नमस्कार दोस्तों,
जैसा कि आपने लेख के विषय को पढ़ा है, उससे आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि बाहर का भोजन कितना हितकारी है और कितना नहीं? रोज़मर्रा के जीवन में आज सबके पास 24 घंटे प्रतिदिन होने के बावजूद भी अपनी महत्वकांक्षाओं की बढ़ती तादाद के कारण समय हमें कम मालूम पड़ता है, लेकिन इसी समय के बीच हम अपनी मूलभूत आवश्यकता को छोड़ शौक को प्राथमिकता देने लगते हैं।
इस लेख को लिखने का मन इसलिए हुआ क्योंकि जब अपनी आंखों से तकरीबन 15 सालों के सूक्ष्म शोध के बाद यह एहसास हुआ कि भोजन स्वादिष्ट हो यही ज़रूरी नहीं, बल्कि भोजन परोसने वाला माहौल, किस परिस्थितियों में भोजन को पकाया गया है, यह तमाम बातें हैं जो भोजन ग्रहण करने वालो को प्रभावित व असर करती है।
हाल ही में भूख से व्याकुल मेरे दिल ने बाहर का भोजन खाने के लिए मुझे बाध्य किया और विकल्प ना होने के कारण मैं छोले-कुलचे के ठेले के पास जाकर ऑर्डर देने ही वाला था कि उसके मुंह मे गुटखे और अन्य नशीले पदार्थ की तबाही देखकर दिल दहल गया। उसके छींटे मुझ तक आ रहे थे मगर उसमें शक्ति कम होने के कारण वह छोले-कुलचे में जाकर समाहित हो गई।
एक बार नज़रअंदाज़ करके मन को मनाया मगर तबाही मुंह में अभी भी चालू थी और बाहर भी उसका असर मुझे बखूबी दिख रहा था तो अंततः मैंने उसे इसके लिए डांटा तो मुझपर ही बरसने लगा और कहा, “जाकर रास्ता नाप! 20 साल से यहां पर हूं और कभी किसी को दिक्कत नही हुई।”
मेरे अंदर से आवाज़ आई, “भाई साहब! भैंस की आंख।” मतलब यह मुंह मे गुटखों का तालिबानी हमला 20 साल से चालू है। खैर, ज़रूरी नहीं है 20 साल से ही हो, कम ज़्यादा भी हो सकता था मगर आश्चर्य इस बात का है कि मुंह को रेड कारपेट बनाना तो सही है लेकिन उसका असर जो बाहर वाले वातावरण पर पड़ता है, उनका क्या होता होगा?
खैर, इस मुंह में आई त्रासदी और आपदा देखकर मेरे पेट के चूहों ने आत्महत्या कर ली और भूख फिर इस बात से सहम गई कि जो छोले-कुलचे जो इतने सालों से खाया है, क्या उसमें भी इस लाल आतंक का साया था?