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“स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे मसलों पर मीडिया में बहस क्यों नहीं होती?”

न्यूज़ चैनलल देखते लोग

न्यूज़ चैनलल देखते लोग

पत्रकारिता का छात्र होने की वजह से बहुत चिंतित हूं। एक छोटे से गाँव से निकलकर बड़े विश्वविद्यालय तक पहुंचना मेरे लिए बहुत मुश्किल रहा। मैंने विश्वविद्यालय में दाखिले के बाद से ही सपने संजोना शुरू कर दिया।

हमेशा यही सोचता कि मुझे कोई बड़ा पत्रकार नहीं बनना, बल्कि गाँवों और कस्बों में रहने वाले लोगों की समस्याओं को सरकार के सामने धर दूंगा, ताकि उनका ध्यान गरीबों, किसानों और मजदूरों की तरफ आकृष्ट हो मगर अब मेरे सपने और मैं दोनों ही टूटने लगे हैं। जब मैंने बड़े-बड़े मीडिया हाउस की असलियत को देखा तो लगने लगा जैसे यह लोकतंत्र के नहीं, बल्कि सरकार के स्तम्भ हैं।

साफ-साफ कहूं तो वर्तमान में छोटे से लेकर बड़े मीडिया संस्थान के पत्रकार भी लोकतंत्र को मज़बूत करने के बजाय सरकार को संभालने में लगे हुए हैं। किसी भी न्यूज़ चैनल या प्रिंट मीडिया से हम तक उसी रूप में जानकारियां पहुंचती हैं, जिस रूप में वे चाहते हैं। हम वही देखते हैं जो हमें दिखाया जाता है और वही पढ़ते हैं जो पढ़ाया जाता है।

मीडिया में केवल सरकार की उपलब्धियों को गिनाया जाता है

ग्राउंड रिपोर्ट्स तो शायद ही कभी देखने को मिल जाए। खोजी पत्रकारिता किसे कहते हैं यह तो भूल ही जाना बेहतर होगा। अब रिपोर्टरों की ज़रूरत ही नहीं रही है। न्यूज़ चैनलों में काम करने वाले रिपोर्टर्स को नौकरी से हटाया जा रहा है। रिपोर्टर के बदले एंकरों की संख्या बढ़ने लगी है।

पूरे दिन सरकार की उपलब्धियों को गिनाया जाता है। सवाल? ना बाबा ना! ऐसी गलती कौन करे। अरे भई सवाल करिएगा तो सरकार अपने चमचों को बहस करने के लिए भेजेगी ही नहीं और ना हीं आपको भारी मुनाफे वाले विज्ञापन देगी। अच्छे-अच्छे ग्राफिक्स देखकर, न्यूज़ रूम के बदले वॉर रूम देखकर और स्टूडियो में एंकर के हाथ में कलम की जगह बंदूक देखकर आप भी तो खुश हैं।

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने अपने स्तर को इतना नीचे गिरा दिया कि इसे देखने से बेहतर तो यह होगा कि हम इत्मिनान से बैठकर फिल्म और कॉमेडी के चैनल्स देख लें।

प्राइम टाइम में ना तो ज़रूरी जानकारियों या समस्याओं पर बात होती है और ना ही सरकार से सवाल किए जाते हैं, बल्कि राजनीतिक पार्टियों के प्रवक्ताओं और धर्म के ठेकेदारों को बुलाकर बहस कराई जाती है। बहस से समाधान तो नहीं निकलता लेकिन मारपीट के लिए जूते ज़रूर निकल आते हैं।

ज़रूरी मुद्दे मीडिया से गायब

मृदुभाषी, यह क्या होता है? यहां तो देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी के प्रवक्ता द्वारा एक मौलाना को “कठमुल्ला जी” कहकर संबोधित किया जाता है। ईमानदारी से बताइए, आपने कितने दिन बहस में अस्पताल, पानी की समस्या, शिक्षा, किसानों की आत्महत्या, महंगाई, बेरोजगारी और महिलाओं की सुरक्षा जैसे विषयों पर बहस होते देखा है? मुझे तो आश्चर्य होता है कि ऐसे मसलों पर बहस क्यों नहीं होती है।

फोटो साभार: pixabay

प्राइम टाइम से लेकर सामान्य टाइम तक को राम मंदिर से इतना प्यार, स्नेह और लगाव है कि इसके अलावा अन्य मुद्दों से दिल ही नहीं लगता। एंकर द्वारा प्रधानमंत्री से तीखे-तीखे सवाल किए जाते हैं। जैसे- “आप थकते क्यों नहीं?”, “आप सिर्फ 4 घंटे सोते हैं”, “दिन में आपको नींद नहीं आती?”, “आप आम कैसे खाते हैं, काट कर या चूस कर?”, “अच्छा तो आपको मूंग की दाल भी पसन्द है और रोटी भी बेल लेते हैं?” प्रधानमंत्री इन सवालों से परेशान होकर मुस्कुराने लगते हैं।

सवाल पूछने वाले का बहिष्कार किया जाता है

इक्का-दुक्का ऐसे न्यूज़ चैनल बचे हैं जिनमें सरकार से सवाल करने की ताकत है। अब सवाल का जवाब तो है नहीं इसलिए सरकार ने यह निर्णय लिया कि ऐसे न्यूज़ चैनल्स का बहिष्कार किया जाए

अब देखिए कुछ ऐसे न्यूज़ चैनल हैं जिनके मालिक ही उसके मुख्य एंकर हैं। उनकी एंकरिंग ऐसी होती है जैसे कि वह वे मनसिक रूप से बीमार हैं। वे विपक्ष को देखना भी पसन्द नहीं करते, अगर किसी विपक्षी ने सरकार से सवाल कर लिया तो वहीं रखे लोहे की कुर्सी को उस विपक्षी के माथे पर पटक देना चाहते हैं।

इसके कई कारण हैं, जैसे- पहला राज्यसभा के लिए जुगाड़ फिट करना है और दूसरा अपना धंधा भी चलाना है। अब ऐसे में ना तो सवाल बचते हैं और ना ही मुद्दे। अगर मैं भी इनमें शामिल होना चाहूंगा तो सबसे पहले मुझे अपने ज़मीर को बेचना पड़ेगा और यदि ज़मीर ना बेचूं तो ये लोग वह काम करने नहीं देंगे जो मैं करना चाहता हूं।

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