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चमकी बुखार: क्या मृतक के परिजनों को नहीं मिल रहा है सरकार के वादे का 4 लाख?

जब सामने विशाल गरीबी मुंह बाए खड़ी होती है, तो फिर ज़िन्दगी छोटी नज़र आने लगती है। 2014 में भी चमकी बुखार की चपेट में आने से ही तकरीबन 139 बच्चों की मौत हो गई थी। कैलेंडर में साल बदलने के बावजूद भी बिहार की स्वास्थ्य व्यवस्था नहीं बदली है। आलम यह है कि इस साल भी यानी 2019 के ढलने से पहले ही चमकी बुखार, जिसे एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम यानी (AES) के नाम से जाना जाता है, उसकी चपेट में अब तक 200 से अधिक मासूम बच्चों की मौत हो चुकी है। जबकि कई बच्चों ने रास्ते में ही दम तोड़ दिया।

सबसे भयावह मंज़र सूबे के मुज़फ्फरपुर, वैशाली, सीतामढ़ी और समस्तीपुर में रहा, जहां ऐसा लगा मानो यमराज ने सीधे ज़मीन पर दस्तक दी हो। इस तरह से सैंकड़ों हंसते खेलते परिवारों का अस्तित्व खत्म हो गया। किसी के घर का चिराग बुझ गया तो किसी की गुड़िया जैसी बच्ची काल के गाल में समा गई। कई गाँव बच्चों की तुतली बोली सुनने को तरस गए।

पहले से ही बिहार की बीमार और बेपटरी पर चल रही स्वास्थ्य व्यवस्था कई दशक से चमकी बुखार के सामने दम तोड़ती नज़र आती है। डॉक्टर, अस्पताल और संसाधन की कमी के दलदल में फंसे बिहार के सुशासन बाबू के नाम से मशहूर बिहार के मुखिया नीतीश कुमार पिछले करीब 14 सालों से बच्चों के राख पर बैठकर फाइल-दर-फाइल पलटते रहे पर सूबे की स्वास्थ्य हालत नहीं बदल पाए।

हर्षवर्धन द्वारा बिहार के लिए किए गए वायदे भी फेल ही साबित हुए। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री अश्विनी चौबे और राज्य स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडे लगातार स्वास्थ्य के ठीक होने का हारमोनियम बजाते रहें मगर 200 से अधिक परिवारों के बीच से आती चीख पुकार ने वेंटिलेटर पर लटके सिस्टम की पोल खोल दी। मुज़फ्फरपुर का सबसे प्रभावित क्षेत्र मीनापुर, कांटी और बोचहां रहा।

क्या चमकी बुखार की सबसे बड़ी जड़ गरीबी है?

मुज़फ्फरपुर में बच्चे का इलाज कराने आए माता-पिता। फोटो सोर्स- Getty

साल दर साल इस चमकी बुखार ने बिहार के सैंकड़ों बच्चों को खिलने से पहले ही दफन कर दिया लेकिन औसतन मामले जो सामने आए, वे घोर गरीबी की चपेट में दिखे।

मुज़फ्फरपुर ज़िले के मुशहरी प्रखंड मुख्यालय से 3 किलोमीटर दूर स्थित पंचायत जिसकी आबादी तकरीबन 6000 के आसपास है। पंचायत के वार्ड न. 1 में लगन साह की एक छोटी-सी झोपड़ी है। लगन साह खुद ग्रामीण बाज़ार में सब्ज़ी बेचते हैं और इनकी पत्नी रिंकू देवी शहर स्थित एक फैक्ट्री में काम करती हैं। महीने में महज़ 3000 से 3500 कमा पाती हैं। इसी महीने के 10 जून को इन्होंने अपना 10 साल के कलेजा का टुकड़ा खोया है। पूछने पर बताती हैं कि जब वह काम से लौटी थी, तो बेटी निशु की तबियत काफी खराब हो गई थी। कहती हैं कि उल्टी होने लगी और आंखें ऊपर नीचे होने लगी। आनन-फानन में अपनी बेटी को नज़दीक के अस्पताल ले गईं लेकिन विधाता और सड़े सिस्टम के आगे बेटी ने रास्ते में ही दम तोड़ दिया।

घर की माली हालत काफी खस्ता दिखाई पड़ती है। गरीबी के चक्रव्यूह ने एक बच्चे को निगल लिया। बाकी तीन बच्चे को अपने ननिहाल में मामा-मामी के यहां भेज दिया है, जबकि एक को अपने पास रखी हुई हैं, ताकि मन को सुकून मिल सके।

इससे इतर इसी प्रखंड के मणिक विशुनपुर पंचायत पर भी चमकी बुखार ने खूब कहर बरपाया हुआ है। इसमें डॉक्टर की लापरवाही और अस्पताल की पोल पट्टी खुद उन लोगों ने खोली, जिन्होंने अपने बच्चों का इलाज वहां करवाया था और उसे खो दिया है।

