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“मैंने देखा है उत्तराखंड के जंगलों में साज़िश के तहत आग लगाई जाती है”

उत्तराखंड के जंगलों में आग

उत्तराखंड के जंगलों में आग

मार्च महीने के अंत में हम उत्तराखंड राज्य में दाखिल हुए। मैंने जीवन में पहली बार जब उत्तराखंड देखा, तब यहां की सुन्दरता ने पागल कर दिया। वैसे तो आधी से ज़्यादा ज़िन्दगी जंगलों में ही गुज़री थी मगर वह सह्याद्री (Western Ghat) के जंगल थे, जिनके दृष्य बड़े ही सुन्दर होते हैं।

उत्तर भारत के जंगलों का यह मेरा पहला अनुभव था। जिस घर में मेरा वास्तव्य था, वहां से बहुत ही सुन्दर नज़ारा दिखाई देता था। कई दिनों से उत्तराखंड की पलायन की समस्या पर हमारी चर्चा चल रही थी। मैं कभी-कभी अकेले ही सोचती कि कोई कैसे अपने इतने सुन्दर गाँव छोड़कर शहर में बस सकता है? उत्तराखंड पहुंचने के बाद भी कई दिन इस प्रश्न ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा।

उत्तराखंड की समस्याओं पर काम करने हेतु हमने टिहरी गढ़वाल ज़िले का एक गाँव निश्चित किया, जहां से हम काम शुरू कर सकते थे। वह हमारे दोस्त का गाँव था। इसी वजह से स्थानीय तौर पर सहकार्य मिलना आसान होगा, यह सोचकर हम इस गाँव में आ पहुंचे। गाँव का नाम ‘द्वारी’ था।

मेरे छोटे से दिमाग ने सोचा कि शायद इस गाँव के द्वार हमेशा नए लोगों और नए विचारों के लिए खुले रहते होंगे। कभी-कभी दिमाग भी प्रैक्टिकली सोचना बंद कर अलंकारिक हो जाता है ना! लेकिन इस गाँव के लोगों ने बस कुछ ही दिनों में मेरा भ्रम तोड़ दिया।

गाँव के लोगों से बात करने जब भी जाना होता था, तब वे नाम और काम पूछने से पहले हमारी जाति पूछते थे। शादी हुई या नहीं, यह पूछते थे। हालांकि आज भी भारत के कई क्षेत्रों की यही स्थिति है जिससे हम मुकर नहीं सकते और ‘द्वारी’ तो ब्राह्मणों का गाँव है। वहां तो हम जैसे फकीरों का जीना मुश्किल ही था लेकिन धीरे-धीरे कई लोगों ने हमें अपनाया, बात करनी शुरू की, चाय पीने अपने घर बुलाया। अच्छा लगा।

फोटो साभार: Getty Images

एक बात बहुत बेचैन कर रही थी। अप्रैल में हमें गाँव के हर इंसान से एक ही बात सुनने मिली कि ‘फायर सीज़न’ शुरू होने वाला है। फिर से मेरे छोटे से दिमाग में घंटी बजी। जंगल में कभी-कभार आग लगती है, यह तो ठीक है मगर यह ‘फायर सीज़न क्या होता है? और हम भी इस ‘चौथे सीजन’ का इंतज़ार करने लगे।

जैसे ही मई का महीना नज़दीक आने लगा, वैसे ही परिणाम दिखने लगे। एक पहाड़ से शुरुआत हुई फिर लगातार डेढ़ महीने तक जंगल जलते रहे। एक दिन भी ऐसा नहीं गया जब आग नहीं दिखी। जंगल जल रहा था, पहाड़ जल रहे थे, गढ़वाल जल रहा था, उत्तराखंड जल रहा था, जंगल के रहिवासी जल रहे थे और इंसान तो बस सो रहे थे।

इन सबके बीच प्रशासन बैठा तमाशा देख रहा था और वन विभाग ‘फायर सीजन’ मना रहा था। और हम? हम क्या करते? बालटियां पानी से भर-भर के आग बुझाने की नाकाम कोशिश कर रहे थे। नाकाम इसलिए कि हमारी बाल्टियां क्या ही कर पाती इस भयानक आग के सामने। खुद पर ही शर्म आनी लग गई और मन बेचैन होने लगा था। नींद में जलते हुए प्राणी दिखाई देते, पंछियों के घोंसले उनके छोटे बच्चों के साथ जलते दिखते और नींद खुल जाती।

ऐसा महसूस हो रहा था कि हम भी इस गाँव के लोगों की तरह सो रहे हैं। आँखों पर पर्दा होता है तो भी ठीक है मगर जब दिमाग पर पर्दा गिर जाता है तो क्या?

देशभर में लोकसभा चुनावों की तैयारियां चल रही थीं। जंगल जलने से ज़्यादा लोगों को मोदी जी के जीतने की चिंता थी। फिर से अच्छे दिन आने वाले थे ना! फिर प्रशासन और वन विभाग ने अपने इस वर्ष के आंकड़े बड़े ही गर्व से प्रकाशित किए। उत्तरकाशी, देहरादून, रुद्रप्रयाग, टेहरी गढ़वाल और पौड़ी गढ़वाल का 37 हेक्टेयर फॉरेस्ट एरिया एक दिन में जल के खाक हो गया।

दो महीने से हम तीन लोग यहां बैठकर देख रहे हैं कि कैसे सुनियोजित तरीके से सूखी घास की गठरियां जंगल में जगह-जगह रखी जाती है कि आग रुके नहीं, बल्कि और बढती रहे।

गाँव की औरतें घास काटने के बहाने जंगल में जाती हैं और जब वहां से निकलती हैं तो कुछ ही देर में उसी जगह से आग की लपटें उठनी शुरू हो जाती हैं। गाँव के लोग हमें शायद दिमाग से पैदल समझते हैं, जो कहते हैं जंगल में आग अपने आप लगती है। हवा से पेड़ एक दूसरे पर रगड़ते हैं जिससे चिंगारी उठती है और आग लगती है।

फोटो साभार: Twitter

यह कहानियां पहली और दूसरी कक्षा के बच्चों को सुनाने के लिए ठीक है। पहाड़ पर आग की लपटें दिखती हैं और वहीं से मानवी आकृति गुज़रते हुए भी दिखती है। पानी की नहर के एक तरफ आग लगती है और दूसरी तरफ भी लगती है, शायद पानी भी फ्यूल का काम कर रहा है।

शायद उत्तराखंड में भूत बाधा हो गई है। भूत जंगल जाता है और आग लगाती है। शायद सारे गाँव के तांत्रिकों को एक-साथ जमा कर एक बड़ा हवन करना पड़ेगा और हवन के लिए पहले से उनकी अपॉइंटमेंट लेनी पड़ेगी क्योंकि यहां के तांत्रिक भी सरकारी नौकरी करते हैं ना!

उनका समाज के प्रति प्रेम देख गाँव के लोगों ने मिलकर उनकी नौकरी लगवाई है। अब वह स्कूल और सरकारी दफ्तरों में काम भी करते हैं और खाली वक्त में समाज के उद्धार हेतु तांत्रिक का काम भी करते हैं। कितने मेहेनती हैं बेचारे! हम शहर के लोग खामखा अंधश्रद्धा निर्मूलन करने पर तुले हैं। हमें तो इन्हें और सहकार्य करना चाहिए। तान्त्रिक, गाँव के लोग, वन विभाग, फायर डिपार्टमेंट, प्रशासन और नेता ये सारे ही इतनी मेहनत से काम कर रहे हैं। हमें इस बात का अभिमान होना चाहिए।

#सुबहबदलनीहै

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