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मिलिए सरिता से जो बाल सुधार गृह में बच्चियों को मेंस्ट्रुअल हाइजीन की जानकारी देती हैं

सरिता राय

सरिता राय

”एक संवेदनशील इंसान ही समाज को बदल सकता है।” यह कहना है मूलतः बिहार के हाजीपुर ज़िले की रहने वाली सरिता राय का। सरिता बाल सुधार गृह के बच्चों को मेंस्ट्रुअल हाइजीन सम्बन्धित जानकारी देने का काम कर रही है। सरिता समस्तीपुर ज़िले की लीगल एंड प्रोबेशन ऑफिसर हैं। बच्चों के अधिकारों को लेकर वह काफी संवेदनशील हैं। वह विधि विवादित, देखभाल एवं संरक्षण की आवश्यकता वाले बच्चों के साथ काम करती हैं।

सरिता की मानें, तो उनमें बच्चों के साथ काम करने और उनकी ज़िन्दगी को बेहतर बनाने का जूनून है। वह दो तरीके से बच्चों के साथ काम करती हैं- एक तो पिछले एक साल से वह बिहार राज्य समाज कल्याण विभाग में अस्थाई कर्मचारी के तौर पर कार्य करते हुए बाल सुधार गृह के बच्चों की काउंसलिंग करती हैं।

इसमें उनका मुख्य फोकस यह जानना होता है कि यह बच्चे किस वजह से बाल सुधार गृह में आए हैं। अर्थात वे कौन-सी परिस्थितियां रहीं, जिनकी वजह से बच्चे ने अपराध किया। सरिता बताती हैं, ”जुवेनाइल जस्टिस एक्ट के तहत अपराध करने वाले बच्चों को दो भागों में बांटा जाता है।

पहला, चाइल्ड इन नीड, केयर एंड प्रोटेक्शन (Child in Need, Care and Protection). ये बच्चे (लड़का और लड़की दोनों) मूल रूप से बाल मज़दूर, भिखारी या घरेलू कामगार होते हैं और अक्सर किसी मजबूरी या परिस्थितिवश अपराध कर गुज़रते हैं।

बच्चों की दूसरी श्रेणी है- चाइल्ड इन कंफ्लिक्ट विद लॉ। इसमें वे बच्चे शामिल होते हैं, जिनका इस्तेमाल गंभीर अपराध को अंजाम देने के लिए किया जाता है, जैसे- चोरी, तस्करी, हत्या और अवैध वसूली आदि। कानूनी तौर पर इन बच्चों को अपराधी नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि ये 18 वर्ष से कम उम्र के होते हैं।

स्टूडेंट्स के बीच सरिता।

सरिता और उनकी टीम ऐसे बच्चों के घर जाती है और उनके परिजनों से बात करके और आस-पास की परिस्थितियों की मुयाअना करके समुचित कारणों का पता लगाने का प्रयास करती हैं। सरिता कहती हैं, ”बाल सुधार गृह में रहने वाले बच्चों की स्थिति उन बच्चों से भिन्न होती है, जिन्होंने कभी बाल मज़दूरी नहीं की है।

ऐसे बच्चे, खास तौर से लड़कियां काफी डरी हुई होती हैं। अपनी बातों को खुलकर कह नहीं पाती हैं। भले ही ये संस्थान रिहायशी हों और यहां बच्चों को सारी मूलभूत सुविधाएं मिलने का प्रावधान है लेकिन घर तो घर होता है ना! घर और संस्थान के माहौल में काफी फर्क होता है। घरों में परिस्थिति चाहे जैसी भी हो, बच्चे वहां फ्रीडम महसूस करते हैं, जबकि किसी संस्थान में वे नियम-कानूनों के दायरे में बंधे होते हैं।

बस थोड़ा-सा संवेदनशील होने की है ज़रूरत

बाल सुधार गृहों में आमतौर पर 10-11 साल से लेकर 17 साल तक के बच्चे होते हैं। यह उम्र बच्चों में महत्वपूर्ण शारीरिक तथा मानसिक बदलावों का होता है। उम्र के इस दौर में बच्चों को एक संवेदनशील सहारे की ज़रूरत होती है, जिनसे वे अपनी बातें साझा कर सकें, जो उनकी समस्याओं को समझ सकें।

खास तौर पर लड़कियों के साथ अधिक समस्याएं होती हैं, क्योंकि इसी उम्र में उनके पीरियड्स शुरू होते हैं। अगर उन्हें इसके बारे में पर्याप्त जानकारी ना हो या फिर उन्हें पर्याप्त सुविधाएं ना मिलें, तो उन्हें कई अन्य तरह की समस्याओं से जूझना पड़ सकता है।

हालांकि यह ड्यूटी जेल में मौजूद सुप्रिटेंडेंट या हाउस मदर की होती हैं लेकिन अक्सर अपने नेचर ऑफ वर्क (कठोर अनुशासन कायम करने रखने की ज़िम्मेदारी) की वजह से किशोरियां उन्हें अपने करीब नहीं पातीं, जिस वजह से वे उनसे अपनी समस्याएं भी साझा नहीं कर पाती हैं।

