरी बारी आई तो मेरे मुंह से शब्द रुक-रुककर निकल रहे थे और लोग हंसने लगे। पांचवी क्लास में मैने तय किया कि मैं अब से प्रयास करना ही बंद करूंगी और अगर मैं एग्ज़ाम में फेल हो गयी तो हो गयी ख़त्म बात।

मगर परीक्षाओं का सिलसिला स्कूल में ही कहां खत्म होता है!

दवाई खरीदते वक्त, ज़ोमैटो वाले को रास्ता बताते वक्त, और ऑटो वेल भैय्या से लड़ाई करते वक्त हिन्दी की ज़रूरत होती है। भाषा का महत्व यह है कि एक इंसान दूसरे को समझ पाए और दूसरों को बिना समझे अकेलापन भी महसूस होता है। कई बार ऐसे कुछ लोग होतें हैं जो आपकी ज़िंदगी में आकर बिना जाने आपकी सोच बदल देते हैं। और इन लोगों की वजह से मैंने हिन्दी बोलने और लिखने का साहस जुटाया और यह थी मेरी आखिरी परीक्षा।

जो सालों से मैं असंभव सोचती थी वह अब मेरे आंखों के सामने है

तो क्या हुआ अगर हिन्दी मेरी मातृभाषा नहीं है? तो क्या हुआ अगर स्कूल में मेरे क्लासमेट्स हड़बड़ी में थे? डर को दबाकर रखने का एक ही अंजाम है और वो है निष्क्रियता। आज पच्चीस साल की उम्र में मैने यह फ़ैसला लिया है कि हिन्दी को चुनौती के रूप में कम और सहेली के रूप में ज़्यादा देखूं।

हां शायद मैं हर दो मिनट के बाद शब्दकोश का वेबसाइट खोल कर देखती हूं, हां मुझे एक भी किशोर कुमार का गाना नहीं आता, हां एक लेखक होने के बावजूद यह मेरा पहला हिन्दी आर्टिकल है लेकिन यह सब मेरी कोशिश है हिन्दी भाषा को अपनाने की। वो क्या है जो लोग काई बार कहते हैं? हां-
“देर आएं दुरुस्त आएं”

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