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“पर्यावरण बचाने के नाम पर मेरे गाँव में बेरोज़गारी बढ़ गई”

बेरोज़गार युवा

बेरोज़गार युवा

पिछले दिनों जल पुरुष राजेंद्र सिंह दून आए। उन्होंने उत्तराखंड में बन रहे बांधों का विरोध किया और बिना कोई विकल्प बताए चलते बने। मुझे नहीं पता राजेंद्र सिंह के घर और कार्यालय में बिजली कहां से आती है मगर बांधों को बंद कराने के उनके जज़्बे को देखकर तो ऐसा ही लगता है कि वह सोलर प्लांट या परमाणु सयंत्र के ज़रिये बिजली प्राप्त करते होंगे।

जो व्यक्ति पनबिजली परियोजना का विरोध करता हो, वह कम-से-कम अपने घर में एसी या अन्य उपकरण बांधों से प्राप्त बिजली के ज़रिये तो नहीं चलाएगा फिर तो विशालकाय टिहरी बांध भी नहीं बनना चाहिए था। पंचेश्वर बांध भी पर्यावरण के लिए बहुत नुकसानदायक साबित होगा।

सवाल यह है कि आप पूरी तरह से बांधों का विरोध नहीं कर सकते। बिजली देश की ज़रूरत है और रोज़गार उत्तराखंड की। आज की तारीख में आलम यह है कि पलायन से हमारे गाँव खाली हो चुके हैं।

एक झटके में सभी बेरोज़गार हो गए

उत्तरकाशी ज़िले में एनटीपीसी की 600 मेगवाट की ‘लोहारीनाग पाला जल विद्युत परियोजना‘ 2010 में पर्यावरण के नाम पर बंद कर दी गई। इसी तरह चमोली के लाता तपोवन एवं पिथौरागढ़ की खासियाबाड़ जल विद्युत परियोजनाएं बंद कर दी गईं। इन परियोजनाओं के फील्ड वर्क में राज्य के पॉलिटेक्नीक से पढ़ाई किए हुए युवा इंजीनियर नौकरी कर रहे थे।

एक झटके में सभी बेरोज़गार हो गए। जो बेरोज़गार इन परियोजनाओं में बीस हज़ार रुपये में जेई बने थे, 15 हज़ार रुपये देकर ड्राइवर, ऑपरेटर या अन्य काम कर रहे थे, अब वे सभी दिल्ली या अन्य महानगरों में इतने ही रुपये में मलिन बस्तियों में रहने को मजबूर हैं। जबकि पहले वे अपने ही घर में इतनी ही तनख्वाह में बेहतर जीवन स्तर के साथ रह रहे थे।

टिहरी बांध।

अलबत्ता, लोहारीनाग पाला में तो ‘रन ऑफ द रीवर प्रोजेक्ट’ के तहत 40 फीसदी काम हो भी चुके थे। मतलब इनमें मामूली तौर पर एक या दो गाँव ही विस्थापित होने थे। मैं फिर से दोहरा रहा हूं कि टिहरी बांध और पंचेश्वर सरीखे बांधों का विरोध होना चाहिए क्योंकि हज़ारों-लाखों की तादाद में लोगों का विस्थापित होना एक पूरे समाज के लिए पीड़ादायक तो होता ही है, साथ ही बड़ी झील बनने से पर्यावरण के अपने दुष्प्रभाव भी हैं, वहीं यह अपने लक्ष्य को भी पूरा नहीं कर पाती। टिहरी बांध इसका उदाहरण है।

फिर सवाल यह भी है कि गंगा और उसकी सहायक नदियों के प्रदूषित होने का खामियाज़ा उत्तराखंड ही क्यों भुगते? नदियों को सुरंगों में डालने से आपकी आस्था भले ही दुखती हो लेकिन हरिद्वार में गंगा को खंडित कर गंग नहर में बदल देने से कोई आस्था प्रभावित नहीं होती।

उत्तराखंड को छोटे और माइक्रो बांध की है ज़रूरत

जिस प्रकार पश्चिम उत्तर प्रदेश को सिंचाई के लिए गंग नहर की ज़रूरत है, उसी तरह उत्तराखंड को भी छोटे और माइक्रो बांध की ज़रूरत है। यह कोई क्षेत्रवादी मानसिकता वाली बात नहीं है, बल्कि यह तो वैज्ञानिक सोच की बात है।

फोटो साभार: Getty Images

यह दोहरा मापदंड नहीं चलने वाला है। ‘नमामि गंगे परियोजना’ में आपने क्या किया? पांच साल बीत गए, हज़ारों-लाखों करोड़ों फूंकने के बाद भी उमा भारती के मंत्रालय ने क्या किया? कानपुर के चमड़ा उद्योग के रसायनिक पदार्थ सीधे गंगा में उतरते हैं। उनका क्या हुआ ?

