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“भारत का विकास यानि मुट्ठी भर पूंजीपतियों का उदय”

प्रतीकात्मक तस्वीर

प्रतीकात्मक तस्वीर

2014 का चुनाव “अच्छे दिन” का वादा लेकर हमारे सामने आया और भाजपा सरकार केंद्र में आई। अच्छे दिन से भाजपा का मतलब था देश का विकास। इससे पहले कि हम इन चीज़ों का आकलन करें कि विकास कैसे किया गया है या करने का वादा किया गया है, हम इस प्रश्न पर चर्चा करेंगे कि आखिर आज के युग में भारत के विकास के क्या मायने हैं।

हमारा देश तेजी से बदलता देश है। भारत एक मज़बूत देश बनकर उभर रहा है। अफ्रीका, पाकिस्तान, श्रीलंका, अफगानिस्तान, कज़ाकिस्तान और अन्य तमाम देशों में भारतीय लोगों द्वारा बनाई गई कंपनियां लोगों को सेवाएं उपलब्ध करा रही हैं। भारत एक विश्व शक्ति के तौर पर अपनी सांस्कृतिक और औद्योगिक क्षमता को बढ़ा रहा है।

रिलायंस और टाटा जैसे बड़े उद्योगपतियों ने भारत के इस बल को बहुत प्रबल किया है। इन्हीं कतार में खड़े और उभरते ऐसे अनेकों पूंजीपतियों ने भारत का नाम अमेरिका और चाइना जैसे शक्तिशाली देशों में शामिल किया है।

विकास का प्रश्न हमें इसी संदर्भ में समझना होगा जहां भारत एक तरफ अपने आप को बल प्रदान करता हुआ अपने पैरों पर खड़ा हो रहा है, वहीं दूसरी और वह अपने से छोटे, बराबर और बड़े देशों को अपनी शक्ति से उनके पैरों पर खड़े होने को मदद कर रहा है। उदाहरण के तौर पर अफ्रीका जैसे देशों में भारत का उद्योगिक संपत्ति का उदय होना और पश्चिमी सभ्यता में अध्यात्मिक और बहु संख्या वादी संकटों के चलते एक अध्यात्मिक हौसला अफज़ाई देना।

काँग्रेस और भाजपा की वैचारिक पृष्ठभूमि

मोदी जैसे आक्रमक प्रधानमंत्री और उनके द्वारा किए गए तमाम विदेशी दौरे और अंतरराष्ट्रीय सम्बन्धों में आक्रमक हस्तक्षेप, इन बातों का सबूत हैं कि आज भारत के लोगों को एक ऐसी छवि भी चाहिए जो उभरते भारत की भाषा बोले। मोदी का 56 इंच का सीना और पुरुषार्थ एक औद्योगिक शक्ति होने के पीछे के पुरुषार्थ को दर्शाता है।

इसलिए शायद महिला प्रधानमंत्री की सोच भारत के लिए अजीब जान पड़ती है। प्रियंका गाँधी को भले ही इंदिरा गाँधी के पुरुषार्थ से जोड़ा गया परंतु उनका इस तरह का कोई इतिहास नहीं लगता है। यह हमारे देश की नारी प्रगतिशीलता पर भी सवाल उठाता है।

काँग्रेस और भाजपा की वैचारिक पृष्ठभूमि में यही एक अहम फर्क है। काँग्रेस जहां केवल भारत के अंदर की स्थिति को सुधारने की बात करती है, वहीं भाजपा अंदर और बाहर दोनों परिस्थितियों को मज़बूती प्रदान करने की बात कर रही है। राहुल गाँधी और काँग्रेस पार्टी मोदी की तरह आक्रमक पूंजीपति देश को निर्मित करने में बिल्कुल असफल दिख रहे हैं। क्षेत्रीय पार्टियों को तो छोड़ ही दीजिए क्योंकि वे उस तरीके से बात करने में सक्षम ही नहीं है। अतः उनका मुद्दा केवल स्तरीय किस्म के ही मालूम होते हैं। जैसे- जात-पात, शिक्षा और बेरोज़गारी आदि।

