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“हर घटना का सांप्रदायीकरण क्यों करता है यह समाज?”

विरोध प्रदर्शन

विरोध प्रदर्शन

उत्तर प्रदेश में छोटी बच्चियों के खिलाफ हिंसा, हत्या और बलात्कार की घटनाएं कोई अपवाद नहीं हैं, बल्कि अपवाद अब हमारा विरोध बन गया है। जनता पूछेगी कि क्या यह पिछली सरकार में नहीं होता था जबकि फिलहाल मौजूदा सरकार से पूछना चाहिए कि उसमें और पिछली सरकार में क्या फर्क है?

एनसीआरबी के आंकड़े बताते हैं कि देश में ऐसे अपराध सबसे ज़्यादा यूपी में होते हैं। आंकड़ा देखेंगे तो पता लगेगा कि पिछले कुछ सालों में पूरे भारत में ऐसी घटनाएं तेज़ी से बढ़ी हैं। अपराधियों में कानून का कोई डर नहीं है। जिन्हें यह झूठ लगता है, वे बिहार शेल्टर होम कांड के मुख्य आरोपी बृजेश सिंह का हथकड़ियों में कसा वह हंसता हुआ चेहरा याद करें।

उन्नाव में अपनी बेटी के लिए इंसाफ की मांग के दौरान कत्ल हुआ

आप उस पिता को भी याद कीजिए जिनका उन्नाव में अपनी बेटी के लिए इंसाफ मांगने के दौरान कत्ल हो गया। कैसे साक्षी महाराज उसके गुनहगार से जेल में आसानी से मिलकर वापस उसी आम आदमी के बीच आ जाते हैं।

पहले लोग ऐसी घटनाओं पर सरकारें गिराने की धमकी देते थे। क्या अब भारत की जनता सरकारी हो गई है और उसके आंसू, दर्द, विरोध और सवाल सब राष्ट्र विरोधी बन बैठे हैं?

निर्भया के वक्त शीला दीक्षित की सरकार हिल गई थी

दिल्ली के निर्भया गैंग रेप के बाद भारत के लोग सड़कों पर थे। शीला दीक्षित की दिल्ली सरकार हिल गई थी। भारत की जनता को 2012 के उस विपक्षी नेता नरेंद्र मोदी का शुक्रिया करना चाहिए, जिन्होंने सरकार की आंख में आंख डालकर सवाल पूछे थे। 2019 में ऐसा कोई नेता नहीं है जो मौजूदा सरकार को यह आईना दिखा सके।

पिछले साल रॉयटर्स ने भारत को महिलाओं के लिए दुनिया का सबसे असुरक्षित देश घोषित किया था लेकिन सोशल मीडिया, टीवी और अखबारों ने इसको महत्व ही नहीं दिया।

महिला सुरक्षा 2014 चुनाव में एक बड़ा मुद्दा था लेकिन 2019 में इस मुद्दे पर कोई बात ही नहीं हुई। जिस निर्भया फंड को महिला सुरक्षा के लिए गठित किया था‌, वह खर्च क्यों नहीं हुआ? आज रेप पर हर बहस को आसिफा के साथ जोड़कर सांप्रदायिक रंग दे दिया जाता है। इसे ऐसे देखते हैं जैसे कठुआ से पहले कोई विरोध ही नहीं हुआ हो।

रेप और हिंसा का सांप्रदायीकरण

कठुआ की घटना हमारी संवेदना का आखिरी इम्तिहान थी, जिसने एक जन-आंदोलन का रूप लिया। हालांकि यह आंदोलन कामयाब नहीं हुआ मगर उसने बता दिया कि भारत वर्ष में सेक्युलर आंदोलन की उम्मीद अब भी जीवित है।

कठुआ ने आइटी सेल को भी कम्युनल कंटेंट देकर उसे सशक्त किया, जिससे भारत के लोगों को तोड़ने वाला वज्र भी मिल गया। इसकी एक खास रेसिपी है। एक कम उम्र की विक्टिम, दिल दहला देने वाली हिंसा और दूसरा धर्म, जाति या क्षेत्र का गुनहगार। इस मॉडल को अब हर जगह अलग तरह से अप्लाई किया जाता है।