सरिता उन बच्चियों से व्यक्तिगत रूप से मिल कर उनकी समस्याएं सुनती हैं फिर जेल प्रशासन के सहयोग से उन्हें समुचित सुविधाएं मुहैया करवाती हैं। सरिता कहती हैं, ”हमारे आस-पास कई ऐसे बच्चे हैं, जिन्हें अपने अधिकारों की जानकारी नहीं है। होश संभालते ही उन्हें बस इतना पता होता है कि अपने घर-परिवार की ज़िम्मेदारी उठाना ही मेरा काम है। ऐसे बच्चों की सहायता के लिए कुछ खास नहीं, बस थोड़ा-सा संवेदनशील होने जाने की ज़रूरत है।” सरिता फिलहाल पटना बाल सुधार गृह में समस्तीपुर ज़िले से रेस्क्यू की गईं बच्चियों के साथ काम कर रही हैं।

स्लम निवासियों की ‘पैडगर्ल’

एक ओर सरिता समाज कल्याण विभाग, बिहार के बाल सुधार गृह में रहने वाले बच्चों की तकलीफों और समस्याओं को बांटने का काम कर रही हैं, वहीं दूसरी ओर अपनी इस नौकरी से मिलने वाली तनख्वाह से वह अपने घर के आस-पास रहने वाले स्लम एरिया के बच्चों को पढ़ाने और उन्हें बेहतर जीवन जीने का हुनर बताती हैं। तमाम झिझक और परंपराओं से जकड़ी महिलाओं और किशोरियों में स्वास्थ्य, सफाई एवं शिक्षा के प्रति जागरूकता फैला रही हैं।

स्लम में बच्चों के साथ सरिता।

वह हाजीपुर इलाके के दूर-दराज़ के गाँवों में कूड़ा-कचरा चुनने और मैले कुचैले परिवेश के साथ मज़दूरी करने वाली किशोरियों व युवतियों के बीच ‘पैडगर्ल’ बन जागरूकता की मशाल जला रही हैं। वह इन महिलाओं व किशोरियों को सैनिटरी पैड देने के साथ ही उन्हें स्वच्छ एवं स्वस्थ्य रहने के फायदे भी बता रही हैं।

सरिता के मुताबिक पटना से मात्र 32 किलोमीटर दूर होने के बावजूद हाजीपुर के गाँवों की महिलाओं और बच्चियों को अभी भी माहवारी या सैनिटरी पैड जैसी चीज़ों के बारे में जानकारी नहीं है। धर्म, पंरपरा, शर्म और झिझक की वजह से वे इस बारे में खुलकर किसी से बात भी नहीं कर पातीं। जानकारी के अभाव में वे माहवारी के दौरान असुरक्षित उपायों का इस्तेमाल करती हैं, जो कि आम दिनों में भी सेहत और स्वास्थ्य के लिहाज से खतरनाक है।

कई वंचितों को जोड़ चुकी हैं मुख्यधारा से

सरिता के पिता वन विभाग अधिकारी थे। इसी वजह से उनके जीवन का अधिकांश समय देश के पूर्वोत्तर राज्यों में बीता है। 2003 में पटना उच्च न्यायालय के एक वकील से उनकी शादी हो गई और तब वह वापस से बिहार में अपने ससुराल आकर एक सामान्य गृहिणी की तरह रहने लगी। कुछ समय बाद उन्होंने भी पटना यूनिवर्सिटी से लॉ किया और हाइकोर्ट में प्रैक्टिस करने लगीं।

स्लम के बच्चों के बीच सरिता।

आगे चलकर जब उन्होंने स्लम के बच्चों को पढ़ाना शुरू किया, तो उन्हें अपनी प्रैक्टिस छोड़नी पड़ी। वह बताती हैं, ”शुरुआत में जब मैंने स्लम के बच्चों के साथ काम करने का निर्णय लिया, तो मेरे घर-परिवार और दोस्तों से लेकर मेरे पति ने भी मेरा मज़ाक उड़ाया लेकिन बावजूद इसके मैंने हार नहीं मानी और अपने काम में जुटी रही। धीरे-धीरे जब मेरे काम के बारे में मीडिया में खबरें आने लगीं, तो उन लोगों को लगा कि मैं वाकई कुछ बेहतर कर रही हूं। आज वे मुझे कुछ नहीं कहते।”

वर्तमान में सरिता राय अपनी सामाजिक संस्था ‘टॉपर स्टडी पॉइंट: उड़ान’ के तहत झुग्गी झोपड़-पट्टियों में रहने वाले बाल मज़दूर, कचड़ा चुनने वाले, पेड़ों की पत्तियां जमा करने वाले, मज़दूर पिता के साथ बाल मज़दूरी करने वाले गरीब एवं ज़रूरतमंद लोगों को पिछले आठ वर्षों से शिक्षा प्रदान करने का काम भी कर रही हैं। उनकी निरंतर कोशिशों के परिणामस्वरूप अब तक हज़ारों गरीब एवं ज़रूरतमंदों की ज़िन्दगी संवर चुकी हैं और वे समाज की मुख्यधारा से जुड़ चुके हैं। सरिता फिलहाल हाजीपुर के बड़ी युसूफपुर मुहल्ले में रह रही हैं।

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