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“कॉलेज में दोस्तों को लगता था कि ऊंची जाति से होने के कारण मुझे अधिक मौके मिलते थे”

प्रतीकात्मक तस्वीर

प्रतीकात्मक तस्वीर

नोबेल साहित्यकार गार्सिया मार्केज की उपन्यास “वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ सॉलिट्यूड” में एक रोचक-सा प्रसंग आता है। एक बार गाँव के सभी लोगों की स्मृति कुछ वक्त के लिए खो जाती है। स्मृति खो जाने के कारण, सभी लोगों के बीच सारे गिले-शिकवे, ऊंच-नीच, अंहकार और भेदभाव सब मिट जाता है।

भारत में जाति और जातिवादी राजनीति के लिए यह कामना एक अद्भुत आनंद देती है। एक सुबह सारे भारतीय जगे और सभी प्रकार के जातिगत और धार्मिक विभाजन भूलकर नए सिरे से विचार, व्यवहार और काम करे। हमारे तमाम समाज सुधारकों ने जाति के बंधन से मुक्ति के लिए लंबे समय तक तरह-तरह के प्रयास किए।

किसी ने जाति तोड़ी, किसी ने धर्म छोड़ा तो किसी ने नया धर्म बना डाला। फिर भी वही ढाक के तीन पात। आज लोग धर्म बदल कर दूसरे धर्म में चले जाते है परंतु जाति के धब्बे को रगड़-रगड़ कर साफ करते है मगर धब्बा धुलता ही नहीं है। समाज खोद-खोदकर उसकी जाति निकाल ही लेता है।

सिख धर्म गुरूओं ने अपने धर्म में हर प्रकार के भेदभाव और ऊंच-नीच का विरोध किया मगर आज सिख धर्म में भी जातीय शोषण की बातें आती हैं।

समाज में जाति तोड़ने, मिटाने और जातिविहीन समाज बनाने के लिए कई कार्यक्रम चलाए गए। ‘भूदान आंदोलन’ के प्रणेता ने जाति सूचक “सरनेम” के स्थान पर प्रियदर्शन रखने की सलाह दी, तो जयप्रकाश नारायण ने “भारती” रखने का सुझाव दिया। फिर भी वर्ण व्यवस्था की संरचना जिसे लुई दुमांत ने अपनी रचना “होमो हाइरारकियस” में चित्रित किया, जिसमें ब्राह्मण सबसे ऊपर और दलित सबसे नीचे हैं, वह खत्म नहीं हुई।

फोटो साभार: Twitter

जातियों के मायाजाल में हम सब उलझे हुए हैं जिससे निकलने के लिए हम जितना फड़फड़ाते हैं, उतना ही फंसते जाते हैं। आखिर क्यों हम कॉलेज के उस शिक्षक को या समाज के किसी अन्य व्यक्ति को मुंहतोड़ जवाब नहीं देना चाहते हैं, जब उनको मेरे नाम से मेरी जाति का पता नहीं चलता तो उनको मेरे पिता का नाम भी जानना होता है।

ज़ाहिर है उस शिक्षक को मेरे व्यक्तित्व का मूल्यांकन मेरी प्रतिभा या हुनर से नहीं, बल्कि जाति से करनी होती है। व्यक्तित्व के मूल्यांकन के लिए आज भी द्रोणाचार्य को किसी एकलव्य का अंगूठा चाहिए।

अगर मैं अपनी बात कहूं तो व्यक्तिगत तौर पर कभी जातिगत भेदभाव का सामना नहीं किया है। परंतु, ऊंची जाति का होने के कारण जिस पारंपरिक सास्कृतिक मान्यताओं से मेरा मूल्यांकन हर रोज़ किया जाता है, उसका बोझ उठाना अधिक कठिन था। मेरी कोई रूचि मेरी जातीय पहचान आधारित कार्यों में नहीं थी मगर इससे विमुख होकर अलग अपने अस्तित्व को खोजने का विकल्प मेरे सामने कभी रहा ही नहीं।

ग्रेजुएशन करने के बाद दोस्तों के साथ नियोजन दफ्तर में जब अपना नाम दर्ज़ कराने गया, तब आवेदन लिखने में मैंने जो सावधानी बरती, वह अन्य मित्रों ने नहीं बरती। दफ्तर में काम करने वाले कर्मचारी ने सिर्फ आवेदन लिखने के तरीके से मेरी सारी प्रतिभा का मूल्यांकन कर लिया, मैं किसी खास जाति विशेष से हूं। मेरे लिए जातीय श्रेष्ठता के आधार पर किया गया मेरा मूल्यांकन मेरी सारी डिग्रियों और अब तक के सारे मेहनत पर पानी फेरने जैसा था।