पिछले दिनों वाडिया हिमालय भू-विज्ञान संस्था के वरिष्ठ भूगर्भ वैज्ञानिक डॉ. पीएस नेगी ने एक महत्वपूर्ण शोध किया जिसने दुनिया भर में हलचल मचा दी। उन्होंने हिमालय के दुर्गम इलाकों में अपने शोध केंद्र स्थापित कर यह शोध ना किया होता तो उत्तराखंड के लोग अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर फजीहत झेलते रहते।

ब्लैक कार्बन का संकट

असल में, अंतराष्ट्रीय पर्यावरण सम्मेलन में चीन यह आरोप लगाता रहा है कि हिमालय के भारत वाली तरफ, यानि उत्तराखंड की तरफ से गंभीर ब्लैक कार्बन की मात्रा खतरनाक तरीके से बढ़ रही है, जिससे आने वाले समय में ग्लेशियरों के साथ ही पूरे हिमालय बेसिन पर खतरा मंडराने लगा है।

चीन ने यह भी आरोप लगाया कि उत्तराखंड के सीमांत इलाकों में रहने वाले जनजातीय लोगों द्वारा लकड़ी को ईंधन के रूप में प्रयोग करने से यह ब्लैक कार्बन चीन की तरफ भी आ रहा है। चीन ने तिब्बत के पठारों में ब्लैक कार्बन अब्जॉर्बर लगा रखे हैं, जिसकी रिपोर्ट वह हर साल भारत को नीचे दिखाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण सम्मेलन में रखता था।

उधर, वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. पीएस नेगी अपनी टीम के साथ इस गंभीर विषय पर शोध में जुटे हुए थे। कई सालों की मेहनत के बाद उन्हें जो नतीजे मिले, वे चौंकाने वाले थे। उन्होंने बताया कि हिमालय की बर्फीली चोटियों और ग्लेशियरों में जमा हो रहा ब्लैक कार्बन का असल कारण उत्तराखंड नहीं, बल्कि यूरोप है।

फोटो साभार: Twiter

यूरोप के नीचे भू-मध्यसागर है, जहां से हर साल पश्चिमी विक्षोभ सक्रिय होता है और अपने साथ बादल लेकर पाकिस्तान होता हुआ राजस्थान में दाखिल होता है। जहां से वह सीधे उत्तराखंड में हिमालय से टकराता है। शोध में सामने आया कि यूरोप का प्रदूषण हवा के ज़रिये बादलों में पहुंचते है और इकठ्ठा होकर पश्चिमी विक्षोभ के साथ उत्तरांखड पहुंचकर ब्लैक कार्बन में बदल जाता है। उनके द्वारा दिए गए ब्लैक कार्बन के आकंड़े इस शोध के ठोस वजह थे।

मई माह में जब उत्तराखंड के जंगलों में आग लगती है, तब जिस ताताद में वहां ब्लैक कार्बन के आंकड़े पाए जात हैं, उससे भी अधिक जनवरी माह में हिमालय में पाए गए। जनवरी में जिस जनजातीय समाज पर चीन आरोप लगाता रहा है, वे भी कई किलोमीटर पीछे आ जाते हैं।

उन्होंने बताया, “अभी तक हम यह समझते थे कि मई माह में उत्तराखंड के जंगलों में लगने वाली आग के कारण जो वायु प्रदूषण होता है और कुछ अन्य दिनों में ईधन के रूप में प्रयोग में लाए जाने वाली लकड़ी के जलने पर जो धुंआ पैदा होता है, वह ब्लैक कार्बन का मुख्य कारण है लेकिन जब हमने गंगोत्री से ऊपर चीड़वासा में कुछ विशेष उपकरण लगाए तो चौंकाने वाले डाटा मिले। उपकरणों ने जनवरी माह में भी मई के बराबर ब्लैक कार्बन दिखाया। उसके बाद हमने शोध किया तो पता चला कि यह प्रदूषण यूरोप का है।”

फोटो साभार: Twitter

बहरहाल, राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी उत्तराखंड पर दबाव है। चीन, तिब्बत के ल्हासा से माउंट एवरेस्ट बेस कैंप होते हुए नेपाल तक ट्रेन रूट का निर्माण करता है। साथ ही 800 किलोमीटर लंबा चीन-नेपाल फ्रेंड्सशिप रोड का निर्माण भी करता है।

काराकोरम श्रृंखलाओं को चीरते हुए पाकिस्तान तक सीपेक बनाता है। अपने क्षेत्र के हिमालय में भी कई बड़े बांध बनाता है और अंतराष्ट्रीय स्तर पर उत्तराखंड में हो रहे निर्माणों को कोसता है।

यही काम भारत के भी कुछ लोग करते हैं। हिमाचल के किन्नौर में भी बास्पा जैसे बांध बने है और सिन्धु नदी में कई अन्य बन भी रहे हैं। इतना भी मत दबाइए कि एक दिन उत्तराखंड खाली हो जाए और यहां के समाज के बारे में शोध छात्र कॉलेजों के पाठयक्रम में पढ़े।

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