पंचायत के वार्ड नं 3 के चुलाई राम की पत्नी चुनचुन देवी की बेटी रवीना कुमारी, जो मात्र 3 वर्ष की थी, जिसकी मृत्यु बीते 10 जून को चमकी बुखार की वजह से हो गई थी। माँ चुनचुन देवी कहती हैं कि घर में शादी थी और अचानक तड़के बेटी को उल्टी होने के साथ ही उसकी आंखें ऊपर नीचे होने लगी। सबसे पहले बच्ची को नज़दीकी पीएचसी ले गई, जहां डॉक्टर ने सिर्फ 5 मिनट इलाज किया और फिर शहर के एस के एमसीएच में रेफर कर दिया।

चुनचुन देवी बताती हैं कि अस्पताल में जो डॉक्टर और नर्स को सौ, पचास रुपये देते थे, उनके बच्चों का जल्दी उपचार हो जाता था। बाकि बच्चों के इलाज में काफी कोताही बरती जाती थी।

बेइमानी लग रहा है मुख्यमंत्री का 4 लाख वाला वादा

इसी पंचायत में आगे बढ़ने पर वार्ड नंम्बर 4 का दर्शन होता है। यहां पर दो परिवारों ने अपने चिराग को बुझते देखा है। दिनेश राम जिनकी शादी 2005 में हुई थी, उन्हें एक लड़की और दो लड़का था। दिहाड़ी मज़दूरी करके परिवार का जीवन यापन करते हैं। 17 जून को यमराज बनकर चमकी बुखार ने इनके 3 साल के बेटे दिलीप कुमार को निगल लिया।

दिनेश बताते हैं कि परिवार की हालत ऐसी है कि दिन में खाता हूं तो रात के लिए सोचता हूं। एक तरफ बेटे की मौत हो गई और दूसरी तरफ महाजन से कर्ज़ लेकर बेटे का दाह संस्कार करना पड़ा। जो 4 लाख की बात मुख्यमंत्री ने कही वह बेइमानी लगती है। अब तक मुझे पैसे नहीं मिले हैं। बोचहां क्षेत्र की विधायक बेबी कुमारी भी नहीं आई हैं सांत्वना के दो बोल बोलने को। इस टोले में 200 बच्चे छह महीने से पांच साल के हैं मगर आंगनबाड़ी केंद्र यहां से 5 किलोमीटर दूर है। वहां बच्चे नहीं जा पाते हैं।

फोटो सोर्स- Getty

तो वहीं इसी वार्ड में राम जतन मांझी ने महज़ डेढ़ साल की अपनी बच्ची राधिका कुमारी को खोया है। राम जतन बताते हैं कि वह सिकंदराबाद में एक सप्ताह पहले ही काम के लिए गए थे। पत्नी ने अचानक कॉल किया कि बेटी की तबियत खराब है। पत्नी रानी देवी बताती हैं कि अचानक राधिका को उल्टी हुई और पूरा शरीर गर्म हो गया। साथ में आंखें ऊपर-नीचे होने लगी। अस्पताल में दो दिन भर्ती कराने के बाद उसकी मौत हो गई।

आगे राम जतन बताते हैं कि बेटी को मरे हुए लगभग 10 दिन हो गए हैं लेकिन सरकार की तरफ से दी जाने वाली राशि (4 लाख) का कोई अता-पता नहीं है।

बच्चे को लेकर लीची की करती थी तोराई, खो दिया लाडले को

रेहाना खातून इस पंचायत के वार्ड नम्बर 1 में रहती हैं, उनके चार बच्चे हैं। इस साल पहली बार लीची की तोराई में गई थीं, साथ में 4 साल का बेटा भी था। पति-पत्नी इसी काम में पिछले 25 दिनों से लगे हुए थे। बीते 8 जून की रात इनके कलेजे के टुकड़े की आखिरी रात रही।

रेहाना कहती हैं कि अब मैं कभी लीची तोड़ने नहीं जाऊंगी। मैंने अपने फूल से बेटे को खो दिया है। आगे ज़मीला खातून जो ज़ाहिद की चाची हैं, कहती हैं कि जब भी मैं बाहर से आती थी, तो मेरा भतीजा दौड़ा चला आता था। अभी भी उसकी तस्वीर आंखों के आगे आ जाने पर रोना आ जाता है मगर घर में उसकी एक भी तस्वीर नहीं है।

सामान्य तौर पर देखा जाए तो इंसेफेलाइटिस के मामले औसतन तौर पर निम्न तपके में ही देखने को मिले हैं। कारण गंदगी, बच्चों में कुपोषण का प्रकोप और सरकार द्वारा गरीबों और निम्न स्तर के लिए भी चलाई जा रही आंगनबाड़ी जैसी योजनाओं पर पंचायत के रसूखदार का पहरा।

सूबे में बड़े दावों के बावजूद 28391 लोगों पर महज़ एक डॉक्टर का गणित बैठता है। देश में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र का कुछ मतलब नहीं रह गया है, क्योंकि यहां मात्र 13 मेडिकल कॉलेज हैं, जबकि कई की इमारतें ढहने को हैं।

यह लोकतंत्र के ललाट पर तमाचा है। बिहार सरकार को यहां की स्वास्थ्य व्यवस्था पर तन मन और धन से लगना होगा, ताकि फिर 2020 का साल बिहार के बच्चों के लिए एक और ताबूत ना बन जाए।

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