देश का माहौल चिंतनीय

पहला, भारत अगर अपने आप को एक विश्व शक्ति के रूप में देखना चाहता है, तो उसे यह फैसला करना होगा कि भारत और उसकी संस्कृति है क्या? क्योंकि वह यही संस्कृति दूसरे देशों तक पहुंचा कर अपना प्रभुत्व कायम करने की कोशिश करेगा। इसके चलते आज भारत दोबारा से अपनी खोज कर रहा है।

यह एक ऐसी खोज है जो भारत के अतीत को हमारे सामने आज फिर से लाकर खड़ा कर रही है। पिछले कुछ सालों में हुए “योगा” के अंतरराष्ट्रीयकरण और भारतीय राजनीति के धार्मिकरण इस बात की ओर संकेत करते हैं कि भारत ने अपनी पहचान को फिर से रचना शुरू कर दिया है। यह उस राष्ट्रीय निर्माण से अलग है जो 1947 में हुआ था। आज का राष्ट्रीयकरण एक पूंजीपति देश में तब्दीली की ओर इशारा करता है।

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार: Flickr

भारत एक आध्यात्मिक खोज की तरफ निकला है, जिसमें नि:संदेह ही भारत में रहने वाले सबसे बड़े समुदाय और उसकी संस्कृति “हिंदू” का प्रबल प्रभुत्व सामने आएगा। जिस तरह आज़ादी के समय भारत लोकतांत्रिक मान्यताओं के ज़रिये अपने आप को एक नया जीवन दे रहा था, उसी तरह आज फिर से हिंदू राष्ट्र के रूप में भारत अपने आप को एक अंतरराष्ट्रीय शक्ति के तौर पर जन्म दे रहा है।

किसी राष्ट्र का एक खास समुदाय से जाने जाना कोई बड़ी या नई बात नहीं है। आज हम पूर्वी सभ्यता को ईसाई धर्म से जोड़कर देखते हैं। उसी तरह थाईलैंड, जापान और चीन जैसे देशों को बुद्धिज़्म से जोड़कर देखा गया है और मिडल ईस्ट के देशों को इस्लाम से जोड़कर देखा गया है तो जाहिर है हिंदू राष्ट्र की कल्पना कोई असामान्य घटना मालूम नहीं होती।

लेकिन राष्ट्र की इस पुनर्रचना में अगर हम भारत के सालों से चले आ रहे धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों को खत्म करने की कोशिश करेंगे तो समाज में तनाव की स्थिति बेहिसाब बढ़ेगी। क्या बिना हमारी सांस्कृतिक धर्मनिरपेक्षता को ठेस पहुंचाए भारत हिंदू राष्ट्र बन सकता है? यह सवाल ज़्यादा अधिक महत्वपूर्ण है बजाय इसके कि हम अपनी अल्पसंख्यक जनसंख्या को प्रताड़ित करके एक हिंदू राष्ट्र बने।

सावरकर के हिंदू सिद्धांत में मुसलमान और ईसाइयों को स्थान नहीं मिलता परंतु भारत को उनके इस सिद्धांत को थोड़ा स्पष्ट करना होगा। भारत को अपना हृदय अल्पसंख्यक समुदायों के लिए भी खोलेगा होगा।

जवाब हमारी आंखों के सामने है। क्या हम भारत को कट्टरपंथ इस्लामी देश की तरह देखना चाहते हैं या फिर उदारवादी ईसाई देश जैसे यूरोप और अमेरिका की तरह देखना चाहते हैं, जहां पर ईसाई धर्म का प्रभुत्व तो है परंतु अल्पसंख्यक समुदायों को अपना जीवन बिना किसी डर, संकट और भेदभाव के जीने का पूर्ण अधिकार है।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारत अपने आप को एक कट्टरपंथी इस्लामी धार्मिक राज्य की तरह पुनर्विकसित नहीं करेगा और वह एक उदारवादी हिंदू राष्ट्र की कल्पना को ज़्यादा अहमियत प्रदान करेगा।

भारत में ज़मीन अधिग्रहण का मसला

दूसरी बात बहुत अहमियत रखती है जो काफी पेचीदा भी है। यह मुद्दा है ज़मीनी विकास का। इस विषय की बारीक अध्ययन पार्थ चटर्जी ने हाल ही में पब्लिक किताब ‘द लैंड क्वेश्चन इन इंडिया’ में बखूबी से की है। उन्हीं के कुछ विचारों को यहां भी लिखा गया है। कोई देश एक उद्योगिक पूंजीवाद की ओर आगे बढ़ता है, अर्थात दूसरे शब्दों में कहा जाए तो जब कोई देश अपने आप को उद्योगिक रूप से प्रबल कर रहा होता है ताकि ज़मीनी विकास बढ़े तो यह तीन चीज़ें उस देश में होती हैं।