पिछले साल बिहार और अन्य उत्तर भारत के लोगों को गुजरात में पीटा और खदेड़ा जाने लगा क्योंकि किसी एक बिहारी ने अपराध किया था। बड़े-बड़े नेता यूपी और बिहार के लोगों को अपराधी कहने लगे। यह क्षेत्रीय राजनीति चमकाने का मौका बन बैठा। इंसाफ की लड़ाई तो कब की खत्म हो गई थी।

मंदसौर को कठुआ के सामने खड़ा कर दिया गया

कठुआ के फौरन बाद मंदसौर में रेप हुआ। यहां विक्टिम एक हिन्दू बच्ची थी और रेपिस्ट, रेपिस्ट नहीं बल्कि केवल मुस्लिम था। इसे ऐसे पेश किया गया जैसे यह मुसलमानों द्वारा हिंदुओं की इज्ज़त पर हमला हुआ हो। इस तरह मंदसौर को कठुआ के सामने खड़ा कर दिया गया।

कठुआ केस के बाद त्रिशूल की नोक पर कंडोम लगी तस्वीरें वायरल हुई थीं। ऐसी ही तस्वीरें मंदसौर के बाद एक मस्ज़िद की मीनारों की भी वायरल हुई थी। आलम यह हुआ कि घटना ने सांप्रदायिक रंग ले लिया। इतनी तेज़ी से ऐसी तस्वीरें आइटी सेल ही फैला सकता है।

मंदसौर को कठुआ के सामने क्यों खड़ा किया गया? उन्नाव के उस लाचार बाप के सामने क्यों नहीं? ऐसा करने से किसको लाभ हुआ?

आल्ट न्यूज़ की रिपोर्ट ने खबर को खारिज़ किया

अलीगढ़ में मंदसौर दोहराया जा रहा है। आल्ट न्यूज़ की रिपोर्ट है, जिसने अलीगढ़ घटना में रेप, आंखे नोचे जाने और गुप्तांगों में एसिड डालने की खबर को खारिज़ किया है। क्या यह आक्रोश के लिए पर्याप्त नहीं है?

अलीगढ़ पुलिस ने भी अफवाहों को अपने ट्वीट में खारिज़ किया है। घटना के मुख्य आरोपी पर अपनी ही बेटी से रेप करने का आरोप भी है। क्या हमारी संवेदना इतनी संकुचित हो चुकी है कि हम सिर्फ ऐसे ही अमानवीय केसों में आक्रोशित हो?

सुन्नी तो कभी रेप ही नहीं कर सकते!

कश्मीर में पिछले माह एक तीन साल की शिया लड़की का एक सुन्नी लड़के ने रेप कर दिया। लोग इसमें शिया सुन्नी खोजने लगे और एक बार फिर बिल्कुल मंदसौर की तरह आसिफा के सामने उस बच्ची को खड़ा कर दिया गया।

शिया समाज के लोग पूछने लगे कि इस बच्ची के लिए वैसा प्रोटेस्ट क्यों नहीं हो रहा है? कश्मीर में जो लोग उस शिया बच्ची को आसिफा के सामने रख रहे हैं, हमें उनसे पूछना चाहिए कि क्या अब तक आम कश्मीरी सुन्नी मुसलमान और उनके नेता सड़कों पर उतरे हैं? और यह कहते हुए शियों पर टूट पड़े कि सुन्नी तो कभी रेप ही नहीं कर सकते?

क्या विक्टिम के समुदाय और वकीलों को वहां के मुस्लिमों द्वारा डराया जा रहा है? क्या अभी तक देश के किसी अखबार ने अपनी हेडलाइन में इसे सच होते हुए भी फेक न्यूज़ बोला है? क्या जिस आसिफा को इन्होंने आक्रोश का आखिरी बिंदु बना दिया है, उसे भारत अब तक इंसाफ दे पाया है?

