बंगाल के एनआरएस मेडिकल कॉलेज में 11 जून को जूनियर डॉक्टरों के साथ मारपीट हुई थी। इसके बाद से तमाम डॉक्टर्स विरोध जता रहे हैं। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने गुरुवार को इस हड़ताल को भाजपा और माकपा की साज़िश बताया। उन्होंने डॉक्टरों को हड़ताल खत्म नहीं करने पर कार्रवाई की चेतावनी भी दी थी।
इन सबके बीच मीडिया को डॉक्टर्स पर हुए हमले के लिए बिल्कुल भी संवेदना नहीं है। उन्हें अंदाज़ा नहीं है कि देश में डॉक्टर्स पर बढ़ रहे हमले के लिए वे भी ज़िम्मेदार हैं। नकारात्मकता दिखा-दिखाकर लोगों के मन में डॉक्टर्स के खिलाफ ज़हर भर दिया है और परिणाम स्वरूप डॉक्टरों पर हमले हो रहे हैं।
13 जून को न्यूज़ 24 के एक पत्रकार पर हमले के दौरान उसे पीटा गया। मीडिया को शायद पता नहीं है कि उनके द्वारा जिन डॉक्टर्स को गरियाने का काम किया जा रहा है, वही डॉक्टर्स उनका इलाज करते हैं।
डॉक्टर यह नहीं कहते कि उनका महिमामंडन कीजिए, डॉक्टर तो सिर्फ भय मुक्त वातावरण चाहते हैं, जिसमें वे सभी का इलाज कर पाएं।डॉक्टर कभी नहीं कहते कि उन्हें भगवान मान लीजिए, वे भी इंसान हैं और इंसान के रूप में रहना चाहते हैं।
मीडिया को यदि हिम्मत है तो सरकारी अस्पताल में सुविधाओं की कमी पर सवाल उठाए। अगर मीडिया इसी प्रकार सुपारी पत्रकारिता करता रहा तो कोई भी डॉक्टर ना तो ग्रामीण इलाके में जाएंगे और ना ही सरकारी अस्पताल में काम करेंगे, क्योंकि प्राण सभी को प्यारा होता है। मीडिया को यह समझना होगा कि डॉक्टर्स का भी परिवार होता है।
अगर नागरिकों ने भी डॉक्टरों का साथ नहीं दिया, तो कोई बात नहीं। डॉक्टरों के पास केवल एक मार्ग रह जाएगा जैसे- आईआईटी, आईआईएम और एमबीए करके लोग विदेश चले जाते हैं, उसी तरह डॉक्टर्स भी चले जाएंगे।
अंततः इसका नुकसान नागरिकों और मरीज़ो को ही होगा। इसलिए सामान्य नागरिकों को भी डॉक्टर्स पर हो रहे हमले के खिलाफ आवाज़ उठानी चाहिए। यह लड़ाई डॉक्टर बनाम अन्य की नहीं है। यह लड़ाई डॉक्टर + सामान्य जनता + मरीज़ बनाम असामाजिक तत्व + नकारात्मक मीडिया + भ्रम फैलाने वाले लोगों से है।
अपने विवेक का इस्तेमाल करें और सही-गलत व न्याय-अन्याय को पहचाने। ऐसा भी हो सकता है कि आपके बच्चे जब भविष्य में डॉक्टर बनेंगे और भीड़ द्वारा उनपर हमले होने के बाद जब वे आपसे सवाल पूछेंगे, तो क्या जवाब देंगे आप? वे आपसे पूछ सकते हैं कि जब कुछ साल पहले डॉक्टर मार खा रहे थे और उनपर हमले हो रहे थे, तो आप लोग क्या कर रहे थे?
आने वाली नस्लों के पास कई सवाल होंगे। वे पूछ सकते हैं, “क्या आप मूकदर्शक बने बैठे थे?, क्या आप भी उस भीड़ का हिस्सा थे?, क्या आप उस विचारधारा का समर्थन करते थे?, क्या ‘हमें इससे क्या लेना-देना’ सोचते थे?, क्या समाचार देखते ही चैनल बदल देते थे?, क्या आप हंसते थे?, क्या आप ‘और मारो सालों को’ कहते थे? और आखिरी सवाल यह हो सकता है कि क्या आपके अंदर इंसानियत खत्म हो गई थी?, संवेदना नहीं थी?”