पहला, जमीन से जुड़े हुए जितने भी लोग होते हैं, जैसे किसान, जंगलों में रहने वाले कबीले और जो ज़मीन से उगा कर अपनी जीवन चर्या चलाते हैं। उन सब लोगों को उन ज़मीनों से हटाना। दूसरी चीज़ है इन ज़मीनों का ऐतिहासिक रूप से पैसे वाले लोगों के पास आना और तीसरी चीज़ है ज़मीन से हटाए गए लोगों को अपना श्रम बेचने पर मजबूर कर देना क्योंकि अब उनके पास ज़मीन से उगाने की क्षमता खत्म हो चुकी है और जीवन चलाने के लिए उन्हें अपना श्रम बेचकर रोजी कमाना होगा।

ज़मीन अधिग्रहण के खिलाफ मार्च। फोटो साभार: फेसबुक

भारत में ज़मीनों को पूंजीपतियों के हाथ में देना शुरू हो चुका है। 2011 में भट्टा परसौल में हुई लड़ाई में विकास के लिए किसान समुदायों की ज़मीनों को पूंजीपतियों को सौंपा गया था। चाहे वह सरदार पटेल की मूर्ति बनाने के लिए खाली कराई गई ज़मीन हो या भारत के कवियों  से छीनी जाने वाली ज़मीनें हो। यह सब औद्योगिक पूंजीवाद को बढ़ावा देने के  तहत हो रहा है, जिसमें सरकार और पूंजीपतियों की आपसी गठजोड़ है। ज़मीन अधिग्रहण की इस प्रणाली में सामान्य लोगों को उनके जीवन के स्रोतों से अलग कर दिया जाता है और केवल अलग-अलग किस्म के वर्कर्स में बदल दिया जाता है।

ज़मीन अधिग्रहण की यह प्रणाली आज हमारे देश में शहरों को गाँवों से जोड़ रही हैं। किसानों की ज़मीनों के भाव आसमान छू रहे और मोटे- मोटे मुआवज़े के चलते किसान अपनी ज़मीनें सरकार और निजी उद्योगपतियों को बेच रहे हैं। कहीं-कहीं जमीनें ज़ोर ज़बरदस्ती भी ली जा रही हैं।

इन ज़मीनों पर तरह-तरह के औद्योगिक केंद्र (इंडस्ट्रीज़) विकसित किए जाते हैं, जिनमें इन लोगों को भी काम दिया जाता है। औद्योगिक पूंजीवाद का सबसे बड़ा खतरा होता है, करोड़ों लोगों का अपने रोज़मर्रा के जीवन संसाधनों से पलक झपकते ही अलग हो जाना और बदले में इन लोगों को उतनी ही  तेजी से औद्योगिक केंद्रों में स्थान ना मिल पाना। इसी समस्या को हम बेरोज़गारी के रूप में भी समझते हैं।

औद्योगिक पूंजीवाद को समझना होगा

कुल मिलाकर कहा जाए तो औद्योगिक पूंजीवाद को जन्म देने में सरकार और बड़े-बड़े पूंजीपतियों का मिलाजुला हाथ होता है। इन दोनों की मिलीभगत के चलते ही यह तय किया किया जाता है कि इन तमाम लोगों को जिनकी ज़मीनें छीन ली गई हैं, उन्हें नौकरियां प्रदान की जाएंगी परंतु ऐसा हो नहीं पाता है।

इससे दो चीजें होती हैं, जो लोग बेरोज़गार हुए हैं वे अपने हिसाब से रोज़गार ढूंढने की कोशिश करते हैं। उस पैसे से जो उन्हें ज़मीन बेचकर मिली है और खुद में पूंजीपति बनने की कोशिश करते हैं। इससे एक बहुत बड़ी अनौपचारिक अर्थव्यवस्था पैदा होती है। इस अर्थव्यवस्था में जवाबदेही और पारदर्शिता बहुत कम के बराबर होती है क्योंकि यह निजी लोगों द्वारा चलाई जाने वाली अर्थव्यवस्था होती है। इनमें कमाई पर ज़्यादा ज़ोर होता है बजाय कि उसके समाज में वितरण पर।