मास्टर्स की पढ़ाई के दौरान वर्धा (महाराष्ट्र) में मेरे नाम के आगे मेरे पिता का नाम जोड़कर ही मेरा बैंक खाता खोलना, अधिक तकलीफ देने वाला था क्योंकि मेरे नाम से मेरी जातीय पहचान नहीं होती है। अगर उस बैंक में एटीएम की सुविधा नहीं होती तो पैसा निकालने के लिए मुझे अपने नाम के साथ पिताजी का नाम भी जोड़कर लिखना पड़ता।

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार: pixabay

जेएनयू के प्रगतिशील और उन्मुक्त वातावरण में मेरी महिला मित्र जिसकी जाति से मुझे कभी कोई फर्क महसूस नहीं पड़ता था। उसके बोतल में पानी पी लेने के बाद उसका टोकना या असहज हो जाना क्योंकि वह निचली जाति से थी, मुझे जूता भिंगाकर मारने सरीखा था।

हम दोनों अपनी मेहनत से चीजों को समझ रहे थे, सीख रहे थे मगर जब भी मुझे मेरे काम के लिए प्रोत्साहन मिलता, तब यह सुनना कि ऊंची जाति का होने के कारण मुझे अधिक मौका मिल जाता है, मेरी सारी मेहनत पर बाल्टी भर पानी डालने जैसा था।

मेरी महिला मित्र दिखने में काफी फेयर और स्मार्ट है। उसके नाम से उसकी जाति का पहचान नहीं हो पाता है। अपने हॉस्टल में सबों से घुलती-मिलती थी, जब उसे राजीव गाँधी फेलोशिप (अनुसूचित जाति/जनजातियों को मिलता है) मिली, तब उसकी जातीय पहचान उजागर हो गई। हॉस्टल में उसके दोस्तों का व्यवहार ही बदल गया, वह इससे काफी दुखी हुई।

समाज से जाति के नहीं जाने और जाति के रहने के संदर्भ में अपने-अपने मायाजाल को रच दिया गया है। अगर जाति जानकर किसी का शोषण होता है, तो जातीय श्रेष्ठता का फायदा भी लोगों को मिलता है, जिसकी वजह से लोग इससे मुक्ति भी पाना चाहते हैं और बनाए भी रखना चाहते हैं।

आधुनिकता और भूमंडलीकरण के दौर में समता मूलक विचारधाराओं से लाभ उठाकर कर्मकांड-आधारित श्रेणी समाज-व्यवस्था की जगह नागरिक समाज की स्थापना से मुक्ति की तमाम कोशिशें फुस्स हो चुकी हैं। आर्थिक और राजनीतिक अधिकारों के दम पर लोगों ने भले ही अपनी स्थिति पहले से बेहतर कर ली है परंतु सामाजिक स्थिति के लिए वह अभी भी जातिगत संरचना के शिकार है।

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो सासभार: pixabay

भारत में जाति की जड़ रोटी में नहीं, बल्कि बेटी में है। कोई विवाह के समय बेटी वहीं देते हैं, जहां जन्म के आधार पर जाति से बंधे होते हैं। क्या इसको तोड़ा जा सकता है? कुछ अपवाद मिल सकते हैं मगर इन अपवादों का दायरा बढ़ाने की ज़रूरत है।

जाति और जाति से जुड़े तमाम सामाजिक प्रयोगों को तोड़ना अधिक ज़रूरी है। जाति के सवालों को अधिकार देकर बाबा साहब ने मज़बूती दी, राजनीतिक अधिकार दिलवा कर कांशीराम ने मुखर किया, अब सामाजिक अधिकार दिलवा कर ही जातिवाद से मुक्ति पाई जा सकती है।

इस दिशा में आगे बढ़ना अधिक ज़रूरी है। यदि हमने ऐसा नहीं किया तो पूरे वर्ल्ड में युवाओं का देश कहलाने वाला भारत जातिगत राजनीति के दलदल में फंसकर अपना और अपने देश के विकास में ढेले भर का भी योगदान नहीं दे सकेगा। जाति वाली सीढ़ी को समतल किए बिना सामाजिक समरसता का निमार्ण करना मुश्लिल है, इस सीढ़ी को समतल किए बिना समतल समाज का निमार्ण नहीं हो सकता है।

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