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“हमने पिंक सरीखी फिल्मों से जो कमाया था, कबीर सिंह से फिर उसे खो दिया है”

कॉलेज के दिनों में हर शुक्रवार को कोई ना कोई फिल्म देखने का शौक लगभग खत्म हो चुका है। अब कभी सिनेमाघरों की तरफ रूख भी करता हूं, तो हॉलीवुड की फिल्मों को देखना पहली प्राथमिकता रहती है। बॉलीवुड की फिल्में कुछ दिनों के बाद किसी ना किसी टीवी पर आ ही जाती हैं।

फिल्म कबीर सिंह का एक दृश्य। फोटो सोर्स- Youtube

‘कबीर सिंह’ का पोस्टर मोहन सिंह मार्केट के कॉफी हाउस से निकलते हुए वोगल सिनेमा में दिखा। इसके बाद मैंने ट्रेलर देखा, जिसको देखकर यही लगा कि यौन कुंठित युवा की मनोवृत्ति, जो अब तक सिनेमा में विलेन का काम थी, अब हीरो पर फबने लगी है।

अब युवाओं का वह वर्ग, जो खुद यौन कुंठा से ग्रसित है, इस फिल्म को सुपरहिट करा ही देगा। फिल्म और कुछ नहीं भी करे, तो भारतीय युवाओं में यौन कुंठा और हिंसा बढ़ाने में ज़रूर कामयाब होगी। स्कूल, कॉलेज या कामकाजी लड़कियों के साथ एसिड अटैक, चाकू मार और छोटी-मोटी वारदाते ज़रूर फिल्मी प्रभाव में असर छोड़ने लगेंगी।

गानों ने थोड़ी सी खुमारी डाल रखी थी। फिल्म देखने के लिए अपना मूड बनाने से पहले कुछ रिव्यू पढ़ना शुरू किया। कोई खास रिव्यू नहीं मिलने के बाद शाहिद की एक्टिंग पर पैसा लगाने का सोचा और फिल्म देखने थियेटर में घुस गया। थियेटर से निकलते हुए यही लगा कि जो कुछ हम लोगों ने पिछले दिनों ‘पिंक’ सरीखी फिल्मों से कमाया था, उसको एक ‘कबीर सिंह’ से फिर से खो दिया है।

सामान्यत: इस फिल्म में जितना काम हीरो करता दिखता है, वह किसी विलेन का होता है फिल्मों में। विलेन अगर इस तरह करे, तो उसको घूंसा पड़ना चाहिए पर हीरो ही ऐसा करे तो संवेदना और ताली। इस फिल्म ने एक नया प्रयोग करने की कोशिश की है, जो घटिया दर्जे की कोशिश है। “तूने मार दिया ना तो कनॉट प्लेस पर नंगा घूमूंगा”, यह डायलॉग कबीर सिंह बोलता है और मन करता है निकाल लूं अपना जूता।

पूरी फिल्म में लड़कियों को इस तरह पेश किया गया है कि मानो वह एक लड़की पितृसत्तात्मक समाज का विशुद्ध मादा उत्पाद है और कुछ नहीं। उसको हीरो की तमाम बुराइयों के बाद भी हीरो की बांहों में टूटकर पसर जाना है, मानो उसके पास और कोई विकल्प ही नहीं बचा है। कोई भी गंजेड़ी, नशेड़ी, सनकी उसके सामने मर्दवादी पौरूषता का दंभ भरेगा और वह उसको इसलिए स्वीकार कर लेगी क्योंकि उसके पास और कोई विकल्प नहीं है।

पूरी फिल्म में पेट्रियार्की को एक परिपेक्ष्य में अगर सोचा जाए तो फिल्म को बेहतर कहा जा सकता है। फिल्म यह तो दिखाने में सफल रही है कि अभिनेता गज़ब का पेट्रिआर्क है और स्त्री स्वतंत्रता जैसे विचारों का विरोधी है। पेट्रिआर्क की पूरी प्रतिस्थापना पुरुष विरोधी भी है, वह भी इस फिल्म में दिखता है। मूंछ पर तांव देनी वाली पेट्रियार्की कैसे एक पुरुष को बर्बाद कर सकती है कि एक दिन रोना भी नसीब नहीं, तमाम कोमल भावनाएं सोख ले, इतना कठोर बना दे कि खुद पर हंसी भी ना आए। इसको बेहतर तरीके से दिखाने में कामयाब होती दिखती है। पर पेट्रिआर्क के गूढ़ मैसेज को शायद ही कोई डीकोड कर सके।

वैसे देश की तमाम लड़कियों को इस फिल्म को ज़रूर देखना चाहिए। फिल्म के ज़रिये ही वे थोड़ा सा समझदार बने और अपने आसपास जो कबीर सिंह बनकर घूमते हैं, उनको पहचाने और वक्त पड़ने पर लात-जूते-थप्पड़ से उनको तमीज़ सीखा दे।

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