करप्शन को भी इसी संदर्भ में समझा जा सकता है। सरकार अपने ऊपर यह ज़िम्मेदारी लेती है कि वह इस अनौपचारिक अर्थव्यवस्था को सही रूप से संचालित करेगी और तमाम लोगों को बेहतर सुविधाएं मौजूद होंगी परंतु सरकार द्वारा चुने गए लोग बाकी लोगों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को भूलकर इन नए छोटे-छोटे पूंजीपतियों से सांठगांठ और पैसे लेकर अपना फायदा कर लेते हैं। उदाहरण के तौर पर राफेल, 2G और अन्य ऐसे स्कैम्स हमारे सामने मौजूद हैं।

फोटो साभार: Getty Images

शहरों में स्थाई रूप से मौजूद झुग्गी-झोपड़ियां भी इन्हीं व्यवस्थाओं की देन हैं और सरकार इसलिए इन लोगों को शहरों से हटाने में असमर्थ है क्योंकि सरकार ने तो इन लोगों के साथ इनकी ज़मीनें छीन कर धोखा किया है। इन लोगों को एक बेहतर विकास का सपना दिखाकर बर्बादी की तरफ धकेल दिया है इसलिए झुग्गी-झोपड़ियों को हटाना एक राजनीतिक समस्या है, जिसे पल भर में अलग नहीं किया जा सकता।

चाहे सरदार पटेल की मूर्ति से हटने वाले तमाम कबीले हो या फिर चमड़ा बैन जैसी चीज़ों से पैदा किए गए मज़दूर।  इस उद्योगिक क्रांति में समाज के ऐतिहासिक रूप से पिछड़े तबके ही उत्पीड़ित हुए हैं।

दूसरी ओर इससे एक राज्य कमज़ोर होता है क्योंकि अधिकांश ज़मीनें और व्यापार पूंजीपतियों के हाथ में सौंप दिए जाते हैं। एक राज्य जो समाज के लिए काम करने की ज़िम्मेदारी लेता है, उसके पास संसाधनों की बेहिसाब कमी होने लगती है। निजी व्यापारी जितना कमाते हैं, उतने की वापसी और वितरण की ज़िम्मेदारी नहीं लेते लेकिन राज्य यह ज़िम्मेदारी लेता है।

पूंजीपतियों के मुनाफे से गरीबों का भला नहीं हो सकता

इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि पूंजीपतियों के साथ मिलकर जब एक राज्य, देश को विकास की ओर ले जाने की बात करता है तो पूंजीपति देश का हाथ छोड़कर दोनों हाथों से पैसे बटोरने में लग जाता है। इससे देश और उसकी तमाम प्रणाली जैसे मुफ्त इलाज, शिक्षा और तमाम चीज़ें कमज़ोर हो जाती हैं। नतीजतन, समाज में विकास तो होता है, बेहतर अस्पताल आते हैं, बेहतर दवाइयां, बेहतर शिक्षा, बेहतर कपड़े और बाकी सब कुछ भी बेहतर हो जाते हैं लेकिन उनके दाम पूंजीपतियों द्वारा तय किए जाते हैं जो कि इतने ज़्यादा होते हैं कि उनको लेने की क्षमता बहुमूल्य जनसंख्या में कम हो जाती है।

शिक्षा पर कुल खर्च अब हज़ारों की बजाय लाखों में आने लगता है। उसी तरह इलाज पर खर्च भी हज़ारों की बजाय लाखों में तब्दील हो जाता है। किसानों और अन्य लोगों को अगर ₹100000000 उनकी ज़मीन के बदले मिलते हैं तो वह 8-10 सालों में औद्योगिक समाज में समाप्त हो जाते हैं फिर किसान और अन्य लोग एक बुरी हालत में रहते हैं। हमारे समाज में सभी के पास ज़मीनें एक समान वितरित नहीं हुई थी इसलिए औद्योगिक पूंजीवाद वर्ग (इकोनॉमिक क्लास) को जन्म देता है। कुछ लोगों के पास ज़्यादा ज़मीनें थीं, वे अधिर अमीर बने और जिन लोगों के पास कम ज़मीनें थीं वे कम अमीर बने।