सब कठुआ के तराज़ू में नहीं तौला जा सकता

क्या हर घटना पर वैसा विरोध हो सकता है, जैसा आसिफा और निर्भया के बाद हुआ था? क्या हर विक्टिम को आसिफा और निर्भया बनाया जा सकता है? यह शर्म की बात है मगर क्या यह हमारे देश में मुमकिन है?

फोटो साभार: Getty Images

पहले यह समझ लें कि आसिफा से किसी और केस की बराबरी क्यों नहीं की जा सकती है? पहली बार संगठित रूप से बलात्कारियों के बचाव में धार्मिक कट्टरपंथियों ने रैलियां निकाली। आज़ाद भारत के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ था कि कोई रेप अभियुक्त के समर्थन में मंत्रियों द्वारा मार्च निकाला गया हो क्योंकि वह हिन्दू था।

महीनों तक इस वारदात को दबाकर रखा गया। भारत के लोगों ने आखलाक और पहलू की हत्या को सामान्य मान लिया लेकिन आसिफा की क्रूर हत्या और उसके हत्यारों के राजनीतिक और धार्मिक संरक्षण को नहीं कबूला।

किसी भी जगह संगठित तौर पर बर्बरता को समर्थन नहीं मिला। मंदसौर केस में वहां के मुसलमानों ने रेपिस्ट की फांसी के लिए जुलूस निकाला था, जिसकी तस्वीरें फोटोशॉप करके आइटी सेल ने चलाई।

यह बताने के लिए कि कठुआ में जैसे अभियुक्तों को समर्थन मिला, वैसा ही समर्थन मंदसौर में भी मिला, जो कि झूठ था। ऐसे लोग आपसे यह कहना चाहते हैं कि मुसलमान अपने समाज के अपराधियों के लिए सॉफ्ट कॉर्नर रखते हैं। यह हिन्दू ही नासमझ हैं जो इंसाफ की बात करते हैं।

कुछ फिल्मकार और लेखक हिन्दू ऑनर पर अचानक ध्यान देने लगे हैं

कुछ फिल्मकार और लेखक हिन्दू ऑनर पर अचानक ध्यान देने लगे हैं। हमें इन घटनाओं को छिन-भिन्न करके नहीं, बल्कि एक साथ देखना चाहिए। पद्मावती फिल्म पर उठे बवाल लव जिहाद की उस बहस को भी याद कीजिए।‌

चूंकि हमारा ऑनर हमारी लड़कियों में सीमित है इसलिए इसने हर हिंसा के सांप्रदायीकरण को आसान और हमारी संवेदनाओं को बौना बना दिया। जो फिल्मी सितारे, पत्रकार और लेखक कठुआ के बाद बोले थे, उन्हें हर ऐसी घटना के बाद गालियां दी जाती हैं।

फोटो साभार: Getty Images

ऐसी घटना पर अगर प्रतिक्रिया देने में एक दिन भी देर हो जाए तो ट्रोलिंग शुरू हो जाती है। वह भी उन लोगों द्वारा जो किसी भी घटना पर नहीं, बल्कि सिर्फ तथाकथित सेलेक्टिव आउट्रेज पर आक्रोशित होते हैं। यह कमेंट कुछ ऐसे होते हैं:

अगर आक्रोश जताएंगे तो यह कहेंगे, “आपका ही इंतज़ार था।”

अगर आक्रोश नहीं जताएंगे तो कहेंगे, “अब नहीं बोलेगा।”

हमें यह समझना पड़ेगा कि इन्हें दिक्कत भी सेलेक्टिव विरोध से नहीं, बस आक्रोश से है।

हम अब क्या करें?

ट्रोलिंग के डर से हमें हर अपराध को सांप्रदायिक कहकर उसकी निंदा नहीं करनी चाहिए। मुस्लिम समाज के लोगों को खासतौर से ऐसी घटनाओं पर बिना धर्म से जोड़े, विरोध ज़रूर जताना चाहिए। भले ही उन्हें ट्रोल किया जाए, क्योंकि लोग यही चाहते हैं कि आपकी चुप्पी को भविष्य की किसी और आसिफा के रेपिस्टों के लिए रैली निकालने का कारण बनाया जा सके।

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