फोटो साभार: Twitter

निचले तबके के बहुत लोग होते हैं और इन लोगों के पास पैसों की कमी जल्दी ही शुरू हो जाती है क्योंकि सारा पैसा पूंजीवादी लोग इकट्ठा कर लेते हैं। ऐसी हालत में अर्थव्यवस्था चलाने के लिए पूंजीपति लोगों को फिर कर्ज़ देना शुरू करना पड़ता है। लोगों की खरीदने और पैसा खर्च करने की क्षमता बनी रहती है जिससे देश के जीडीपी स्थाई रूप से चलाए जाते हैं परंतु इंसान कर्ज़दार होकर ही जी रहा होता है।

एजुकेशन लोन और होम लोन को दूसरे रूप से देखा जाए तो लोगों को गुलामी की ओर धकेलने के बराबर हैं। आज तो हमारे समाज में ₹10000 का मोबाइल लेने के लिए भी लोन मिल जाता है लेकिन इसका दूसरा पहलू यह भी है कि आज हमारी जनसंख्या अपने बलबूते पर 10000 का मोबाइल भी नहीं ले सकती है।

ज़मीनी विकास के रूप में हम बड़ी-बड़ी बिल्डिंग, बढ़िया सड़कें, बड़े-बड़े अस्पताल, बड़े-बड़े कॉलेज, यूनिवर्सिटी और चमकते दमकते जिन शहरों को हम देखते हैं, वे हमें केवल एक गुलामी की व्यवस्था में ले जाते हैं, क्योंकि लोगों के पास अपना खुद का कुछ नहीं रह जाता है। उनके पास अगर कुछ रह जाता है, तो वह होता है उनकी काम करने की शक्ति जिसको भी पूंजीपति अपने तरीके से इस्तेमाल करते हैं।

अगर आप ऑफिस में सोमवार से शनिवार नहीं जाएंगे तो वह आपको नौकरी से निकाल देगा। चाहे आपके घर में आग लगे या आपकी बीवी आपसे लड़े, आपको अपना लेबर निरंतर ही बेचना होता है। ऐसे में आप एक चक्कर में फंस जाते हैं।

एक मज़बूत सरकार की है ज़रूरत

एक मज़बूत सरकार दूसरी ओर हमें एक बेहतर समाज की ओर ले जा सकती थी परंतु भारत औद्योगिक पूंजीवाद के दौर से गुज़र रहा है। जहां निजी उद्योगपतियों का राज होगा और उनका दिया हुआ एक झूठा वादा होगा जो कि अंत में उन सब की पीठ में छुरा भोंकेगा जिनकी मदद से वह समाज में आया।

आज हमलोग अपनी ज़मीनें तो छोड़ देंगे लेकिन कल हम उन्हीं ज़मीनों पर गुलामों की तरह काम करेंगे। भारत के लोगों को ज़रूरत है कि वह विकास की चमक-दमक से बचें और एक बेहतर विकास की ओर बढ़ें और इसी में मानवता का हित है।

अगर मैं दोबारा यह सवाल दोहरा रहा हूं कि आज के युग में भारत के लिए विकास के क्या मायने हैं, तो हमें समझना चाहिए कि भारत का विकास मतलब एक मुट्ठी भर पूंजीपतियों का उदय और एक समुद्र जैसी आबादी के संसाधनों से अलग हो जाना है और केवल गुलामों की तरह पूंजीपतियों के लगाए गए कारखानों में काम करते रहने का है।

भारत विश्व शक्ति बनने की महत्वाकांक्षा रखने वाला एक देश है। इसके पास दुनिया की सबसे बड़ी लेबर फोर्स भी है, जिसे आने वाले सालों में खूब काम लिया जाए तब भी खत्म नहीं होगी। जिस तरह से हमारा देश औद्योगिक पूंजीवाद की जकड़ में आ चुका है, मुझे नहीं लगता भारत कि आने वाले सालों में उन कमियों को पहचान पाएगा जो पश्चिमी पूंजीवाद ने हमारे सामने रखी हैं।

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